ज्योतिष शास्त्र में ऋतुओं तथा काल, पक्ष, उत्तरायण तथा दक्षिणायन, उत्तर गोल और दक्षिण गोल का अत्यधिक महत्व है। उत्तर गोल में देवता पृथ्वी लोक में विचरण करते हैं, वहीं दक्षिण गोल भाद्र मास की पूर्णिमा को चंद्रलोक के साथ-साथ पृथ्वी के नजदीक से गुजरता है। इसी मास की प्रतीक्षा हमारे पूर्वज पूरे वर्ष भर करते हैं। वे चंद्रलोक के माध्यम से दक्षिण दिशा से अपनी मृत्यु तिथि पर अपने घर के दरवाजे पर पहुंच जाते हैं और वहां अपना असम्मान या अपनी नई पीढ़ी में नास्तिकता को देख दुखी होकर श्राप देकर चले जाते हैं। वे पितृलोक में जाकर अपने साथियों के समक्ष अपने परिवार का दुख प्रकट करते हैं और पूरे वर्ष दुखी रहते हैं।
अगर उनकी नई पीढ़ी पितरों के प्रति सम्मान रख रही है तो वे दूसरे पितरों से मिलकर अपनी पीढ़ी की बड़ाई करते हुए फूले नहीं समाते हैं। ऐसा वर्णन श्राद्ध मीमांसा में आया है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भी जब सूर्य नारायण कन्या राशि में विचरण करते हैं तब पितृलोक पृथ्वी लोक के सबसे अधिक नजदीक आता है। श्राद्ध का अर्थ पूर्वजों के प्रति श्रद्धा भाव से हैं। जो मनुष्य उनके प्रति उनकी तिथि पर अपनी सामथ्र्य के अनुसार फलफूल, अन्न, मिष्टान्न आदि उस पर प्रसन्न होकर पितृ उसे आशीर्वाद देकर जाते हैं।
पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध दो तिथियों पर किए जाते हैं, प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि पर और द्वितीय पितृ पक्ष में। जिस मास और तिथि को पितर की मृत्यु हुई है अथवा जिस तिथि को उसका दाह संस्कार हुआ है, वर्ष में उस तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध किया जाता है। एकोदिष्ट श्राद्ध में केवल एक पितर की संतुष्टि के लिए श्राद्ध किया जाता है। इसमें एक पिंड का दान और एक ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है।
पितृपक्ष में जिस तिथि को (आश्विन मास के कृष्णपक्ष में) पितर की मृत्यु तिथि आती है, उस दिन पार्वण श्राद्ध किया जाता है। पार्वण श्राद्ध में 9 ब्राह्मणों को भोजन कराने का विधान है, किंतु शास्त्र किसी एक ही सात्विक एवं संध्यावंदन करने वाले ब्राह्मण को भोजन कराने की भी आज्ञा देते हैं। ब्रह्म पुराण में वर्णन आया है कि जो लोग श्राद्ध नहीं करते, उनके पितृ उनके दरवाजे से वापस दुखी होकर चले जाते हैं पूरे वर्ष श्राप देते तथा अपने सगे संबंधियों का रक्त चूसते रहते हैं और वर्ष भर उनके घर में मांगलिक कार्य नहीं होते। भारतीय ज्योतिष शास्त्र में पितृ दोष का सबसे अधिक महत्व है। यदि घर में कोई मांगलिक कार्य नहीं हो रहे हैं, रोज नई-नई आफतें आ रही हैं, आदमी दीन-हीन होकर भटक रहा है, या संतान नहीं हो रही है, या विकलांग पैदा हो रही है तो इसका मुख्य कारण यह है कि उस व्यक्ति की कुंडली में पितृ दोष है, और यदि वह व्यक्ति श्रद्धा भाव से अपने पूर्वजों के प्रति श्राद्ध पक्ष की अमावस्या को विधि विधान के साथ पिंड श्राद्ध करता है, तो पितृ उससे प्रसन्न हो जाते हैं तथा उसे आशीर्वाद देकर जाते हैं।
श्राद्ध मीमांसा में वर्णन है कि अगर व्यक्ति के पास वास्तव में श्राद्ध करने के लिए कुछ धन नहीं है, तो वह दोनों हाथों से कुशा उठाकर आकाश की ओर कर दक्षिणमुखी होकर अपने पूर्वजों का ध्यान कर रोने लगे, और जोर-जोर से कहे कि हे मेरे पितरो ! मेरे पास कोई धन नहीं है। मैं तुम्हें इन आंसुओं के अतिरिक्त कुछ नहीं दे सकता तो उसके पितृ उसके आंसुओं से ही तृप्त होकर चले जाते हैं। कर्ण के अर्धमृत्यु के बाद पृथ्वी पर आने की कथा प्रसिद्ध है। उनके इस आगमन को कर्णागत और अपभ्रंश में कनागत कहा गया है। कथा है कि एक बार कर्ण घायल अवस्था में अर्धमृत्यु को प्राप्त हुए।
स्वर्ग में जाकर उन्हें भूख-प्यास का अनुभव हुआ, तो उन्होंने पानी और भोजन मांगा। तब धर्मराज ने उन्हें सोना (स्वर्ण) खाने एवं पीने के लिए दिया और कहा कि तुमने जीवन भर स्वर्ण ही दान किया है, इसलिए स्वर्ण का उपभोग करो। तब कर्ण ने आश्विन कृष्ण पक्ष के केवल 15 दिन मांगे, जिसमें उन्होंने पृथ्वी पर आकर अन्न-जल का दान किया। इस पक्ष में पितरों से संबंधित दान केवल ब्राह्मणों को दिया जाना चाहिए। किसी अन्य संस्था या अनाथालय को सहानुभूति राशि तो दी जा सकती है, किंतु भोजन पर ब्राह्मण का ही अधिकार है, क्योंकि वह ब्रह्म का सीधा प्रतिनिधि है।
यदि किसी को अपने पूर्वजों की मृत्यु की तिथियां याद नहीं हों, तो वह अमावस्या के दिन अपने ज्ञात-अज्ञात पूर्वजों का विधि विधान से पिंडदान, तर्पण, श्राद्ध कर सकता है। इसका 15 दिन का पुण्य फल मिलता है।