श्रीयंत्र : शिव शक्ति का साक्षात विग्रह
श्रीयंत्र : शिव शक्ति का साक्षात विग्रह

श्रीयंत्र : शिव शक्ति का साक्षात विग्रह  

व्यूस : 8708 | अकतूबर 2012
श्रीयंत्रः शिवशक्ति का साक्षात् विग्रह डाॅ. सुरेश चंद्र मिश्र श्री यंत्र से सभी शक्तिसाधक सामान्य रूप से परिचित हैं। परंतु श्रीचक्र का वैदिक संदर्भ के साथ-साथ क्या वैज्ञानिक आधार है और आदि शक्ति का स्वरूप क्या है तथा शक्ति के विभिन्न अवतारों के क्या हेतु रहे हैं, इसका शास्त्रीय और विद्वतापूर्ण परिचय आप इस लेख में प्राप्त कर सकते हैं। श्रीचक्र का वैदिक संदर्भ श्रीविद्या गूढ़ रूप में तैŸिारीय संहिता, तैŸिारीय ब्राह्मण, तैŸिारीय आरण्यक, अरुणोपनिषत् आदि में मूलतः विद्यमान है। श्रीचक्र में विद्यमान 9 त्रिकोणांे में से 5 त्रिकोण शक्ति को और शेष 4 त्रिकोण शिव तत्व को प्रकट करते हैं। सबके मध्य में बिंदु केंद्र, अणु आदि अंत हीन, अनंत, स्वयं परिपूर्ण परम या तुरीय चैतन्य है। इनके संयोग से श्रीचक्र का स्वरूप स्फुट होता है। शिव-शक्ति के इस संयोग के बारे में आचार्य शंकर अपने ब्रह्मसूत्र के शांकरभाष्य में लिखते हैं- न हि तया विना परमेश्वरस्य सृ्रष्ट्रत्वं सिध्यति। शक्ति रहितस्य तस्य प्रवृत्यनुपपŸोः। श्री यंत्र की रचना की दो विधियां हैं- सृष्टि क्रम और संहार क्रम। सृष्टि क्रम में शक्ति के प्रतीक 5 त्रिकोणों की नोक ऊपर की ओर तथा शिव रूप 4 त्रिकोणों की नोक नीचे की ओर रहती है। इस तरह से 5 सीधे और 4 उल्टे त्रिकोण आपस में गंुथे होकर शिव और शक्ति के सुयोग को प्रकट करते हैं। यही रूप सर्वाधिक मान्य और प्रचलित है। वैदिक मतानुसार इ बीज शक्ति बीज है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद के मण् डल 5, 47,4 मेंत्र में इस तरह से मिलता है- चत्वार ईं बिभ्रति क्षेमयंतो दश गर्भं चरसे धापयंते। त्रिधातवः परमा अस्य गावो दिवश्चरित परि मद्यो अंतान्।। सायण ने इस मंत्र का अर्थ सूर्य या आदित्य या आदि पुरुष, आदिशिव रूप से किया है। यही शिव, शक्ति के न रहने पर शव रह जाते हैं। मंत्र में चार संख्या से प्रकट इ शिव तत्व इ शक्ति से युक्त होकर नौ त्रिकोण और सबके भीतर गर्भ में दसवें बिंदु को धारण करता है। इ को पुरानी ब्राह्मी आदि लिपियों में त्रिकोण रूप में ही लिखा जाता था। अतः एक आदि शक्ति के दो उत्पादक रूपों का समन्वय, उनकी क्रियाशीलता और मंगलकारिता ही समवेत रूप में श्रीचक्र है। श्रीचक्र का वैज्ञानिक आधार वैज्ञानिक मतानुसार इस ब्रह्मांड की उत्पŸिा अणु और अणु विभाजन की प्रक्रिया से ही हुई है। यही विभाजन शरीर के अणुओं के निरंतर विभाजन के रूप में हमारे जीवन का आधार है। जीवन की मूल शक्ति एक से दो, दो से चार, चार से आठ उŸारोŸार स्वयं को विभाजित करती हुई सारी सृष्टि का मूल बनती है। सूर्य संसार का कारण होने से स्वयं साक्षात् शिव या विष्णु ही है। वही सूर्य रूप शिव जब शक्ति अर्थात् ब्रह्माण्ड की धारणा, ज्ञान, क्रिया आदि रूप आकर्षण शक्ति से युक्त न हो तो धरती आदि सब ग्रह लोक आकाश में अपनी कक्षाओं में स्थित रहकर सूर्य की परिक्रमा नहीं कर सकते हैं। जब पृथ्वी में स्पंदन नहीं होगा तो जीवन, सृष्टि, नया निर्माण क्यों हो सकेगा? अतः सूर्य व उसकी आकर्षण शक्ति का संयोग सृजन के लिए परमावश्यक है। इसे ही शिवशक्ति संयोग कहा है। सूर्य रश्मियों में गति और स्पंदन हो, तभी तक यह दिखने वाला नाम रूपात्मक जगत् क्रियाशील रहते हुए निरंतर रचना, निर्माण या उत्पŸिा का परिवर्त बना रह सकता है। इसी संयोग से सब ग्रह लोक या चैदह भुवन बनते हैं। न्याय और वैशेषिक दर्शन के अनुसार भी यह सारी सृष्टि परमाणु से ही उत्पन्न है। अपने स्पंदन रूप वेग से एक अणु अनेक में विभक्त होता हुआ सूर्यादि लोकों के अस्तित्व का कारण है। इसी शक्ति को पराशर होरा में सत्वप्रधान श्रीशक्ति नाम दिया गया है- सŸवप्रधाना श्रीशक्तिर्भूशक्तिश्च रजोगुणा।....भूशक्त्या सृजते स्रष्टा। पराशर के वचनानुसार भू अर्थात् भूमि कण, धूलिकण, अणु रूप पांसु की शक्ति से ही संसार का रचयिता सृजन करता है। निर्माण करने, प्रजनन करने वाला महाकाल का अंशभूत काल रूप संवत्सर ही है और यह सूर्य के अधीन है। समय की शक्ति समया: आदि श्रीशक्ति समय या काल का स्त्रीलिंग रूप समया, स्वयं परंतु देवी त्रिपुरसुंदरी श्रीशक्ति का ही वाचक है। शंकराचार्य भगवती पराम्बा त्रिपुर सुंदरी के लिए समया और परमशिव के लिए समय शब्द का प्रयोग करते हैं। तवाधारे मूले सह समयया लास्यपरया। अथवा समय या काल या महाकाल के साथ समता या समागम का भाव प्रमुख रहने से देवी को समय कहा गया है। शम्भुना समं तुल्यं याति इति समया। शिव व शक्ति के संयोग से यह समता या समागम होता है। विद्या एवं महाविद्या? ज्ञान, बल और क्रिया अथवा सत्य, शिव और सुंदर तत्व का समवेत रूप जिसमें एक साथ निर्बाध रूप से हो वह विद्या है। यह सब जहां सर्वव्यापक, अनंत, अच्छेद्य, अटूट, अनादि रूप में रहे, उसे महाविद्या कहते हैं। यह सदा शक्ति रूप होती है। शक्ति से तात्पर्य देवी भगवत में कहा गया है कि शक्ति शब्द के घटक श् का अर्थ ऐश्वर्य, उत्कृष्टता, वैभव या भूमा है। क्ति अंश से पराक्रम, उद्योग, परिश्रम, लगन आदि भावों का ग्रहण है। अतः जीवन के उदाŸा लक्ष्य को पाने के लिए जब पराक्रम, कर्म, लगन और निरंतरता का संयोग किया जाए तो व्यक्ति स्वयं ही शक्तिपुत्र हो जाता है। उसके लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं है। ऐश्वर्यवचनः शश्च क्तिः पराक्रम एव च। तत्स्वरूपा तयोर्दात्री सा शक्तिः परिकीर्तिता।। महाविद्या दस या अधिक सृष्टि, स्थिति, संहार और त्रिगुण के आधार से महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती त्रिदेवी की गणना है। यही त्रिशक्ति नौ द्वारों वाले शरीर की संचालिका होने पर नवदुर्गा है। पांच ज्ञानेन्द्रियांे व पांच कर्मेन्द्रियों की नियामक, संचालक, कालग्रास रूप से विघातक होने से दस महाविद्या के रूप में परिगणित है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में आदि शक्ति को पंचेन्द्रियों व पांच भावों के साथ जोड़ते हुए पांच संख्या कही हैं- राधा, पद्मा, सावित्री, दुर्गा, सरस्वती। इसी आदि-शक्ति के दस अवतारों के आधार पर भी दस संख्या कही जाती हैं। विष्णु के दस या चैबीस अवतारों के साथ संयोजन करते हुए महाविद्या की संख्या दस से चैबीस तक भी कही गई हंै। विभाजन वर्गीकरण के विभिन्न दृष्टिकोण से प्राप्त संख्या भिन्न होते हुए भी मूलतः एक और प्रधानतया दस संख्या मानना प्रसिद्ध व बहुमत सम्मत मत है। चामुण्डा तंत्र और विश्वसार के अनुसार प्रसिद्ध दस महाविद्याएं ये हैं- काली, तारा, षोडशी या महाविद्या या त्रिपुरसुदंरी, भुवनेश्वरी, त्रिपुरभैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला। उपासना के दो भेदों के आधार पर तंत्रसार में 9-9 की संख्या में कुल 18 महाविद्याएं कही हैं। वास्तव में दसों दिशाओं द्वारा सती को लेकर चलते हुए शिव को रोकने का प्रयत्न किया गया था, इसीलिए महाविद्याएं दस मानी गई हैं। अथवा वेद मंत्रों में वर्णित 1 से 9 और 0 सहित दस संख्या होने से भगवती को दस महाविद्या के रूप में मानना प्रसिद्ध है। इसी तथ्य से मिलती-जुलती कुछ अन्य कथाएं कालिका पुराण, मार्कण्डेय पुराण और नारद पंचरात्र में वर्णित है। वास्तव में यह एक ही शक्ति है जो सर्वत्र व्याप्त है। महानिर्वाण नाम गं्रथ में सब महाविद्याओं का नाम लेकर अंत में आपको एक रूप और सब देवों के अंश को धारण करने वाली ही कह दिया है- सर्वशक्तिस्वरूपा त्वं सर्वदेवमयी तनुः। शक्ति के अवतार के हेतु श्वेताश्वतरोपनिषत् में एक ही शक्ति के अनेक रूप कहे गये हैं- परास्यशक्तिर्विविधैव श्रूयते। महानिर्वाण नामक गं्रथ में भी बताया गया है कि भगवती आदि शक्ति के विविध रूप धरने के तीन प्रमुख प्रयोजन हैं- जगत्कल्याण, नकारात्मक शक्तियों का संहार और भक्तों पर वात्सल्य। अतः आदि शक्ति समयानुसार युगानुरूप रूप धारण कर प्रकट होती रहती है, जिन अनंत रूपों में से दस प्रमुख हैं। दस महाविद्याओं का मूल संकेत: काली: कालसंग्रसनात् काली, इस नियम से काल, समय को नियत्रिंत करने वाली शक्ति ही काली है। यह निर्गुण रूप में अंधकार के समान महाकाली और सगुण रूप में त्रिपुरसुंदरी है। तारा: तारण और उद्धार करने वाली (तारकत्वात् सदा तारा), वाणी की शक्ति देने वाली (लीलया वाक्प्रदा चेति) और शत्रुसंहारकारिणी देवी (उग्रापत् तारिणी यस्मात्) तारा है। षोडशी या त्रिपुरसुंदरी: वेदादिमण्डिता देवि शिवशक्तिमयी सदा, इस वचन के अनुसार ये चंद्रमा की 16 कलाओं के साथ उपासना करने योग्य शिवशक्तिमय आदि शक्ति, परम शक्ति है। भुवनेश्वरी या ललिता: मूलतः ये दुर्गा ही हैं। आम्नाय ग्रंथों के अनुसार श्रीललिता के रूप में त्रिपुरसुंदरी श्रीविद्या ललिता और भुवनेश्वरी ललिता के रूप से विख्यात हैं। त्रिपुरभैरवी: यह सर्वलक्ष्मीमयी, आनंदरूपिणी श्रीत्रिपुरसुंदरी के रथ की सारथी है। त्रि- तीन, पुरुषार्थ, धर्म, अर्थ, काम को पुरति-प्रदान करने वाली हैं। छिन्नमस्ता: प्रचण्डचण्डिका के नाम से भी जानी जाती है। कहते हैं कि आप इतनी दयालू हैं कि अपनी सखी जया और विजया की भूख शात करने के लिए लिए अपना सिर काटकर अपनी रक्त धारा से उन्हें तृप्त किया था। धूमावती: दक्ष यज्ञ के धुएं से धूम्र वर्ण हो गईं थी अथवा एक बार शिव को ही निगल जाने के कारण भगवान् शिव धुएं के रूप में इनके शरीर से बाहर निकले थे। तब से धूमावती के नाम से जाना जाता है। इनका रूप उग्र और विधवा जैसा है। इन्हें वेदों में ज्येष्ठा यानी अलक्ष्मी, लक्ष्मी जी की बड़ी बहन कहा गया है। बगलामुखी: वग् धातु का अर्थ विकलांगता है। शत्रुओं की जीभ को पकड़कर उनकी गति, मति को स्तम्भित करके उन्हें विकल, बेहाल करने वाली देवी बगलामुखी हैं। मातंगी: मतंग ऋषि के यहां पुत्री रूप में अवतार लेने वाली देवी होने से मातंगी नाम है। अच्छी सच्ची वाणी, संगीत का ज्ञान, गृहस्थ का सुख देने वाली देवी हैं। प्रेम, इच्छा, काम, भोग, मनोरथ आदि इनकी विभूतियां हैं। कमला: समुद्रमंथन के समय उत्पन्न होकर भगवती त्रिपुरसुंदरी की कृपा से उनके साथ समानता प्राप्त की। आप ही महालक्ष्मी, कमला, श्री आदि नामों से प्रसिद्ध है। कमला, काली, षोडशी और बगलामुखी की उपासना के अनेक सम्प्रदाय, भेद व आम्नाय हैं। श्रीयंत्र में आप किसी भी महाविद्या की उपासना कर सकते हैं। वास्तव में महाविद्या काल, महाकाल, समय और उसके प्रतिनिधि रूप सौरवर्ष के 360 अंशों की अधिष्ठात्री, काल की मूलस्रोत रूप शक्ति की उपासना है। श्रीचक्र के नौ आवरणों में अथवा नवरात्रों में प्रतिदिन क्रमशः 40-40 अंश रूप शक्तियों की उपासना, काल के अनुसार प्रकृति की अनुकूलता पाना ही श्रीचक्र पूजा का गूढ़ रहस्य है। पिरामिड की संरचना भी श्रीचक्र का ही सरल रूप है।



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