दस महा-विद्या का शास्त्र सम्मत रूपांकन
दस महा-विद्या का शास्त्र सम्मत रूपांकन

दस महा-विद्या का शास्त्र सम्मत रूपांकन  

व्यूस : 19104 | अकतूबर 2012
दश महा-विद्या का शास्त्र सम्मत रूपांकन शुभेष शर्मन काली पुराण एवं सप्तशती आदि ग्रंथों में दस महाविद्याओं का उल्लेख किया गया है जो विभिन्न दिशाओं की अधिष्ठातृ शक्तियां हैं। कौन-कौन सी दिशा का अधिकार महाविद्या के किस स्वरूप को प्राप्त हुआ है और किस स्वरूप की उपासना से क्या लाभ होता है। उसका विशिष्ट विवरण इस लेख में दिया गया है। आज हम शक्ति उपासना के मूल में जो छिपा है उन विद्याओं की चर्चा करेंगे। किसी भी जातक को शक्ति की कृपा प्राप्ति के मार्ग पर चलने से पूर्व गायत्री जप, अजपा जप तथा कुंडलिनी का चिंतन तथा अभ्यास जरूर करना चाहिए। प्रातः सूर्य उदय से पूर्व उठकर नियमपूर्वक नित्य संध्या करना मुख्य सिद्धांत हैं। दस महाविद्या साधना में मूलतः भगवान शिव, माता पार्वती, भगवती सती तथा दक्ष प्रजापति की चर्चा आवश्यक है। ब्रह्मा के पुत्र दक्ष प्रजापति ने आद्या शक्ति को भगवान की कृपा और अपने तपबल के वरदान स्वरूप पुत्री रूप में प्राप्त किया। सती ने अपने दस रूपों को भगवान शिव के पलायन को रोकने के लिए प्रकट किया। ग्रंथों में काली पुराण तथा सप्तशती आदि में भी यही वर्णन है। दस महाविद्या विभिन्न दिशाओं की अधिष्ठातृ शक्तियां हैं। भगवती काली और तारा देवी- उत्तर दिशा की, श्री विद्या (षोडशी)- ईशान दिशा की, देवी भुवनेश्वरी, पश्चिम दिशा की, श्री त्रिपुर भैरवी, दक्षिण दिशा की, माता छिन्नमस्ता, पूर्व दिशा की, भगवती धूमावती पूर्व दिशा की, माता बगला (बगलामुखी), दक्षिण दिशा की, भगवती मातंगी वायव्य दिशा की तथा माता श्री कमला र्नैत्य दिशा की अधिष्ठातृ है। कहीं-कहीं 24 विद्याओं का वर्णन भी आता है। परंतु मूलतः दस महाविद्या ही प्रचलन में है। इनके दो कुल हैं। इनकी साधना 2 कुलों के रूप में की जाती है। श्री कुल और काली कुल। इन दोनों में नौ- नौ देवियों का वर्णन है। इस प्रकार ये 18 हो जाती है। कुछ ऋषियों ने इन्हें तीन रूपों में माना है। उग्र, सौम्य और सौम्य-उग्र। उग्र में काली, छिन्नमस्ता, धूमावती और बगलामुखी है। सौम्य में त्रिपुरसुंदरी, भुवनेश्वरी, मातंगी और महालक्ष्मी (कमला) है। तारा तथा भैरवी को उग्र तथा सौम्य दोनों माना गया हैं देवी के वैसे तो अनंत रूप है पर इनमें भी तारा, काली और षोडशी के रूपों की पूजा, भेद रूप में प्रसिद्ध हैं। भगवती के इस संसार में आने के और रूप धारण करने के कारणों की चर्चा मुख्यतः जगत कल्याण, साधक के कार्य, उपासना की सफलता तथा दानवों का नाश करने के लिए हुई। सर्वरूपमयी देवी सर्वभ् देवीमयम् जगत। अतोऽहम् विश्वरूपा त्वाम् नमामि परमेश्वरी।। अर्थात् ये सारा संसार शक्ति रूप ही है। इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए। भगवती काली को सभी विद्याओं की आदि मूल कहा गया है। इनकी साधना का प्रचलित मंत्र हैं। ऊँ क्रां क्रीं क्रौं दक्षिणे कालिके नमः। इस मंत्र को लोम-विलोम रूप में भी संपुटित करके किया जा सकता है। इनकी उपासना से सभी प्रकार की सुरक्षा प्राप्ति और शत्रु का नाश होता है। भगवती तारा की उपासना भोग व मोक्ष की प्राप्ति, वाणी की वास्तविक ऊर्जा और वाक सिद्धि के लिए की जाती है। महर्षि वशिष्ठ इस विद्या के ऋषि हैं। इनके अनेकों और नाम भी है। ।। स्त्रीं ह्रीं हंू फट् ।। जिन्हें भोग और मोक्ष की प्राप्ति करनी हो वे इनकी उपासना कर सकते हैं। दस महाविद्या के अगले क्रम में भगवती षोडशी, श्री विद्या का स्थान हंैं। मूलतः यही भगवती ललिताम्बा हैं। संसार के विस्तार का समस्त कार्य इन्हीं में समाहित हैं। यही परा कही गई हैं। यही भगवती भक्त पर कृपा करते हुए जब प्रत्यक्ष आर्शीर्वाद देती हैं तो श्री विद्या त्रिपुरमहासुंदरी का दर्शन होता है। इनकी उपासना गुरु-शिष्य परंपरा के बिना संभव नहीं हैं। जिस श्री यंत्र को सिद्ध शुभेष शर्मन काली पुराण एवं सप्तशती आदि ग्रंथों में दस महाविद्याओं का उल्लेख किया गया है जो विभिन्न दिशाओं की अधिष्ठातृ शक्तियां हैं। कौन-कौन सी दिशा का अधिकार महाविद्या के किस स्वरूप को प्राप्त हुआ है और किस स्वरूप की उपासना से क्या लाभ होता है। उसका विशिष्ट विवरण इस लेख में दिया गया है। करके लोग व्यापार में काम लेते हैं उसी से उनका कल्याण हो रहा है। जब जीव इनके रहस्यों को समझ लेता है तो वह सभी प्रकार की सिद्धियों और साधना को प्राप्त कर लेता हैं। इससे आगे माता भुवनेश्वरी की उपासना का वर्णन हैं। यह भगवान शिव की समस्त लीलाओं की मूल देवी हैं। यही सबका पोषण करती हैं। प्राणीमात्र को अभय प्रदान करती हैं। समस्त सिद्धियों की मूल देवी हैं। भुवनेश्वरी की आराधना से संतान, धन, विद्या, सदगति की प्राप्ति होती है। अगले क्रम में भगवती त्रिपुरसुंदरी की उपासना है। इनकी उपासना वाम तथा दक्षिण दोनों मार्ग से होती हैं। ललितोपाख्यान ग्रंथ में महिषासुर नामक राक्षस के साथ त्रिपुर देवी द्वारा किये गये युद्ध का वर्णन है। छिन्नमस्ता सबसे अलग हैं। अपनी सहचरी जया तथा विजया की भूख को शांत करने के लिये अपना सिर काटकर उसमें से जो रक्त धारा निकली उससे अपनी तथा दोनों की क्षुधा को शांत किया। इसी का नाम छिन्नमस्ता है। ये शत्रुविजय, राज्य तथा मोक्ष देने वाली है। विशेषतः विशाल समूह का स्तंभन करने वाली हैं। भगवती धूमावती बहुत ही उग्र हैं। भगवान शिव से भोजन मांगने पर देरी होने पर इन्होंने शिवजी को ही निगल लिया तथा उसी समय उनके शरीर से धुंआ निकला और महादेव माया से बाहर आ गये और कहा, तुमने अपने पति को खा लिया है तुम विधवा हो गई हो। अब तुम बिना श्रृंगार के रहो तथा तुम्हारा नाम धूमावती प्रसिद्ध होगा। इसी रूप में विश्व का कल्याण करोगी। दुर्गा शप्तशती में वर्णन हैं कि इन्होंने प्रतिज्ञा की थी जो मुझे युद्ध में जीत लेगा वही मेरा पति होगा। ऐसा कभी नहीं हुआ अतः वह कुमारी है, धन या पति रहित हैं। अथवा महादेव को निगल जाने के कारण विधवा है। उनकी भूख का रहस्य सप्तशती के आठवें अध्याय में हैं। माता बगलामुखी की साधना-उपासना शत्रु का अति शीघ्र नाश करने वाली है। एक प्रसंग के अनुसार सतयुग में संसार को नष्ट करने वाला तूफान आया। उस वातावरण को देख श्री विष्णुजी को चिंता हुई। उन्होंने सौराष्ट्र देश में हरिद्रा सरोवर के समीप तपस्या कर श्री महा त्रिुपर सुंदरी को प्रसन्न कर लियां उसी सरोवर से बगला के रूप में प्रकट होकर उस तूफान को शांत किया। यही वैष्णवी भी हैं। चतुर्दशी सोमवार की मध्यरात्रि में प्रकट हुई हैं। इनकी उपासना शत्रु शमन, विग्रह शांति तथा अन्य कार्य के लिये की जाती है। भगवती मातंगी मातंग मुनि की कन्या के रूप में अवतरित हुई हैं। ये परिवार की प्रसन्नता तथा वाणी, वाक-सिद्धि देने वाली हैं। चारों पुरुषार्थ प्रदान करने वाली हैं। भगवान विष्णु ने भी भगवती मातंगी की उपासना से ही सुख, कान्ति तथा भाग्य-वृद्धि प्राप्त की है। ऐसा वर्णन है कि रति, प्राप्ति, मनोभवा, क्रिया अनंग कुसमा, अनंग मदना, मदनालसा, तथा शुद्धा इनकी अष्ट ऊर्जाओं के नाम हैं। माता कमला को लक्ष्मी भी कहते हैं। समुद्र मंथन के समय कमलात्मिका लक्ष्मी की उत्पत्ति हुई। इन्होंने श्री महात्रिपुर सुंदरी की आराधना की। श्री कमला के अनेक भेद हैं। ये संसार की सभी संपदा, श्री, धन-संपत्ति, वैभव को प्रदान करने वाली है। श्री लक्ष्मी को सर्वलोक महेश्वरी कहा है। देवी भागवत में इन्हें भुवनेश्वरी, इंद्र ने यज्ञ विद्या, महाविद्या तथा गुह्यविद्या कहा है। मुंडमाला तंत्र में श्री विष्णु के दशावतार की दस महाविद्याये हैं। अर्थात जब-जब श्री विष्णु अवतार लेते हैं तब-तब माता लक्ष्मी भी उन्हीं के अनुरूप अपना शरीर बना लेती हैं। तो सिद्धांत में कृष्ण के साथ काली, राम के साथ तारा, वराह के साथ भुवनेश्वरी, नृसिंह के साथ भैरवी, वामन के साथ धूमावती, परशुराम के साथ छिन्नमस्ता और मत्स्य के साथ कमला, कूर्म के साथ बगला, बुद्ध के साथ मातंगी, कल्कि के साथ षोडशी लक्ष्मी के ही विविध रूप हैं। देवी भागवत में स्वयं नारायण ने मूल प्रकृति को दुर्गा कहा है। अर्थात् दुर्गा में उनकी समस्त देवियों की पूजा होती है। प्राणियों को बुद्धि देने वाली अधिष्ठातृ देवी हैं। शिव पुराण में एक अन्य कथा के अनुसार ब्रह्माजी ने कहा है कि महादेवजी के शरीर से ही देवी की उत्पत्ति हुई है। यही रूप अर्द्धनारीश्वर कहलाता है। इन्हीं त्रिपुरा के नेत्रों के मध्य से एक शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ है। इन्हे ही दक्ष प्रजापति ने पुत्री के रूप में अंगीकार किया था। यही दाक्षायणी सती हैं। उन्हीं सती ने अपने दस रूपों को प्रकट किया अतः शक्तिमान और शक्ति अभिन्न हैं। इनमें कोई अंतर नहीं हैं। पुराणों में इनमें कोई भेद नहीं मानते। इन रहस्यों को समझने के लिए मत्स्पुराण, लिंग पुराण, देवी पुराण, कुर्मपुराण, विष्णु पुराण आदि धर्म ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए। अंतकाल तक उपासना के बाद भी उनकी कृपा उनकी मर्जी से ही होती है। जन्म-जन्मांतर तक मानसिक पंचोपचार व षोडशोपचार पूजा करते रहने पर भी इनके रहस्य को जानना सरल नहीं है।



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