दस महाविद्याओं का संक्षिप्त परिचय व मंत्र दाती राजेश्वर महाराज दस महाविद्याओं से सर्वसाधारण परिचित नहीं है और यह भी नहीं जानता कि इन विद्याओं की उपासना से क्या लाभ हो सकता है और उनकी उपासना का विधि-विधान क्या है जिससे साधक अभीष्ट को सिद्ध कर सके। इस सबकी जानकारी के लिए पढ़िए यह लेख। दगु ार्स प्तशती म ंे महामाया पराविद्या का स्वरूप चित्रण इस प्रकार किया गया है:- महामाया हरेश्चैषा यथा सम्मोह्यते जगत। ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।। बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति। तया विसृज्यते विश्वं जगदेतच्चराचरम्।। संसार का सृजन व विनाश परब्रह्म परमेश्वर की महामाया जिसे सामान्यतः ‘माया’ के नाम से जाता है, महामाया कहलाती है। इन्हीं महामाया के समय-समय पर जो विविध रूप व प्रकार बने है, उनमें से मूल दस रूपों को ‘दस महाविद्या’ के नाम से जाना जाता है। यह महाशक्ति विद्या और अविद्या दोनों रूपों में विद्यमान है। अविद्या रूप में यह शक्ति प्राणियों के मोह का कारण है तो विद्या रूप में यही मुक्तिदाता बन जाती है। शास्त्र व पुराण इसे विद्या के रूप में मानते हैं। परमपुरूष को विद्यापति के रूप में माना गया है। वेद व अन्यान्य शास्त्रों में विद्या प्रकट रूप तथा आगमादि रूप में विद्वानों एवं साधकों द्वारा सांकेतिक रूप में लक्षित हुई है। ये वैष्णवी एवं शाम्भवी दोनों रूपों में मानव जीवन का कल्याण करती है। आगम शास्त्र में मां भगवती के विभिन्न रूपों, शक्तियों का अनेक विधाओं एवं रूपो में गुरुमुखगम्य अनेक मंत्रों का विधान है फिर भी उनमें दस महाविद्याओं की श्रेष्ठता स्पष्ट रूप से बताई गई है। महाविद्याओं का प्रादुर्भाव दस महाविद्याएं मूलशक्ति के ही विभिन्न रूप हैं। पुराण की एक कथानुसार जब दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में भगवान शंकर को आमंत्रित नहीं किया, परंतु सती ने उक्त यज्ञ में जाने की अनुमति मांगी तो शिव ने बिना बुलाए जाना अनुचित बताकर उन्हें मना किया, परंतु भगवती सती का निर्मल हृदय माता-पिता के दर्शन का अभिलाषी था। अतः वह शिव आज्ञा के बिना ही यज्ञ समारोह में जा पहुंची। वहां पर उन्होंने भगवान शिव का कोई स्थान न देख अपमानित होकर अपनी क्रोधाग्नि से स्वय को भस्म कर लिया तथा दक्ष प्रजापति का यज्ञ विध्वंस हो गया। उस समय उनका जलता हुआ शरीर अत्यंत भावावेश से युक्त वृद्धावस्था को सम्प्राप्त-सा केशराशि बिखरी हुई, चार भुजाओं से सुशोभित था। वे महादेवी पराक्रम की वर्षा-सी करती प्रतीत हो रही थी। कालाग्नि के समान महाभयानक रूप में देवी मुण्डमाला पहने हुए थी तथा उनकी भयानक जिह्वा मानों तीनों लोकों को निगल जाने के लिए बाहर निकली हुई थी। शीश पर अर्धचंद्र सुशोभित था तथा समस्त शरीर अत्यंत विकराल लग रहा था। मां भगवती का भयानक रूप मानो भगवान शिव को भी भयाक्रांत कर देने वाला था। उस समय उनका श्री विग्रह करोड़ों-करोड़ों मध्याह्न के सूर्यों की भांति दीप्तिमान था। वह बार-बार अट्टहास कर रही थी। देवी के इस विकराल भयानक रूप को देखकर शिव भाग चले तथा भागते हुए रूद्र को दसों दिशाओं में रोकने के लिए देवी ने अपनी अद्भुत दस शक्तियों को प्रकट किया। जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं- 1. महाकाली, 2. उग्रतारा, 3. षोडशी, 4. भुवनेश्वरी, 5. छिन्नमस्ता, 6. भैरवी, 7. धूमावती, 8. वल्गामुखी, 9. मातंगी, 10. कमला। इन दसों शक्तियों का वर्णन शास्त्रों में इस प्रकार किया गया है। हे प्रभु, आपके सम्मुख स्थित देवी जिनकी काया श्यामवर्ण तथा नीले नेत्रों वाली है, वह महाशक्ति (काली) है। जो श्यामवर्ण देवी स्वयं उघ्र्व भाग में स्थित है, वह महाकाल स्वरूपिणी महाविद्या तारा है। हे शिव, बाई ओर से जो यह अत्यंत भयदायिनी मस्तकरहित देवी है, वह महाविद्या छिन्नमस्ता है। शम्भो, आपके वाम भाग में जो यह देवी है, वह शत्रु विनाशिनी माहेश्वरी-महाविद्या घूमावती है। आपके र्नैत्यकोण में जो देवी है, वह त्रिपुरसुंदरी महाविद्या है। आपके वायव्य कोण में जो देवी है, वह मतंग कन्या महाविद्या मातंगी है। शम्भो, मैं भयंकर रूप वाली भैरवी हूं। आप भय न करें- यह मेरा ही स्वरूप बहुत सी मूर्तियों में प्रकट है। पुराण के इस विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि महाकाली ही मूलरूपा शक्ति है। उनके ही उग्र तथा सौम्य दो रूपों में से अनक रूप धारण करने वाली दसों महाशक्तियां हैं या यों समझा जा सकता है कि दसों रूपों की प्रधान शक्ति महाकाली ही है। सर्वविद्यापति भगवान शिव की ये शक्तियां लोक तथा परलोक में सर्वत्र अनेक रूपों व साधनों द्वारा पूजी गई जो सिद्ध होने पर अनन्त का साक्षात्कार कराने में स्वयं समर्थ है। दसो महाविद्याओं में काली की प्रधानता सर्वत्र मानी गई है इसलिये यह कहा जा सकता है कि ये सभी विभिन्न विभूतियां आद्याशक्ति काली की है। ऐसा लगता है कि प्रकट कठोर, किंतु अप्रकट करूण रूप है। इसी प्रकार भुवनेश्वरी, षोड़शी (ललिता), त्रिपुर भैरवी, मातंगी तथा कमला विद्याओं के सौम्य रूप हैं क्योंकि रोद्र के सम्यक् साक्षात्कार के बिना माधुर्य को नहीं जाना जा सकता तथा माधुर्य के अभाव में रूद्र की सम्यक् परिकल्पना नहीं की जा सकती। अतएव सृष्टि को समझने के लिए दोनों स्वरूपों का आभास परमावश्यक है। जिस प्रकार रात-दिन दोनों एक दूसरे के विपरीत होते हुए भी एक दूसरे के पूरक तथा अनुगामी हैं। एक की प्रमुखता होने पर उसके दूसरे रूप के अभाव में पूर्ण तुष्टि नहीं मिलती, उसी प्रकार इन महाविद्याओं के दसों रूपों को जानना चाहिए। त महाशक्ति काली अपने दक्षिण एवं वाम रूपों में दस महाशक्तियों के रूप में विख्यात हुई। ये सभी आद्याशक्ति के रूप में अपनी मंत्रोपासना विधियों में अलग होते हुए भी मूलतः एक ही है। प्रकाश और विमर्श, शिवशक्त्यात्मक तत्व का अखिल विस्तार और लय सब कुछ शक्ति का ही लीला-विलास है। सृष्टि में शक्ति तथा संहार में शिव की शक्ति-दृष्टि है। जिस प्रकार अमावस्या तथा पूर्णिमा दोनों एक दूसरे की पूरक है, परंतु दोनों ही एक दूसरे का कारण तथा परिणामी है, उसी प्रकार सृष्टि, जीवन तथा विनाश में आवश्यक इन दसों महाविद्याओं को समझना चाहिए।