विभिन्न पद्वतियों द्वारा चिकित्सा
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विभिन्न पद्वतियों द्वारा चिकित्सा  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 14020 | मार्च 2007

प्रश्न: विष्व में कौन-कौन सी चिकित्सा पद्धतियां प्रचलित हैं और उनसे किस प्रकार रोगों का निदान किया जाता है? चिकित्सा पद्धतियों के मूल में अनेक आश्चर्यजनक तथ्यों का समन्वय है, जिनमें वैज्ञानिक प्रक्रिया, विभिन्न औषधियों, ऋतु के अनुकूल खानपान, रोगानुरूप औषधि ग्रहण एवं रोगी की मानसिकता तथा वातावरण आदि प्रमुख हैं। विश्व की चिकित्सा पद्धतियों का विवेचन इस प्रकार है:-

अग्निहोत्र (यज्ञ) चिकित्सा पद्धति रोग चिकित्सा: भारतीय मनीषियों ने अपने अनुभवों के माध्यम से इस तथ्य का पता लगाया कि अग्निहोत्र संज्ञक यज्ञ (हवन) में जो घृत एवं अन्य सामग्री की आहुति डाली जाती है, वह नष्ट नहीं होती अपितु सूक्ष्मरूप धारण करके वायुमंडल में मिल जाती हैं। यह तथ्य आधुनिक वैज्ञानिकों को भी स्वीकार है। अनेक वैज्ञानिकों ने अपने परीक्षण के आधार पर अग्निहोत्र (हवन) के माध्यम से अगणित असाध्य रोगों की चिकित्सा को संभव सिद्ध किया है।

अग्निहोत्र द्वारा वायु चिकित्सा: ऐलियास बापूराव पारखे का मन्तव्य है कि यज्ञ में दी गई आहुति से वायु चिकित्सा, अग्नि चिकित्सा, विद्युत चिकित्सा, जल चिकित्सा, नाद चिकित्सा आदि एक साथ हो जाती हैं।

अग्निहोत्र द्वारा त्वचा चिकित्सा: वैदिक साहित्य में अग्निहोत्र द्वारा त्वचा संबंधी रोगों के उपचार का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। सूर्योदय के समय अग्निहोत्र (हवन) करने वाले जातक को सिरदर्द एवं त्वचा संबंधी रोगों से मुक्ति मिलती है।

अग्निहोत्र से राजयक्ष्मा का निदान: राजयक्ष्मा एक संक्रामक रोग है। गुग्गुल से किया गया अग्निहोत्र राजयक्ष्मा के कीटाणुओं को नष्ट कर डालता है। अग्निहोत्र (हवन) द्वारा अन्य अनेक चिकित्साएं संभव हैं, जिनसे जीव-जगत लाभान्वित हो सकता है। आयुर्वेद चिकित्सा ‘आयुः’ शब्द स्वास्थ्य का वाचक है और ‘वेद’ वह चिकित्सा विज्ञान है जिससे स्वास्थ्य की रक्षा के नियम और स्वास्थ्य को विकृत करने वाले रोगों के उपचार का ज्ञान होता है।

मूल उद्देश्य: आयुर्वेद चिकित्सा मूलतः इस उद्देश्य पर आधारित है कि सर्वप्रथम मनुष्य के स्वास्थ्य की रक्षा होनी चाहिए, क्योंकि स्वास्थ्य ठीक न होने पर ही प्रायः रोगों का आक्रमण होता है। उक्त तथ्य को दो विभागों में विभाजित किया जा सकता है-

स्वास्थ्य रक्षा के उपाय और स्वास्थ्य के विकृत होने से उत्पन्न हुए रोगों की चिकित्सा के उपाय। यहां आयुर्वेद की चिकित्सा पद्धति के आधार पर इन दोनों बिंदुओं पर प्रकाश डाला जा रहा है।

स्वास्थ्य रक्षा के उपाय: आयुर्वेद चिकित्सा की समग्र पद्धति वात, पिŸा, कफ नामक तीन दोषों के तारतम्य पर आश्रित है। शरीर के उक्त दोषों का संतुलन बना कर मन एवं इंद्रियों को अपने-अपने क्षेत्र में प्रभावी बनाने वाला मानव ही ‘स्वस्थ’ कहलाता है।

आयुर्वेद में स्वास्थ्य की रक्षा हेतु निम्नलिखित प्रमुख नियमों का विधान किया गया है -

आध्यात्मिक साधना अथवा पूजन: अपनी आस्था के अनुरूप आध्यात्मिक साधना अथवा इष्टदेव के पूजन से भी स्वास्थ्य लाभ प्राप्त किया जा सकता है।

स्वास्थ्य के विकृत होने से उत्पन्न हुए रोगों की चिकित्सा के उपाय: स्वास्थ्य संबंधी नियमों का पालन करने में असावधानी के कारण अथवा किसी अन्य कारणवश मनुष्य यदि रोगों से ग्रस्त हो जाता है, तो आयुर्वेद में उन रोगों की चिकित्सा का भी विस्तृत विधान किया गया है। आयुर्वेदाचार्य मनीषीगण इस तथ्य का दावा करते हैं कि आयुर्वेद में उच्च रक्तचाप, मधुमेह, हृदय रोग, दमा, मोटापा, एसिडिटी, एलर्जी, अल्सर, स्पोंडिलाइटिस, साइटिका, अर्थाराइटिस, कैंसर (प्रथम व द्वितीय स्टेज) एवं एड्स जैसे असाध्य रोगों का उपचार बिना शल्य चिकित्सा (आॅपरेशन) के संभव है।

आयुर्वेद की औषधियां एवं उनके स्वरूप: विभिन्न वस्तुओं के समुचित मिश्रण से योग व रस, रसायन, वटी, गुग्गुल, चूर्ण, अवलेह, सत्, काढ़ा, घृत, तेल, लौह, मंडूर, पर्पटी, भस्म व पिष्टी आदि तैयार किए जाते हैं। कुछ विशिष्ट रोगों के निदान कैंसर व एड्स के निदान: आयुर्वेदाचार्य नाड़ी व श्वास के आधार पर कैंसर, एड्स आदि रोगों का निदान करते हैं।

थाइराॅइड, टांसिल एवं कफ रोग: उक्त रोगों से मुक्ति हेतु त्रिकुटी चूर्ण प्रातः और सायं खाली पेट मधु के साथ सेवन करने से अप्रत्याशित लाभ होता है।

वात रोग से निदान: वात रोगों से मुक्ति हेतु हल्दी 100 ग्राम, मेथीदाना 100 ग्राम, सौंठ 100 ग्राम और अश्वगंधा चूर्ण 50 ग्राम का गुनगुने पानी के साथ एक-एक चम्मच सेवन करने से जोड़ों के दर्द, गठिया, कमरदर्द आदि में विशेष लाभ होता है।

मोटापा कम करने की चिकित्सा: मोटापा कम करने के लिए एक चम्मच त्रिफला (हरड़, बहेड़े व आंवले का मिश्रण) चूर्ण को रात्रि में 200 ग्राम पानी में भिगोकर रखें। प्रातः गर्म करें और आधा शेष रहने पर छान लें। दो चम्मच शहद मिलाकर गर्म-गर्म (जो सहन किया जा सके) पीएं। इस विधि से कुछ ही दिनों में मोटापा कम होने लगता है और स्फूर्ति का संचार होता है। रेकी रेकी चिकित्सा पद्धति का उद्गम स्थल जापान है। जापानी भाषा की दृष्टि से ‘रेकी’ पद दो शब्दों के समन्वय से बना है- ‘रे’ और ‘की’। रे का तात्पर्य ब्रह्मांड से तथा ‘की’ का ‘ऊर्जा’ से है। अतः रेकी वह चिकित्सा पद्धति है जो प्राणिमात्र में विद्यमान (परंतु सुप्त) ब्रह्मांड ऊर्जा को जाग्रत करके अनेक साध्य एवं असाध्य रोगों के उपचार में सहायक होती है।

रेकी द्वारा रोगों का निदान: रेकी चिकित्सक का क्रमशः पांच स्तरों में उत्कर्ष होता है। इन पांचों स्तरों में ‘स्पर्श’ द्वारा उपचार करने के लिए जिन आयामों का आश्रय लिया जाता है, उनका विवरण इस प्रकार है: रेकी चिकित्सकों की यह मान्यता है कि इस पद्धति से (बिना किसी औषधि के प्रयोग किए) रक्तस्राव, अस्थि चिकित्सा, शरीर के सभी टूटे अंगों की शल्य चिकित्सा, खांसी, जुकाम, मधुमेह, ज्वर, दस्त, दमा, मानसिक चिकित्सा, माइग्रेन, प्रजननदोष, घावों, कृमिरोग आदि की चिकित्सा संभव है। मनोव्याधि विज्ञान द्वारा चिकित्सा मनोव्याधि विज्ञान द्वारा जिस चिकित्सा पद्धति का प्रवर्तन हुआ, वह भारत के साथ-साथ विश्व के कई अन्य राष्ट्रो में भी पल्लवित एवं पुष्पित हुई। ऐतिहासिक दृष्टि से मनोव्याधि विज्ञान की चिकित्सा पद्धति का वर्गीकरण दो रूपों में किया जा सकता है - भारतीय पद्धति और पाश्चात्य पद्धति।

भारतीय पद्धति: इस पद्धति से उपचार करने पर मानसिक रोग से ग्रस्त व्यक्ति में आत्मबल, मानसिक स्थिरता, संतुलन आदि उत्पन्न होते हैं। अथर्ववेद के बीस खंडों में 50127 मंत्र हैं जिनका मुख्य उद्देश्य मानसिक व्याधियों का निवारण है। वैदिक ग्रंथों के साथ-साथ चरक संहिता आदि के अनुसार भी योग साधना, उचित खान-पान, सकारात्मक चिंतन एवं सरल जीवनशैली के माध्यम से क्रोध, ईष्र्या, मोह, दुःस्वप्न, हिस्टीरिया, अपस्मार, तनाव आदि मानसिक रोगों का उपचार किया जा सकता है।

पाश्चात्य पद्धति: उक्त पद्धति में अधोलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं: इस पद्धति में व्यक्तित्व निर्माण तथा रोगी की शैशवावस्था की संवेगात्मक समस्याओं का लक्षणों के आधार पर उपचार किया जाता है। उक्त उद्धेश्यों को प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र साहचर्य, स्वप्न विश्लेषण, व्याख्या तथा स्थानांतरण तांत्रिकातप का क्रमबद्ध उपयोग किया जाता है।

यह लंबे समय तक चलने वाली एवं अनेक चरणों वाली मनोचिकित्सा है। विशिष्ट विभाग एवं चिकित्सा पद्धति मनोचिकित्सक को प्रथमतः इस बात का सैद्धांतिक ज्ञान होना चाहिए कि व्यक्ति किस प्रकार कार्य करता है। उसे मनोवैज्ञानिक ऊर्जा का ज्ञान होना चाहिए। द्वितीयतः उसे अपना विश्लेषण करना चाहिए ताकि वह अपने आपको समझ सके। उसमें ध्यान की पूर्ण शक्ति होनी चाहिए तथा स्मृति अच्छी होनी चाहिए। तृतीयतः उसे अनुभव होना चाहिए।

व्यवहार उपचार पद्धति इस उपचार पद्धति में असामान्य व्यवहार, चिंतन तथा भावों को परिवर्तित करने के लिए प्रायोगिक मनोविज्ञान की विधियों तथा खोजों का प्रयोग किया जाता है। सेवार्थी केंद्रित चिकित्सा पद्धति इस चिकित्सा प्रक्रिया के अंतर्गत एक सेवार्थी के लक्षण् ाों को समझने तथा उन्हें दूर करने के तरीकों को ढूंढ निकालने में प्रमुख भूमिका सेवार्थी की होती है, मनोचिकित्सक उसे अपने निजी निर्देश नहीं देता।

इस पद्ध ति में उस रोगी का उपचार किया जाता है जो जन्म से उच्च कुलीन और प्रभावशाली होता है। चिकित्सक को ऐसे सेवार्थी रोगी के लिए ऐसी दशाओं एवं वातावरण की रचना करनी चाहिए कि वह (रोगी) स्वयं स्वतंत्र ढंग से निर्णय ले सके। सेवार्थी का उपचार नहीं करना चाहिए, इससे चिकित्सक सेवार्थी को एक बीमार व्यक्ति समझने लगता है और सेवार्थी अपने आपको चिकित्सक पर निर्भर अनुभव करने लगता है।

संज्ञानात्मक व्यवहारपरक उपचार पद्धति इस पद्धति म ंे विक्षपे ी सवं गे ा ंे क े व्यवहारा ंे क े लिए उŸारदायी चिंतन के प्रतिमान (मापदंड) को परिवर्तित किया जाता है। इस प्रक्रिया का उपयोग ही ‘संज्ञानात्मक व्यवहारपरक उपचार’ कहलाता है। यह एक निदेशात्मक पद्धति है। चिकित्सक रोगी की गलत मान्यताओं को चुनौती देता है और उसे रचनात्मक विचारों के लिए प्रोत्साहित या कभी-कभी बाध्य भी करता है। विद्युत आक्षेपी चिकित्सा विद्युत आक्षेपी चिकित्सा को विद्युत आघात चिकित्सा भी कहा जाता है। इसमें बिजली की सहायता से रोगियों में आक्षेपी दौरों को कृत्रिम ढंग से उत्पन्न करके उपचार किया जाता है।

इस चिकित्सा पद्धति के पीछे मूल विचार यह है कि आक्षेप व्यक्ति को मृत्यु के नजदीक ले जाते हैं जिससे उसमें जैविक रक्षायान्त्रिकी क्रियाशील हो जाती है और मनोरोगी के ठीक होने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है।

निदान की प्रक्रिया: उक्त चिकित्सा करने से पूर्व एक्स किरणों, ई.सी.जी. इत्यादि से रोगी का संपूर्ण शारीरिक परीक्षण किया जाता है। रोगी या रोगी के निकट के संबंधियों से लिखित अनुमति ली जाती है। रोगी के जीवन इतिहास की रिपोर्ट तैयार की जाती है। हस्तमुद्रा पद्धति द्वारा चिकित्सा इस पद्धति में हाथों की उंगलियों की विभिन्न मुद्राओं से चिकित्सा की जाती है।

इस पद्धति के विशेषज्ञों की मान्यता है कि हस्तमुद्रा पद्धति के अंतर्गत ज्ञानमुद्रा, ध्यानमुद्रा, शांतमुद्रा, मृतसंजीवनीमुद्रा इत्यादि कुल चैबीस मुद्राएं हैं जिनका उपयोग मुख्यतः मानसिक रोगों (तनाव, निराशा, अस्थिरता, भ्रम आदि) के उपचारार्थ किया जाता है। होम्योपैथी चिकित्सा पद्धति होम्योपैथी का आरंभ जर्मनी के एक सुप्रसिद्ध डाॅक्टर हैनीमन ने किया था। होम्योपैथी एक ऐसा चिकित्सा विज्ञान है जिसमें बीमारी का उपचार ऐसी औषधियों द्व ारा किया जाता है जिनका परीक्षण पूर्ण स्वस्थ मनुष्यों पर किया जा चुका हो। अतः यह चिकित्सा पद्धति निरापद मानी गई है। होम्योपैथी का मूल सिद्धांत प्रकृति का मूल सिद्धांत है।

लैटिन भाषा में इस सिद्धांत को ‘सिमिलिया सिमिलिबस क्यूरेन्टयूर’ कहा जाता है जिसका अर्थ है - ‘समः समं शमयति’। सामान्य मनुष्य इसे ‘ज़हर ही ज़हर की दवा है’ के रूप में जानता है। होम्योपैथी की दवाएं वनस्पति (जड़, छाल, तना, कली, फूल, पŸाी, अर्क, गोंद, तेल आदि), जीवों के स्राव, उनके ज़हर एवं ऊतकों, रसायनों, खनिज व सिंथेटिक पदार्थों से बनती हैं। ये दवाएं मूल अर्क, चूर्ण या पोटेंसी के रूप में हो सकती हैं। एलोपैथी चिकित्सा पद्धति एलोपैथी चिकित्सा पद्धति का श्री गणेश यूनान के महामनीषी हिप्पोक्रेटस ने पांचवीं शताब्दी में किया।

इस चिकित्सा पद्धति को पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति तथा हिप्पोक्रेटस को औषधियों का जनक कहा जाता है। एलोपैथी पूर्णतः विज्ञान सम्मत चिकित्सा पद्धति है। नित्य नए-नए अनुसंधानों से इसका क्षेत्र परिवर्धित एवं परिष्कृत होता रहा है। जीवन में संभवतः कोई ऐसा पक्ष नहीं है, जहां प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष विधि से इस पद्धति का आश्रय न लिया जा सके।

प्राणिमात्र के शरीर के प्रत्येक अंग एवं प्रायः प्रत्येक रोग का उपचार करने में यह पद्धति पूर्ण सफल है। इस पद्धति में शल्य िएक्युप्रेशर चिकित्सा पद्धति मानव के शरीर में स्थित विशेष बिंदुओं पर विधिपूर्वक दबाव डालकर रोग निवारण करने की पद्धति का नाम ‘एक्युपे्रशर’ है। एक्युप्रेशर शब्द का अर्थ है ‘दबाव’। इस चिकित्सा पद्धति से अनेक चमत्कारिक परिणाम सामने आए हैं।

यह चिकित्सा पद्धति साइटिका, सर्वाइकल, स्पों.ि डलाइटिस आदि मेरुदंड के समस्त रोगों, कंधों की अकड़न (फ्रोज़न शोल्डर), घुटनों के दर्द, बिस्तर में मूत्र-त्याग, आतों के घाव (अल्सर), पेचिश, कब्ज, सिरदर्द, माइग्रेन, नस-नाड़ियों की विकृति, गैस, एसिडिटी, गले की सूजन तथा पीड़ा, टांसिल्स, साइनुसाइटिस, ब्रोंकाइटिस, दमा, आंख, कान एवं गले के रोग, दांतों का दर्द, लकवा, मिनीयर्स आदि अनेक रोगों में उपयोगी है।

एक्युप्रेशर की निदान प्रक्रिया: रोगों के निदान हेतु एक्युप्रेशर चिकित्सक शरीर के कुछ विशिष्ट बिंदुओं पर मध्यम बल का प्रयोग करते हुए दबाव (प्रेशर) डालता है। ऐसा करते हुए यदि किसी बिंदु पर असहनीय दर्द हो तो इस तथ्य का निदान हो जाता है कि रोगी के शरीर में उस बिंदु से संबंधित अंग में कोई विकार या रोग है। आस्थाजन्य चिकित्सा पद्धति आस्थाजन्य चिकित्सा का प्रचलन विश्व के सभी राष्ट्रों में है। परमात्मा, गुरुदेव, इष्टदेव आदि के प्रति आस्था से आशातीत सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं।

निदान प्रक्रिया: आस्थाजन्य चिकित्सा पद्धति की निदान प्रक्रिया अत्यंत आसान है। व्यक्ति किसी भी रोग से ग्रस्त हो, हरिनाम संकीर्तन से स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर सकता है, बशर्ते उसमें आस्था हो। ऐसा आस्थावादियों का मत है। एक्युप्रेशर चिकित्सा पद्धति मानव के शरीर में स्थित विशेष बिंदुओं पर विधिपूर्वक दबाव डालकर रोग निवारण करने की पद्धति का नाम ‘एक्युपे्रशर’ है। एक्युप्रेशर शब्द का अर्थ है ‘दबाव’। इस चिकित्सा पद्धति से अनेक चमत्कारिक परिणाम सामने आए हैं।

यह चिकित्सा पद्धति साइटिका, सर्वाइकल, स्पों.ि डलाइटिस आदि मेरुदंड के समस्त रोगों, कंधों की अकड़न (फ्रोज़न शोल्डर), घुटनों के दर्द, बिस्तर में मूत्र-त्याग, आतों के घाव (अल्सर), पेचिश, कब्ज, सिरदर्द, माइग्रेन, नस-नाड़ियों की विकृति, गैस, एसिडिटी, गले की सूजन तथा पीड़ा, टांसिल्स, साइनुसाइटिस, ब्रोंकाइटिस, दमा, आंख, कान एवं गले के रोग, दांतों का दर्द, लकवा, मिनीयर्स आदि अनेक रोगों में उपयोगी है।

एक्युप्रेशर की निदान प्रक्रिया: रोगों के निदान हेतु एक्युप्रेशर चिकित्सक शरीर के कुछ विशिष्ट बिंदुओं पर मध्यम बल का प्रयोग करते हुए दबाव (प्रेशर) डालता है। ऐसा करते हुए यदि किसी बिंदु पर असहनीय दर्द हो तो इस तथ्य का निदान हो जाता है कि रोगी के शरीर में उस बिंदु से संबंधित अंग में कोई विकार या रोग है। आस्थाजन्य चिकित्सा पद्धति आस्थाजन्य चिकित्सा का प्रचलन विश्व के सभी राष्ट्रों में है। परमात्मा, गुरुदेव, इष्टदेव आदि के प्रति आस्था से आशातीत सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं।

निदान प्रक्रिया: आस्थाजन्य चिकित्सा पद्धति की निदान प्रक्रिया अत्यंत आसान है। व्यक्ति किसी भी रोग से ग्रस्त हो, हरिनाम संकीर्तन से स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर सकता है, बशर्ते उसमें आस्था हो। ऐसा आस्थावादियों का मत है। प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि मानव प्रकृति के जितना निकट रहता है उतना ही उसके स्वस्थ एवं निरोग रहने की संभावना अधिक रहती है।

अतः मनुष्य को अपने अंगों-उपांगों के उपचार हेतु प्रकृति के विभिन्न घटकों की शरण लेनी चाहिए। प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति मूलतः इसी सिद्धांत पर आधारित है। प्राणायाम चिंता, क्रोध, भय निराशा आदि मनोविकारों का समाधान प्राणायाम द्वारा सरलतापूर्वक किया जा सकता है।

इतना ही नहीं प्राणायाम मस्तिष्क की क्षमता बढ़ाकर स्मरणशक्ति, और दूरदर्शिता को भी बढ़ाता है। प्राणायाम करने से दीर्घ श्वसन का अभ्यास भी स्वतः होने लगता है। भगवान की ओर से हमें जो जीवन मिला है, उसमें प्राण श्वास गिनकर मिलते हैं। जिसके जैसे कर्म होते हैं, उसी के अनुसार उसे अगला जन्म मिलता है। योगासन की उपयोगिता योगासन अर्थात आसन का अर्थ है स्थिति। जिस सुविधाजनक स्थिति में योगाभ्यास सुगमता से हो सके उसमें बैठकर अभ्यास करना चाहिए।

योगाचार्यों ने अनेक प्रकार के आसनों की कल्पना की, जिनमें से अपने शरीर की स्थिति के अनुकूल किसी भी आसन का प्रयोग किया जा सकता है। आसन ऐसा होना चाहिए, जिसे लगाकर बैठने में किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव न हो। योगासनों के नियमित अभ्यास से योग-साधक ही नहीं, गृहस्थ और भोगी स्त्री-पुरुष भी स्वस्थ और सुंदर रहते हैं। आसनों के नियमित अभ्यास से असाध्य कहे जाने वाले रोग नष्ट होते देखे गए हैं। योगासनों द्वारा मधुमेह को भी ठीक किया जा सकता है।

एरोमाथैरेपी (एक प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति) एरोमा का अर्थ है भीनी सुगंध और थेरैपी का चिकित्सा। इस तरह एरोमाथैरेपी का अर्थ हुआ सुंगध चिकित्सा। यह शरीर और दिमाग को रोग से मुक्त रखने के लिए विभिन्न प्रकार के पौधों तथा जड़ी-बूटियों से निकाले गए अर्क के द्वारा इलाज करने की सुरक्षित पद्धति है। यह एक चमत्कारिक चिकित्सा पद्धति है। ज्योतिषीय चिकित्सा ज्योतिष द्वारा सर्वप्रथम बीमारियों का पूर्वानुमान लगाया जाता है।

डाॅक्टर तो व्यक्ति के रोगी होने पर ही उसका इलाज करते हैं, किंतु ज्योतिष एक ऐसी विद्या है जिसके द्वारा बीमारियों का पूर्वानुमान लगाकर उनसे बचने के ज्योतिषीय उपाय किए जाते हैं। आभूषण चिकित्सा प्राचीन समय में स्त्रियां मांग, टीका आदि धारण किया करती थीं जिससे माथे की कुछ खास गं्रथियों पर दबाव रहने के कारण सिर दर्द नहीं होता था। पुरुष अपने माथे पर रोली, कुमकुम लगाते थे अथवा पगड़ी आदि पहनते थे जो सिर दर्द से छुटकारा दिलाते थे। संगीत चिकित्सा संगीत शास्त्र (गंधर्ववेद) में 7 स्वर हैं।

इन्हीं 7 स्वरों के मिश्रण से सभी राग-रागिनियों का निर्माण होता है। स्वर साधना एवं नादानुसंधान के विविध उपयोग हैं। इनसे शरीर व मन स्वस्थ होते हैं। इन सात स्वरों के नाम हैं सा, रे, ग, म, प, ध, नि। पराविद्या द्वारा रोगोपचार डाउजिंग एक प्राचीन पराविद्या है। यह छुपी हुई वस्तुओं को ढूंढने की वह कला है, जिसका उपयोग मानसिक रूप से स्वस्थ कोई भी व्यक्ति, चाहे वह अल्प शिक्षित ही क्यों न हो, आसानी से कर सकता है।

इससे मानसिक एवं शारीरिक बीमारियों, दवाओं के उपयोग एवं उनकी उपयोगिता आदि का भी पूर्वावलोकन किया जाता है। इसमें उपकरणों के नाम पर किसी भी प्रकार के जटिल व महंगे औज़ार और किसी प्रयोगशाला की आवश्यकता नहीं होती, केवल एक छड़, टहनी या पेंडुलम द्वारा ही बीमारी की खोज की जाती है। पिरामिड द्वारा चिकित्सा पिरामिड चिकित्सा वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों में से एक है। पिरामिड ऊर्जा का अनंत स्रोत है।

इसके माध्यम से साधारण जल को ऊर्जावान कर उसका उपयोग विभिन्न रोगियों पर किया जाता है। यह जल कब्ज़, निर्बलता, खुजली, पेट के रोग, लकवा, मधुमेह, सिर दर्द, वात रोग, दमा, मूत्र रोग, पीलिया, आंख के रोग, कमर दर्द, अम्लता, मोटापा, अनिद्रा, जख्मों को साफ करने आदि में अत्यंत ही लाभदायक होता है। मूत्र चिकित्सा अपने मूत्र से अपनी चिकित्सा भी बहुत लाभप्रद होती है। प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व उठकर अपना मूत्र पीने से स्वास्थ्य बहुत अच्छा रहता है। इससे सभी प्रकार की बीमारियां दूर होती हैं।

इसका एक उदाहरण हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय मोरारजी भाई देसाई हैं। वे स्वमूत्र से अपनी चिकित्सा करते थे, इसलिए वे दीर्घायु हुए। स्वरों व बीजमंत्रों द्वारा चिकित्सा देवनागरी लिपि के स्वरों के उच्चारण से रोग निवारण किया जा सकता है। नटराज महादेव महेश्वर ने जब नृत्य करते हुए डमरू बजाया था तब उस नाद से 14 सूत्र प्रकट हुए थे।

इन्हीं सूत्रों से इस लिपि का उद्भव हुआ जिसमें 12 स्वर और 32 व्यंजन हैं, जो विज्ञानसम्मत हैं और सभी भाषाविद इस लिपि की वैज्ञानिकता से सहमत हैं। इसके चमत्कार से वे आश्चर्यचकित भी हैं। देवनागरी के शब्दों के उच्चारण से आकृतियों का उभरना, बनना देखा जा सकता है - उसी तरह जैसे संगीत के गायन-वादन से आकृतियां बनती उभरती हैं। शब्दों के उच्चारण से नाद उत्पन्न होता है और नाद को भी ब्रह्म माना गया है।

सूर्य चिकित्सा प्राचीन समय में सूर्य की साधना एवं उपासना से रोग का उपचार किया जाता था। सूर्य की तरफ 12-12 घंटे तक एक टक देखते हुए उसकी साधना की जाती थी। मंत्र चिकित्सा मंत्र नाद या ध्वनियों का समूह है, जिसमें एक विशेष प्रकार की ऊर्जा होती है। इस ऊर्जा का प्रभाव केवल व्यक्तियों पर ही नहीं बल्कि अन्य जीव जंतुओं व वस्तुओं पर भी पड़ता है।

जीवन में ऐसी अनेक स्थितियां आती हैं जब व्यक्ति किसी वंशानुगत अथवा संक्रामक रोग से इस प्रकार पीड़ित हो जाता है कि उसे जीवन दूभर लगने लगता है। ऋतुओं के परिवर्तन आदि कारणों से वह स्वस्थ और अस्वस्थ होता रहता है। इन रोगों से मुक्ति दिलाने में मंत्र सहायक होते हैं। अब तो चिकित्सा विज्ञान के कुछ विद्वान भी इनकी महŸाा स्वीकार करने लगे हैं।

स्फटिक चिकित्सा स्फटिक का कई रूपों में इस्तेमाल किया जाता है। इसे गले में एक नेकलेस या कानों में कर्णफूल की तरह भी पहन सकते हैं। यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए लाभदायक है। चुम्बकीय शक्ति के आधार पर विश्व का संचालन होता है। मानव शरीर भी इसका एक भाग है। मानव शरीर का अपना एक चुम्बकीय क्षेत्र होता है।

एक स्वस्थ शरीर में व्याप्त कोशिकाओं के समूह में बाधा पड़ने पर बीमारियां पैदा हो जाती हैं, जो कभी-कभी घातक भी हो जाती हैं। चुम्बकीय पद्धति के द्वारा इलाज करने पर चुम्बक के प्रभाव से बीमारी के दौरान शरीर के तंतुओं के बाधित गुण धर्म सामान्य हो जाते हैं और रक्त शरीर में सुचारु रूप से घूमता है तथा शिराओं एवं धमनियों में अतिरिक्त कोलेस्ट्राॅल, कैल्शियम, गंदगी आदि को बाहर निकाल देता है।

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