सैनिक की आत्मा आज भी देश की रक्षा कर रही है - भारत की मिट्टी में जन्म लेने वाले एक सैनिक का देश को सुरक्षित रखने का जज्बा मरने के बाद भी कम नहीं हुआ है। सिक्किम में स्थित ‘बाबा हरभजन सिंह’ नामक मंदिर इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। इस भारतीय मृत सैनिक की रूह पिछले ४५ सालों से लेकर आज भी देश की रक्षा में लगी रहती है। पंजाब रेजीमेंट में तैनात बाबा हरभजन का देहांत अक्टूबर 1968 को हुआ। घोड़ों के एक काफिले को लेकर आते समय फिसलकर एक तेज बहाव वाली नदी में गिर जाने से इनका देहांत हो गया। नदी का बहाव इनके शरीर को बहाकर बहुत दूर ले गया। लगातार कई दिन तक शव की तलाश की गई परन्तु शव नहीं मिला।
उसी रात्रि में इनकी आत्मा ने खुद आकर एक साथी सैनिक को सपने में आकर शव के स्थान की जानकारी दी। प्रातःकाल में जब उस स्थान पर जाकर देखा गया तो वास्तव में वहां पर सैनिक हरभजन का शव बरामद किया गया जिसका बाद में पूरे सैनिक सम्मान के साथ अंतिम संस्कार कर दिया गया। जिस सीमा पर अंतिम समय पर ये तैनात थे वह स्थान चीन देश की सीमा के निकट पड़ता है। इस सीमा पर चीन की ओर से किसी भी प्रकार का कोई खतरा होने पर यह आत्मा पहले ही सूचित कर देती है जिससे सब सावधान हो जाते हैं। मरा हुआ सैनिक जो आज बाबा हरभजन सिंह के नाम से प्रख्यात है अपनी मृत्यु के बाद भी अपनी ड्îूटी बखूबी निभा रहा है। खास बात यह है कि समय-समय पर इनकी पदोन्नति भी होती है। बकायदा तनख्वाह भी दी जाती है। वर्ष में दो माह की छुट्टी भी दी जाती है। कार्यकारी सभा में इनके लिए कुर्सी खाली रखी जाती है। जब बाबा छुट्टी पर रहते थे तो उस समय पूरा बॉर्डर हाई अलर्ट पर रहता था क्योंकि उस समय भारतीय सैनिकांे को बाबा हरभजन की मदद नहीं मिलती थी। इस सैनिक के नाम पर एक मंदिर बनाकर विधिवत इनकी पूजा की जाती है।
इस मंदिर में अंदर बाबा का एक कमरा भी है जिसकी रोजाना सफाई कर उनका बिस्तर भी लगाया जाता है। बाबा की सेना की वर्दी और जूते भी उनके पहनने के लिए रखे जाते हैं। बताते हैं कि रोजाना सफाई करने पर उनके जूतों में कीचड़ और जूतों के ऊपर चद्दर पर सिलवटें पाई जाती हैं। श्मशान जहां चिता की आग कभी ठंडी नहीं होती - काशी के मणिकर्णिका श्मशान घाट के विषय में यह मान्यता प्रसिद्ध है कि यहां चिता पर लेटना मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है। विश्व का यह एकमात्र ऐसा श्मशान है जहां चिता की आग कभी ठंडी नहीं होती। यहां लाशों का आना और चिता का जलना कभी नहीं थमता। यह माना जाता है कि यहां एक दिन में करीब ३०० से अधिक शवों का अंतिम संस्कार होता है। मणिकर्णिका घाट की विशेषताएं यहीं समाप्त नहीं होती हैं। यहां जलती चिताओं के बीच चिता की भस्म से होली खेली जाती है और चैत्र नवरात्रि अष्टमी को यहां जलती चिताओं के बीच, मोक्ष की आस लिए रातभर डांस किया जाता है। यहां अंतिम संस्कार का टैक्स लिया जाता है।
श्मशान पर लाशों को अंतिम यात्रा पर जाने के लिए टैक्स देना पड़ता है। यह विचित्र विरोधाभास है। मणिकर्णिका घाट पर अंतिम संस्कार की कीमत चुकाने की परम्परा तकरीबन तीन हजार साल पुरानी है। प्राचीन मान्यता के अनुसार श्मशान के रख-रखाव हेतु डोम जाति को दान देने से इस परम्परा की शुरुआत हुई थी। एक समय में राजा हरिशचंद्र ने अपने एक वचन का पालन करते हुए अपने पुत्र का अंतिम संस्कार करने के लिए अपनी पत्नी की साड़ी का एक टुकड़ा अंतिम संस्कार के दान स्वरूप कल्लू डोम को दिया था। माना जाता है कि तभी से शवदाह के बदले टैक्स देने की परम्परा मजबूत हो गई। इसी परम्परा का विकृत रूप मणिकर्णिका घाट पर देखने में आता है। अच्छे भाग्य के लिए छत से फेंकते हैं बच्चों को महाराष्ट्र के शोलापुर में बाबा उमर दरगाह और कर्नाटक के इंदी स्थित श्री संतेश्वर मंदिर में बच्चों को छत से नीचे फेंका जाता है। यहां ऐसी मान्यता है कि बच्चे को ऊंचाई से नीचे फेंकने पर उसका और उसके परिवार का भाग्योदय होता है।
इसके साथ ही बच्चा स्वस्थ रहता है। यहां करीब 50 फीट की ऊंचाई से बच्चे को फेंका जाता है, जहां नीचे खड़े लोग उसे चादर से पकड़ते हैं। पिछले 700 सालों से यहां बड़ी संख्या में हिंदू और मुस्लिम अपने बच्चों को लेकर पहुंचते हैं। बारिश के लिए मेंढकों की शादी हमारे देश के ही कुछ हिस्सों में अच्छी बारिश के लिए मेंढक और मेंढकी की शादी पूरे रीति-रिवाज से कराई जाती है। दरअसल असम और त्रिपुरा के आदिवासी इलाकों में लोग बारिश के लिए मेंढकों की शादी कराते हैं। यहां ऐसी मान्यता है कि मेंढकों की शादी कराने से इंद्र देवता प्रसन्न होते हैं और उस साल भरपूर बारिश होती है। चर्म रोगों से बचने के लिए फूड बाथ कर्नाटक के कुछ ग्रामीण इलाकों में स्थित मंदिरों में भोज के बाद बचे हुए खाने पर लोटने की परंपरा है। यहां ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से चर्म रोग और बुरे कर्मों से मुक्ति मिल जाती है। दरअसल मंदिर के बाहर ब्राह्मण् ाों को केले के पत्ते पर भोजन कराया जाता है।
बाद में निम्न जाति के लोग इस बचे हुए भोजन पर लोटते हैं। इसके बाद ये लोग कुमारधारा नदी में स्नान करते हैं और इस तरह यह परंपरा पूरी होती है। विकलांगता से बचाने के लिए गले तक जमीन में उत्तरी कर्नाटक और आंध्रप्रदेश के ग्रामीण इलाकों में बड़ी अजीब परंपरा है। यहां बच्चों को शारीरिक और मानसिक विकलांगता से बचाने के लिए उन्हें गले तक जमीन में गाड़ दिया जाता है। यह अनुष्ठान सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण शुरू होने के 15 मिनट पहले शुरू होता है। ऐसी मान्यता है कि बच्चों को कुछ घंटे के लिए जमीन में दबाने से उन्हें शारीरिक और मानसिक अपंगता से छुटकारा मिलता है। चेचक से बचने को छेदते हैं शरीर मध्यप्रदेश के बैतूल जिले में हनुमान जयंती के अवसर पर होने वाले पारंपरिक उत्सव में लोग अपने शरीर को छेदते हैं।
इसके पीछे मान्यता है कि ऐसा करने से वो माता (चेचक) के प्रकोप से बच जाते हैं। मार्च के आखिरी या अप्रैल की शुरुआत में आने वाली चैत्र पूर्णिमा के दिन लोग ऐसा करते हैं। शरीर को छेदने के बाद ये लोग खुशी से नाचते-गाते हैं। बच्चों के अच्छे स्वास्थ्य लिए देवी को चढ़ाते हैं लौकी - छत्तीसगढ़ के रतनपुर में स्थित शाटन देवी मंदिर(बच्चों का मंदिर) से एक अनोखी परंपरा जुड़ी है। मंदिरों में आमतौर पर फूल, प्रसाद, नारियल आदि भगवान को चढ़ाने का विधान है, लेकिन शाटन देवी मंदिर में देवी को लौकी और तेंदू की लकड़ियां चढ़ाई जाती हैं। इस मंदिर को बच्चों का मंदिर भी कहते हैं। श्रद्धालु यहां अपने बच्चों की तंदुरुस्ती के लिए प्रार्थना करते हैं और माता को लौकी और तेंदू की लकड़ी अर्पण करते हैं। इस मंदिर में यह परंपरा कैसे शुरू हुई यह कोई नहीं जानता, लेकिन ऐसी मान्यता है कि जो भी यहां लौकी और तेंदू की लकड़ी चढ़ाता है, उनकी मनोकामना पूरी होती है। पति कि सलामती के लिए जीती हैं विधवा का जीवन हमारे देश भारत में एक परम्परा है पति कि सलामती के लिए पत्नी का विधवा की भांति जीवन जीना।
यह परम्परा गछवाह समुदाय से जुड़ी है। यह समुदाय पूर्वी उत्तरप्रदेश के गोरखपुर, देवरिया और इससे सटे बिहार के कुछ इलाकों में रहता है। यह समुदाय ताड़ी के पेशे से जुड़ा है। इस समुदाय के लोग ताड़ के पेड़ों से ताड़ी निकालने का काम करते हैं। ताड़ के पेड़ 50 फीट से ज्यादा ऊंचे होते हैं तथा एकदम सपाट होते हंै। इन पेड़ों पर चढ़ कर ताड़ी निकालना बहुत ही जोखिम का काम होता है। ताड़ी निकालने का काम चैत्र मास से सावन मास तक, चार महीने किया जाता है।
गछवाह महिलायें इन चार महीनों में न तो मांग में सिन्दूर भरती हैं और न ही कोई शृंगार करती हंै। वे अपने सुहाग की सभी निशानियां तरकुलहा देवी के पास रेहन रख कर अपने पति की सलामती की दुआ मांगती हैं। यहां दी गई परम्पराओं व मान्यताओं का समर्थन हम किसी भी तरह से नहीं करते हैं। यह जानकारी केवल ज्ञानवर्धन के लिए दी जा रही है।