ब्रह्म सृष्टि विज्ञान
ब्रह्म सृष्टि विज्ञान

ब्रह्म सृष्टि विज्ञान  

गिरजा शंकर प्रसाद
व्यूस : 13076 | अकतूबर 2008

विश्व ब्रह्मांड का रहस्य कौतूहल का विषय है। आज का विज्ञान इन रहस्यों को उजागर करने में प्रयत्नशील है। सृष्टि का प्रादुर्भाव अण्ड विस्फोट से होने की जानकारी आज के वैज्ञानिकों को सन 1926-27 में हुई, जिसे बिग बैग की संज्ञा देकर उन्होंने माना कि उन्हें सृष्टि के प्रारंभ का रहस्य ज्ञात हो चुका है। वे इस विस्फोट के पश्चात की कालयात्रा के निर्धारण का अपना शोध चिंतन समय-समय पर प्रस्तुत करते हैं। इससे पहले पाश्चात्य जगत के वैज्ञानिक एक दो अपवाद को छोड़कर, 19वीं सदी के अंत तक इस भ्रांतिपूर्ण ग्रंथि से ग्रसित रहे कि यह विश्व लगभग 6000 वर्ष पूर्व बना। भारतीय चिंतन में अतीत के ऋषि प्रज्ञा के समक्ष सृष्टि का कोई भी तत्व अलक्षित नहीं रहा था। उन्होंने ध्यान साधना की प्रयोगशाला से महाकाल की सीमा को लांघकर सृष्टि के परम वैज्ञानिक रहस्यों को जाना जो वेद, उपनिषद, स्मृति, पुराण, भगवतगीता आदि ग्रंथों में उपलब्ध है।

किंतु आधुनिक शोधकर्ताओं ने भारतीय तत्वशास्त्रों को माइथोलोजी अर्थात् गपोड़कथा समझा। कार्ल साॅगन का लेखन पश्चिम के वैज्ञानिकों का पूर्वाग्रह प्रदर्शित करता है उन्होंने संस्कृत भाषा में उपलब्ध भारतीय शास्त्रों का अध्ययन किया और उनके ज्ञान भंडार से लाभान्वित हुए, किंतु उनके तथ्यों को मात्र कल्पना कहते हैं। विडंबना यह कि अपने देश के भी कुछ विद्वान उनकी बातों का समर्थन करते हैं। भारत का गौरवशाली अतीत संस्कृत भाषा के ग्रंथों में समाहित है। इन ग्रंथों में अतीत के ऋषियों द्वारा संग्रहीत ज्ञान का भंडार है। ब्रिटानी शासन काल में लार्ड मैकाले की सुनिश्चित शिक्षा नीति के फलस्वरूप अंग्रेजी का व्यापक प्रसार हुआ और संस्कृत उपेक्षित हो गई। आजादी के बाद भी संस्कृत की उपेक्षा देश की पीढ़ी को अपने गौरवशाली अतीत में झांकने नहीं देती तथा संस्कृत ग्रंथों के अपरिमित ज्ञान से भी वंचित रखती है।

फलतः अधिकांश देशवासी आज परमुखापेक्षी होकर पश्चिमी ज्ञान एवं सभ्यता को ही अनुकरणीय समझने लगे हैं। कुछ राष्ट्र भक्त विद्वान यदि संस्कृत ग्रंथों में उपलब्ध ज्ञान को प्रस्तुत करते भी हैं तो उपेक्षित रह जाते हैं। विश्व के सुप्रसिद्ध ब्रह्मांडशास्त्री स्टीफेन हाॅकिन्स की सृष्टि विज्ञान पर रचित बहुचर्चित पुस्तक ‘ए ब्रीफ हिस्ट्री आॅफ टाइम’ का प्रकाशन सन् 1988 में हुआ। भारतीय मीडिया में इसकी खूब चर्चा हुई। जबकि इसी विषय पर इसके पूर्व 1985 में ही कोलकाता निवासी विद्वान डाॅ. बासुदेव पोद्दार रचित पुस्तक ‘कालपुरुष और इतिहासपुरुष’ का प्रकाशन सन 1985 के अंत में हो चुका था और लेखक को 1991 में राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय, उदयपुर द्वारा इस उत्कृष्ट लेखन के लिए डीलिट की मानद उपाधि से अलंकृत किया गया, किंतु मीडिया इनके विषय में मौन रहा।

डाॅ. वासुदेव पोद्दार ने इस पुस्तक के सार संक्षेप सहित ऋषि चिंतन पर आधारित दूसरी पुस्तक ‘विश्व की कालयात्रा’ की रचना की जो सन 2000 में प्रकाशित हुई। पुस्तक की द्रष्टव्य सूची में 487 ग्रंथ हैं और 170 अतिरिक्त सहायक संदर्भ ग्रंथ हैं। प्रस्तुत लेख डाॅ. वासुदेव पोद्दार की अदभूत रचना पर ही आधारित है। भारत के प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में ऋषि चिंतन प्रदत्त ज्ञान का भंडार है। ऋषि मनीषा ने सृष्टि के रहस्यों को जिन गहराईयों में उतरकर देखा वह परम वैज्ञानिक है। उनके अनुसार सृष्टि का सृजन, विस्तार तथा संहार कालचक्र की परिधि में बार-बार होता रहता है। कालचक्र अपनी सहज गति से निरंतर गतिशील है, पहले भी था, आज भी है और आगे भी रहेगा, जिसे भूत, भविष्य, और वर्तमान की संज्ञा दी गई है। काल और कालचक्र की गति दोनों ही अनादि है, अनंत है, अमर है, अजर है, अजन्मा है, अनवरत है, निरंतर है।

ऋषि प्रज्ञा के अनुसार विश्व का मूल आधार सनातन है, इसका तत्व सनातन है। विश्व चेतना, गति और गुरूत्व, इन्हीं तीन तत्वों से युक्त एक सनातन महाशक्ति से उत्पन्न होता है, और उसमें ही इसकी काल यात्रा सनातन भाव से संपन्न होती रहती है। परमचेतना ही अनादि, अनंत सनातन काल है, जो तरंगवत सन्दोलनात्मक विश्व के रूप में बार-बार प्रकट होता रहता है। सृजनात्मक विकास और संहारात्मक संकोच सृष्टि का छंदोबद्ध लय है, जो अनवरत सृजन और प्रलय के दोलायमान विश्व चक्रों में सनातन भाव से निरंतर झूलती हुई, अंत में महाप्रलय के संकुचित महापिंड में पहुंचकर विश्रांत हो जाती है।

अतीत के ऋषियों ने यह तथ्य उजागर किया कि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों के महासन्दोलन में प्रकृति 12000 लघु सन्दोलनात्मक विश्व चक्रों को जन्म देती है, जिसके सृष्टि से प्रलय तक प्रत्येक चक्र का कालमान 25 अरब 92 करोड़ वर्ष होता है। इन 12000 सन्दोलन चक्रों के अंत में प्रकृति की संपूर्ण द्रव्यमात्रा शक्ति के रूप में परम संकुचित हो, इतने ही काल अवधि के परम प्रलय की चिरनिद्रा में विश्रांत रहकर पुनः महाशक्ति के संचेतन रूप में परिवर्तित हो जाती है। इस महाशक्ति के विमर्श से उत्पन्न सन्दोलनात्मक विश्व का आदि अण्ड, जिससे बारह हजार सन्दोलन चक्रों की महाकाल यात्रा पुनः प्रारंभ होती है, की प्रथम अवस्था तमोलिंग है। यह तमोलिंग सहस्रों सूर्यों की तरह परम भास्कर होती हुई एक ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रोदभासित हो उठती है, और इसके विस्फोट से विश्व द्रव्य की सृष्टि होती है।

इस परम विकसित अवस्था का नाम हिरण्यगर्भ है। ऋग्वेद के नादसुक्त में इसी हिरण्यगर्भ का विवरण है। हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत। स दाधार पृथिवी द्यामुतेमा कस्मै देवाय हविषा विधेम।। ऋग्वेद 10.121.1 अर्थ: सृष्टि के पूर्व सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ ही विद्यमान था, इससे ही सभी भूतत्वों की उत्पत्ति हुई। वही एक मात्र विधाता व स्वामी है, उसी ने पृथ्वी से गगन पर्यंत सभी तत्वों को आधार व अस्तित्व प्रदान किया है हम उस आदि देव के अतिरिक्त किसे अपना हवि प्रदान करें। विश्व ब्रह्मांड के आदि हिरण्यगर्भ के प्रथम महानाद के पश्चात 25 अरब 92 करोड़ वर्ष के अंतराल पर संदोलनात्मक विश्व के हिरण्यगर्भों का विस्फोट होता रहता है। भारतीय कालगणना के अनुसार सृष्टिक्रम का 6000 चक्र (प्रथम परार्द्ध) पूरा हो चुका और संप्रति द्वितीय परार्द्ध में 6001 वा सन्दोलन चलायमान है। प्रत्येक सन्दोलन चक्र में तीन स्तरों का सृजन और संहार का कालक्रम होता है- ब्रह्मकल्प, पाùकल्प और श्वेतवाराह कल्प, कल्प अवधि के पश्चात इनका प्रलय काल। ब्रह्मकल्प में अण्ड संरचना से लेकर विश्व द्रव्य का पंच भौतिक विकास होता है। पाùकाल में आकाशगंगा की पùाकृत संरचना और श्वेतवाराहकल्प उस पर जैव विकास का समय है।

एक कल्प की अवधि 4 अरब 32 करोड़ वर्ष और फिर उतना ही तीनों का प्रलयकाल। उपरोक्त तीनों कल्पों का कालमान 12 अरब 96 करोड़ वर्ष और फिर उतना ही तीनों का प्रलय काल। तदनुसार सृष्टि से प्रलय तक की पूरी अवधि 25 अरब 92 करोड़ वर्ष होती है। प्रलय के अंत में विश्व की दग्ध व मृत द्रव्यराशि महाशक्ति के परमसंकोच से जिस विश्रांत अवस्था में पहुंच जाती है उसे मृतपिंड कहा गया है। इस मृतपिण्ड से पुनः सृजन का प्रादुर्भाव ब्रह्मकल्प के प्रारंभ में 72000 वर्षों के संधिकाल में होता है। संधिकाल के अंत में पिंड पुनः जीवित हो उठता है, जो इस सृजनात्मक विकास की प्रथम स्थिति होती है। इसका द्वितीय विकास अण्ड की ज्योतिर्लिंग अवस्था है, जिसमें संपूर्ण द्रव्यराशि उद्धीप्त हो उठती है। विकास का तीसरा स्तर हिरण्यगर्भ है जिसमें संपूर्ण द्रव्यराशि अपनी प्रमातकता में परिसीमित होती हुई शक्ति का पंचमहाभूतों की तन्मात्रा के रूप में निर्धारित कर देती है।

चैथे विकास में यह अण्ड तापशक्ति के असीमित वर्धन द्वारा परमविस्फोटक स्थिति में पहंुचकर नाद विस्फोट से अपनी द्रव्यराशि का विस्फोट करता है, जिसे हिरण्यगर्भ की नादाण्ड अवस्था कही गई है। अण्ड के पुनर्जीवित अवस्था से नादाण्ड तक का सम्पूर्ण काल 3,62,000 वर्ष वर्णित है। ऊपर लिखा जा चुका है कि वर्तमान सृष्टि सन्दोलनात्मक विश्व का 6001वां सन्दोलन चक्र है। आधुनिक विज्ञान का बिगबैग हमारे आकाशगंगा ब्रह्माण्ड के हिरण्य गर्भ का अंतिम विस्फोट का वर्णन है जो पाश्चात्य बहुमत के अनुसार 10 से 15 अरब वर्ष पहले हुआ। भारतीय गणित के अनुसार यह विस्फोट आज से लगभग 10 अरब 67 करोड़ 25 लाख वर्ष पहले हुआ था। विस्फोट के पश्चात आकाशगंगा का निर्माण और विकास ब्रह्मकल्प और पùकल्प को पार चुका तथा श्वेतवाराह कल्प बीत रहा है। ब्रह्मकल्प में सृष्टि की आदिम पंच भौतिक द्रव्यराशि विभिन्न मंडलाकार वृत्तों में नए गुरुत्वाकर्षण के महाक्षेत्र का निर्माण करती हुई अनेक आवृत्तियों में बदलती है, जिसमें क्रमशः अनंत तारासमूहों से युक्त ब्रह्मांडों का जन्म होता है। पाùकल्प में अनंत ब्रह्मांडों वाली आकाश गंगा की पùकृत संरचना होती है। इस कल्प के प्रारंभ में सूर्य का आविर्भाव होता है। उस समय सूर्य का आकार वर्तमान अवस्था की तुलना में 16 गुणा वर्णित है। कल्प के मध्यकाल में इससे ही पृथ्वी तथा अन्य ग्रहों का जन्म होता है।

आधुनिक सूर्य की आयु लगभग 6 अरब 29 करोड़ 30 लाख वर्ष है, आधुनिक विज्ञान का आकलन 6 से 7 अरब वर्षों के मध्य का है। एक कल्प अवधि एक हजार चतुर्युगों (सतयुत $ त्रेता $ द्वापर $ कलियुग) के कालमान के बराबर होता है। यतुर्युग को महायुग भी कहते हैं। सतयुग का कालमान 17 लाख 28 हजार वर्ष, त्रेता 12 लाख 96 हजार, द्वापर 8 लाख 64 हजार और कलियुग 4 लाख 32 हजार सौर वर्ष, अर्थात एक महायुग में 43 लाख 20 हजार वर्ष। इसलिए एक हजार महायुग अर्थात एक कल्प का कालमान 4 अरब 32 करोड़ वर्ष। एक कल्प अवधि में सूर्य आकाशगंगा के केंद्र की 14 परिक्रमा पूरी करता है। प्रत्येक परिक्रमा का समय एक मन्वन्तर काल होता है, जिसका औसत कालमान 30 करोड़ 67 लाख 20 हजार वर्ष है। कल्प के आरंभ में 17 लाख 28 हजार वर्षों के संधिकाल के पश्चात मन्वन्तरों का कालचक्र प्रारंभ होता है। प्रत्येक मन्वन्तर के अंत में भी 17 लाख 28 हजार वर्षों के संधिकाल का वर्णन है। अतः एक कल्प में 15 संधिकाल तथा 14 मन्वन्तर समाविष्ट रहते हैं। अतः - एक कल्प = 15 संधिकल्प $ 14 मन्वन्तर = 15 ग 17,28000 $ 14 ग 30, 6720000 = 4 अरब 32 करोड़ वर्ष पृथ्वी की उत्पत्ति पाùकल्प के मध्यकाल में होती है। इसकी आयु का आकलन 4 अरब 13 करोड़ 29 लाख 50 हजार के आसपास है। जन्म के पश्चात इसकी प्राकृतिक संरचना चलती है तथा पाùकल्प अवधि में ही सौर ऊर्जा के प्रकाश के माध्यम से सूक्ष्म जीवाणुओं के बीज का आगमन हो जाता है।

पुराणों में उसे मधु कैटभ युग कहा गया। श्वेतवाराह कल्प का आगमन लगभग 1 अरब 97 करोड़ 29 लाख 50 हजार वर्ष पहले हुआ। इस कल्प में ही पृथ्वी पर व्यवस्थित जैव-विकास होता है। 4 अरब 32 करोड़ वर्षों की अवधि के 14 मन्वन्तरों में हर परिवर्तन के साथ जैव चेतना की नवीन ऊर्जा का विस्फोट होता रहता है। श्वेतवाराह कल्प के 14 मन्वन्तरों की सूचि इस प्रकार है।

1. स्वायम्भुव,

2. स्वाराचिष,

3. उत्तम,

4. तामस,

5. रैवत,

6. चाक्षुष,

7. वैवस्वत,

8. सावर्णि,

9. दक्ष-सावर्णि,

10. ब्रह्म सावर्णि,

11. धर्म सावर्णि,

12. रूद्र सावर्णि,

13. देव सावर्णि तथा

14. इन्द्र सावर्णि।

कुछ पुराणों में अंतिम दो नामों में भिन्नता है। पृथ्वी पर चेतना का स्वरूप सूर्य के आंतरिक स्पंदन से उत्पन्न स्वर तरंगों पर आधारित होती है। जैसे ही सूर्य के अंदर का स्वर संगीत बदलता है, वैसे ही पृथ्वी के जैव चेतना में परिवर्तन होता है। इस परिवर्तन को सूर्य संचालित स्वरों के अनुसार ही मन्वन्तरों में बांटा गया है। एक मन्वन्तर कालखण्ड में एक ही स्वर सूर्य से संचालित रहता है। संपूर्ण सूर्य परिक्रमा पथ 71 घुमावों में विभक्त है, जिसमें एक मन्वन्तर के 71 महायुगों के कालचक्र का निर्माण होता है। काल के इस लंबे प्रवाह में स्वर विशेष की 71 अंतराएं 4ः3ः2ः1 के प्रकम्प पर बदलती है। यही प्रकम्प सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग, का कालमात्रक है।

उपरोक्त वर्णन के अनुसार पृथ्वी का समग्र जैव और अजैव परिवर्तन सूर्य के स्वर संगीत से संचालित और नियंत्रित होता है। वेद का गायत्री मंत्र इस स्वर संगीत के अनुशासनार्थ महास्पंदन का दंदोमय प्रकम्य है। श्वेतवाराह कल्प का प्रथम मन्वन्तर स्वायम्भुव के प्रारंभिक 1 करोड़ 70 लाख 64 हजार वर्षों की अवधि में पृथ्वी पर पर्वतादि का निर्माण तथा भूजलीय जीवों का विकास होता है। इसके पश्चात व्यवस्थित जैवयुग के विकास के क्रम में आदिमनु के प्रादुर्भाव के साथ मानव का प्रथम विकास हुआ। तब से 6 मन्वन्तर बीत चुके और 12 करोड़ वर्ष पूर्व सातवां वैवस्वत मन्वन्तर प्रारंभ हुआ जो अभी चलायमान है।

प्रत्येक मन्वन्तर अवधि में 71 महायुग तथा प्रत्येक महायुग के सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग का कालमान 4ः3ः2ः1 के अनुपात में। मन्वन्तर के अंत में 17 लाख 28 हजार वर्षों का एक दर्घ संधिकाल होता है। चतुर्युग के प्रत्येक युग में दो संधिकाल होता है एक आरंभ में एक अंत में। इस दो संधिकालों का कालमान उस युग भाग के छठे भाग के बराबर। उपरोक्त संधिकालों में भी पृथ्वी पर प्रलय होता है- मन्वन्तर के अंत में दीर्घ मन्वन्तर प्रलय, महायुग के अंत में महायुग का खंड प्रलय और प्रत्येक युग के अंत में लघु प्रलय। पृथ्वी के वर्तमान भौगोलिक इतिहास में जिस हिम प्रलय का वर्णन है वह द्वापर के संधिकाल से प्रारंभ हुआ था। पवित्र ग्रंथ बाइबल में ईश्वर द्वारा संसार के सृजन के बाद जल पलावन प्रलय का वर्णन है, जिसमें नोहा के साथ कुछ पुन्यात्मा मानव और अन्य जीव ही बच पाए तथा उन के द्वारा पुनः सभी जीवों का विकास हुआ।

वैवस्वत मन्वन्तर के 71 महायुगों से 27 बीत चुके और अभी 28वां महायुग चल रहा है। इस महायुग का सतयुग, त्रेता, द्वापर बीत गया और संवत 2065 का नवदिवस चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को कलियुग 5110 वें युगाब्द में प्रविष्ट हुआ। हिंदुओं की भगवत् उपासना एक वैदिक मंत्र के संकल्प से प्रारंभ होता है। मंत्र इस प्रकार है:- ऊँ विष्णुर्विष्णु श्रीमद्भगवतो महापुरूषस्य विष्णोराज्ञया, प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणोहिं, द्वितीय पराद्धे श्री श्वेतवाराह कल्पे, वैवस्वतमन्वतरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे सम्वत... मासोतमे मासे .... पक्षे .... तिथौ ... वासरे जम्बूद्विपे भरतखण्डे भारतवर्ष .... नगरे/क्षेत्रे .... फलप्रायर्थे। अहं परमेश्वरप्रीत्यर्थे पूजनं करिष्ये। (अर्थ =विष्णु महापुरूष की आज्ञा से प्रवर्त ब्रह्माण्ड का दूसरा परार्द्ध के श्वेतवाराह कल्प का वैवस्वतमन्तर के अठाइसवें कलियुग के प्रथमचरण में जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में ..... स्थान ............ विक्रमसम्वत .......... मास ............ तिथि.......... वार को मैं परमेश्वर को प्रसन्न करने हेतु पूजा करता हूं।) मंत्र के अनुसार सृष्टि का उद्भव के पश्चात पहला परार्द्ध बीत चुका है और दूसरे परार्द्ध का श्वेतवाराह कल्प में वैवस्वतमन्तर का 28वें महायुग के कलियुग का कालगणना में तत्कालीन संवत मास तिथि आदि की स्थिति का वर्णन होता है।

वैदिक सभ्यता के प्रारंभ से ही ऋषियों द्वारा व्यवहृत इस मंत्र में सृष्टि काल चक्र का ज्ञान समाहित है। भारतीय धर्मशास्त्रों में कल्पयुगादि की काल गणना नक्षात्रगति के आधार पर की गई। सूर्य सिद्धांत ग्रंथ के अनुसार सतयुग के अंत में सूर्य सहित सभी सातों ग्रह मेष राशि पर थे। श्रीमद् भागवत तथा गर्ग संहिता के अनुसार जब सभी सातों ग्रह मघानक्षात्र पर थे, तब कलियुग का आगमन हुआ। युरोप के विख्यात ज्योतिर्विद बेली ने गणित द्वारा जानने का प्रयत्न किया कि किस समय सातों ग्रह एक युति पर आए थे। आज के विज्ञान ने ब्रह्मांड के जिन रहस्यों को उजागर करने का प्रयास किया है और भविष्य की जो योजनाएं हैं, उससे वैदिक ऋषियों द्वारा प्रदत्त सूचनाएं विचारणीय संभावनाओं के दायरे में आ रही हैं। यद्यपि भारतवर्ष का अधिकांश वैज्ञानिक वांगमय विलुप्त और विनष्ट हो चुका तथापि उसके अनेक स्पष्ट और अस्पष्ट संकेत वेद-उपनिषद, दर्शन, आगम, स्मृति और पुराणों में उपलब्ध हैं।

इनके आलोक में आज के मानव की अंतरिक्ष यात्रा प्रथम नहीं क्योंकि ऋषि मानव के आकाशगमन की स्मृतियां हमारे पौराणिक साहित्य में विद्यमान है। आज यह निश्चित सा हो गया है कि अनंत ब्रह्मांड मालिकाओं में हम अकेले नहीं, अन्य लोकों पर भी मानव सभ्यताएं हैं और ज्ञान विज्ञान की समुन्नत संभावनाएं हैं। विज्ञान के अनुसार हमारी 100 अरब ब्रह्मांडों वाली आकाशगंगा में कम से कम 100 कोटि ब्रह्मांडों पर जीवन का विकास संभव है। आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय तत्व शास्त्रों के संकेतों को ध्यान में रखकर वैज्ञानिक खोज किए जाएं।



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