कब होगा विवाह
कब होगा विवाह

कब होगा विवाह  

व्यूस : 28627 | अकतूबर 2008
कब होगा विवाह? प्रश्न: कैसे जानें विवाह कब होगा एवं वैवाहिक जीवन कैसा रहेगा? सुखी वैवाहिक जीवन एवं संबंध विच्छेद होने वाले ज्योतिशीय योग कौन-कौन से हैं? वैवाहिक जीवन को सुखी बनाने हेतु क्या-क्या उपाय किए जा सकते हैं ? लग्न चक्र के आधार पर किसी का विवाह कब होगा, यह जानने के लिए भारतीय ज्योतिष के अनुसार जन्म कुंडली के प्रथम, द्वितीय, सप्तम और नवम भावों का विचार किया जाता है। मतांतर से इन भावों के अतिरिक्त चतुर्थ, पंचम और द्वादश भावों का विचार भी किया जाता है। सप्तम भाव इन सब में प्रधान माना गया है। सप्तम भाव, उसमें स्थित ग्रह, सप्तम भाव पर पड़ने वाली शुभाशुभ ग्रहों की दृष्टि आदि का विचार विवाह काल जानने के लिए किया जाता है। विवाह के समय का आकलन करने के लिए विंशोŸारी दशा, गोचर, गणितीय पद्धति आदि का विचार किया जाता है। विंशोŸारी दशा के आधार पर: सप्तमेश की या सप्तम स्थान में विराजमान ग्रह की अथवा सप्तम भाव पर दृष्टि रखने वाले ग्रह या ग्रहों की दशा भुक्ति काल में विवाह होने की आशा रहती है। चंद्र, गुरु अथवा शुक्र की दशाओं में भी विवाह हो सकता है। सप्तमेश जिस राशि में बैठा हो उसके स्वामी ग्रह की दशा में विवाह हो सकता है। द्वितीयेश की दशा में अथवा द्वितीयेश जिस राशि में स्थित हो उसके स्वामी की दशा में विवाह होता है। सप्तमेश राहु या केतु से युत हो तो इनकी दशा भुक्ति में विवाह होता है। नवमेश और दशमेश की दशा में विवाह होता है। विवाह का समय गोचर के आधार पर: विवाह के समय का अनुमान लगाने के लिए अर्थात् विवाह काल जानने के लिए विवाह की आयु होने पर उस समय की गोचर ग्रहों की स्थिति के आधार पर लग्नेश, सप्तमेश, बृहस्पति और शुक्र का विचार किया जाता है। जब गुरु गोचरवश सप्तम भाव वाली राशि अथवा उस राशि से पांचवीं या नौवीं राशि अथवा जन्मकालिक शुक्र जिस राशि में स्थित हो उस राशि मंे भ्रमण कर रहा हो, तब विवाह होता है। विवाह योग्य आयु होने पर उस समय गोचरस्थ शनि और गुरु जन्म लग्न और लग्नेश, सप्तम भाव और सप्तमेश को निम्न स्थितियों में से किसी एक को देख रहे हों तो विवाह होता है- सप्तम (जाया) स्थान और जन्म लग्न को। सप्तमेश और लग्नेश को। सप्तम स्थान और लग्नेश को। सप्तमेश और जन्म लग्न को। शनि का गोचर लगभग 30 मास या ढाई वर्ष एक राशि पर रहता है। शनि की ऐसी 30 मासीय प्रति राशि की गोचर अवधि में 12 या 13 माह के लगभग का समय ऐसा आता है जब शनि-गुरु पूर्वोक्त चार बिंदुओं में से किसी एक बिंदु में दर्शाए गए भाव एवं भावेश पर दृष्टि रखकर उन्हें बल प्रदान करते हैं। इस तरह स्थूल रूप में लगभग एक वर्ष या इससे भी कम अवधि में विवाह होने की संभावना रहती है। गुरु का गोचर काल तेरह मास का होता है जो मध्य के दो महीनों में अपना शुभाशुभ फल प्रदान करने में समर्थ होता है। इस तरह गुरु का गोचर काल 390 दिनों का (30ग13=390) हुआ जिसके मध्य वाले 60 दिन अर्थात् 166वें दिन से लेकर 225 वें दिन तक (165$60$165=390) गुरु शुभ फल देने में समर्थ होता है। इस अवधि में विवाह हो सकता है, बशर्ते गुरु के गोचर वाले मध्य के ये 60 दिन विवाह विहित मास में पड़ते हों। गुरु के गोचर की विवाह हेतु सूक्ष्म गणना: त्रयोदश मासिक गुरु के गोचर काल की उक्त अवधि जिसमें गुरु निम्न बिंदुओं में दर्शाए गए जन्म कालिक ग्रह विशेष और भाव विशेष दोनों के साथ युति करे अथवा दृष्टि उन पर डाले तब जातक के विवाह होने की पूर्ण संभावना रहती है- जन्म कंुडली का पंचम भाव और पंचमेश। जन्म कुंडली में विराजमान शुक्र और पंचमेश। जन्म कुंडली का नवम एवं नवमेश। जन्म कुंडली का पंचम एवं नवम भाव और पंचमेश एवं नवमेश। विवाह विषयक प्रश्न का उŸार पाने के लिए जन्मपत्रिका के प्रथम, पंचम, नवम, एकादश एवं तृतीय भावों से विचार करते हैं। सप्तम भाव से सप्तम भाव प्रथम भाव या लग्न होता है। सप्तम भाव से पंचम भाव एकादश और सप्तम भाव तृतीय होता है। अतः ये तीनों स्थान वर-कन्या के लिए त्रिकोण तुल्य होते हैं। जब लग्नेश, सप्तमेश और कलत्र कारक शुक्र का गोचर ऊपर वर्णित किसी भी एक भाव पर हो तब विवाह होता है। लग्नेश आदि के स्पष्ट राशि अंशों के जोड़ के आधार पर: अंक गणितीय सूत्र से विवाह काल का आकलन, गुरु ग्रह के गोचर पर से लग्नेश, सप्तमेश, चंद्र और शुक्र के राशि अंशों के जोड़ से प्राप्त राशि से 5 वीं या 9 वीं राशि पर गुरु के गोचर में आने पर निम्न रूप में किया जा सकता है- शुक्र, जन्म लग्नेश और सप्तमेश-इन तीनों ग्रहों के स्पष्ट राशि अंशों को परस्पर जोडं़े। जोड़ने पर यदि योग 12 से ज्यादा हो तो उसमें 12 राशियां घटा देनी चाहिए। शेष राशियों और अंशों के आधार पर जो राशि प्राप्त हो उससे पांचवीं या नौवीं राशि में जब गुरु गोचर करे तब विवाह होगा। लग्नेश एवं सप्तमेश या सप्तमेश और चंद्र के स्पष्ट राशि अंशों के योग द्वारा पूर्वोक्त बिंदु क्रमांक एक में दर्शाई गई विधि से गुरु के गोचर के अनुसार विवाह का समय ज्ञात किया जा सकता है। प्रश्न कुंडली के आधार पर: यदि प्रश्न काल में चंद्र, प्रश्न-कुंडली के तीसरे, पांचवें, सातवें, दसवें या ग्यारहवें स्थान में विराजमान हो तथा उसे गुरु पूर्ण दृष्टि देख रहा हो तो विवाह जल्दी होगा, ऐसा जानना चाहिए। प्रश्न कुंडली में सप्तम स्थान के स्वामी ग्रह का शुक्र से युति या दृष्टि संबंध हो तो विवाह शीघ्र होता है। प्रश्नकालीन लग्नेश और चंद्र प्रश्न कुंडली के सप्तम स्थान में विराजमान हो तो शीघ्र विवाह का योग समझना चाहिए। प्रश्नकालिक सप्तमेश और चंद्र की प्रश्न लग्न में स्थिति शीघ्र विवाह का द्योतक है। प्रश्नकालीन लग्न से सम स्थान में शनि होने पर विवाह शीघ्र होता है। शनि प्रश्नकालिक लग्न से किसी विषम भाव में स्थित हो तो विवाह शीघ्र होता है। प्रश्न-काल में प्रश्न-कुंडली में लग्न से चैथे स्थान का स्वामी बली हो तो प्रेम-विवाह हो सकता है, क्योंकि चैथा स्थान मित्र और मित्रता का स्थान है। चैथे स्थान और उसके स्वामी का लग्न, सप्तम भाव और इनके स्वामियों से अथवा शुक्र ग्रह से शुभ संबंध होना स्वयं वरण का बोधक होता है। यदि प्रश्नकालिक लग्न से सप्तम भाव का स्वामी बली हो तो समाज और कुल की रीति-रिवाजों के अनुरूप सर्वमान्य पारंपरिक विवाह होता है। प्रश्नकालीन लग्न से सप्तम भाव में विराजमान योगकारक बली ग्रह अथवा सप्तम भाव पर अपनी दृष्टि रखने वाला योगकारक बली ग्रह भी अपने योग काल में विवाह कराने में समर्थ होता है। शनि के योगकारक होने पर विवाह संवत् (षठमास) में, बुध के योगकारक होने पर ऋतु (दो मास में), गुरु के योगकारक होने पर मास में, शुक्र के योगकारक होने पर पखवाड़े में, मंगल के योग कारक होने पर मात्र कुछ दिवसों में और चंद्र के योगकारक होने पर तत्काल होता है। वैवाहिक जीवन कैसा रहेगा: वैवाहिक जीवन कैसा रहेगा, यह जानने के लिए लग्न और चंद्र दोनों कुंडलियों के आधार पर सप्तमेश, शुक्र, स्त्रीकारक ग्रह आदि की स्थिति का विचार किया जाता है। साथ ही सप्तम स्थान और सप्तमेश पर दृष्टि रखने और युति करने वाले ग्रहों का अध्ययन करना भी आवश्यक होता है। इन सभी की अच्छी स्थिति होने पर वैवाहिक जीवन सुखमय होता है। यदि सप्तम भाव में षष्ठ, अष्टम या द्वादश भाव का स्वामी स्थित हो अथवा सप्तम भाव पापयुत प्रभाव वाला हो, सप्तम स्थान में कोई पापी ग्रह हो अथवा उस पर पापी ग्रह की दृष्टि हो तो वैवाहिक जीवन दुखमय होता है। यदि सप्तम स्थान से पापग्रहों का युति या दृष्टि संबंध न हो और सप्तम भाव का स्वामी भाव 1,4,7,10 अथवा त्रिकोण 5,9 अथवा भाव 11 में हो तो दाम्पत्य जीवन मधुर होता है। यदि लग्न और सप्तम भाव के स्वामी परस्पर मित्र हों तो पति-पत्नी में प्रेम प्रगाढ़ रहता है। सम होने पर तकरार हो सकती है। शत्रु हों तो तनाव, वैचारिक मतभेद और कटुता रहेगी। सप्तम स्थान का स्वामी लग्नस्थ और लग्न का स्वामी सप्तमस्थ हो अथवा लग्नेश एवं सप्तमेश का केंद्र स्थान, मूल त्रिकोण या लाभ स्थान से संबंध युति या दृष्टि हो तो दोनों में अटूट प्रेम रहता है और जीवन सुखदायक होता है। सप्तमेश और सप्तम भाव के बली होने पर दाम्पत्य जीवन सुखद होता है। वैवाहिक संबंध विच्छेद वाली ज्योतिषीय ग्रह स्थितियां: विवाहोपरांत जब दम्पति के जीवन में ऐसी विषम परिस्थितियां उत्पन्न हो जाएं कि उन्हें एक-दूसरे से अलग होकर जीवन निर्वाह करने को विवश होना पड़े तो ऐसी स्थिति के संबंध-विच्छेद की स्थिति माना जाता है। वैधानिक दृष्टि से ऐसे अलगाव को तलाक कहते हैं। तलाक या संबंध-विच्छेद वाली परिस्थिति उत्पन्न होने के कई कारण हो सकते हैं, जैसे चारित्रिक दोष, संतानाभाव, वैचारिक मतभेद, शारीरिक अपंगता, नशे की लत, आपसी तकरार, घमंडवश एक-दूसरे को तुच्छ समझने की कोशिशें, रुचियों और आदतों में अकल्पित असमानताएं, विदेश वास, संन्यास आदि। भारतीय ज्योतिष के आधार पर जन्मांग चक्र में ग्रहों की निम्न स्थितियां संबंध विच्छेद का कारण बन सकती हैं- सप्तम भाव और उसके स्वामी एवं स्त्री-पुत्र कारक ग्रह शुक्र पर विच्छेदात्मक ग्रहों शनि-राहु, सूर्य-राहु का दुषप्रभाव होना पति-पत्नी के रिश्ते पर पृथकतावादी असर छोड़ता है। यदि ये विच्छेदात्मक ग्रह द्वितीय और चतुर्थ भावों पर भी प्रभाव डालें तो तलाक हो सकता है। कुंडली का षष्ठ भाव वैमनस्यता का भाव है। षष्ठेश भी संबंध-विच्छेद का कारक ग्रह बन जाता है, क्योंकि सप्तम स्थान से द्वादश भाव, षष्ठम स्थान ही होता है। यही कारण है कि कुंडली मिलान करते समय इस बात का विचार किया जाता है कि षष्ठ भाव की राशियां परस्पर वर-कन्या की राशियां न हांे अर्थात वर की राशि से कन्या की अथवा कन्या की राशि से वर की राशि छठी नहीं हो। विवाह-विच्छेद के योग: सप्तमेश का लग्न से द्वितीयस्थ, द्वितीयेश का सप्तमस्थ और राहु या केतु का द्वितीयस्थ या सप्तमस्थ होना। सप्तमस्थ राहु पर किसी पापग्रह की दृष्टि होना या दोनों की युति होना। स्त्री जातक की कुंडली के सप्तम भाव में राहु, मंगल और सूर्य में से एक, दो अथवा तीनों ग्रहों का विराजमान होना। स्त्री जातक की कुंडली में राहु अथवा शनि से दृष्ट सप्तमस्थ सूर्य का होना। स्त्री जातक की कुंडली में सूर्य का जन्म लग्न से सप्तमस्थ होना और सप्तमेश का नीचस्थ, शत्रु राशिस्थ या त्रिक भावस्थ होना। सप्तमेश और द्वादशेश का परस्पर राशि विनिमय होना तथा सप्तम भाव में मंगल, राहु या शनि का स्थित होना। षष्ठेश से दृष्ट किसी पाप ग्रह का सप्तम भाव में तथा सप्तमेश का द्वादश भाव में होना। सूर्य, शनि, राहु या केतु का सप्तम भाव में तथा सप्तमेश और व्ययेश का त्रिक भाव में होना। सुखी वैवाहिक जीवन के योग: वर और वधू दोनों पक्षों के प्रत्येक व्यक्ति की यही कामना होती है कि दोनों का वैवाहिक जीवन सुखमय, समृद्ध और सफल रहे। इस हेतु लोग श्रेष्ठ वर और कन्या का चयन करने का प्रयास करते हैं। वर और कन्या की भी यही कामना रहती है कि उनका वैवाहिक जीवन और सफल हो। सुखी वैवाहिक जीवन के संकेत जिन योगों में प्राप्त होते हैं, उनका संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत है। प्रथम और सप्तम भाव में स्थित राशियां और उनके स्वामी एक-दूसरे के मित्र नहीं हो सकते। हां इतना अवश्य है कि लग्नेश एवं सप्तमेश की शुभ स्थिति से वर और कन्या के वैवाहिक जीवन के सुखमय होने की अत्यधिक संभावना रहती है। अगर लग्न और सप्तम स्थान के स्वामी एक साथ स्थित हों तो वैवाहिक जीवन में सामंजस्य बना रहता है। यदि लग्न में सप्तम भाव का स्वामी स्थित हो तो पत्नी पति के अनुकूल चलने वाली होती है और उनका गृहस्थ जीवन सुखमय रहता है। यदि लग्नेश सप्तम भाव में स्थित हो तो व्यक्ति पत्नी का अनुगमन करने वाला होता है। फलतः उनमें सामंजस्य बना रहता है। पति-पत्नी में से किसी भी एक की जन्म-कुंडली में यदि प्रथम एवं सप्तम भाव के स्वामियों में परस्पर दृष्टि विनिमय हो अथवा प्रथम भाव का स्वामी सप्तम भाव में और सप्तम भाव का स्वामी प्रथम भाव में स्थित हो तो वैवाहिक जीवन सुखमय रहता है। यदि किसी स्त्री जातक की जन्म पत्रिका के सप्तम, अष्टम और नवम भावों में शुभ ग्रह स्थित हों तो वह सौभाग्यवती, पुत्रवती, धनी और दीर्घायु होती है। स्त्री जातक की जन्म-कुंडली के प्रथम भाव में यदि चंद्र और बुध, बुध और शुक्र, चंद्र-बुध-शुक्र अथवा बुध-बृहस्पति-शुक्र स्थित हों तो वह रूपसी, गुणी, धनी, विदुषी, पुत्रवती, कुलवंती, पतिव्रता और सौभाग्यवती होती है। उसका जीवन सदा सुखमय रहता है। जिस स्त्री के जन्म काल में स्वगृही या उच्चस्थ बृहस्पति केंद्र या त्रिकोण में होता है उसका पति गुणज्ञ और संतान सद्गुणी होती हैं। वह संपन्न ससुराल की पुत्रवधू होती है और दोनों कुलों का कल्याण करती है। उसका वैवाहिक जीवन सफल होता है। यदि किसी स्त्री की जन्म पत्रिका के दशम भाव में स्वगृही शुक्र, प्रथम भाव में गुरु और सप्तम भाव में चंद्र हो तो वह साम्राज्ञी सदृश सुखोपभोग करने वाली होती है। उसका वैवाहिक जीवन उŸाम होता है। लाभ भाव में स्थित उच्चस्थ गुरु और लग्न में स्थित उच्चस्थ बुध स्त्री जातक को रानी जैसा सुख-वैभव देता है। सभी शुभ ग्रहों की लग्न पर दृष्टि होने से वैवाहिक जीवन सुखी रहता है। वैवैवैवाहिक जीवन को सुख्ुखी बनाने के कुछुछुछ उपाय: वर और कन्या के भावी वैवाहिक जीवन की सफलता हेतु जन्म-कुंडली का मिलान कराएं। 18 से कम गुण मिलने पर विवाह न करें। लगभग समान आयु वर्ग के वर और कन्या का चयन करें। वर और कन्या की आयु में अधिक अंतर न हो। मौलिया मंगल वाले वर का विवाह चुनरी मंगल वाली कन्या से करना उनके सुखी वैवाहिक जीवन के लिए ज्योतिष शास्त्र सम्मत माना गया है। कुंडलियों का मिलान करवाने के पूर्व उनकी शुद्धता की जांच कराएं। कुंडली मिलान के समय नाड़ी दोष का विचार अवश्य करें। दाम्पत्य-प्रेम और सुखी जीवन के लिए वर व कन्या दोनों की गण-मैत्री का ध्यान रखना चाहिए। वर की राशि से कन्या की राशि का 9वीं और कन्या की राशि से वर की राशि का 5वीं होना सुखी वैवाहिक जीवन के लिए अशुभ माना गया है। वर व कन्या दोनों की राशि समान होने पर विवाहोपरांत दोनों में सदैव स्नेह बना रहता है। परस्पर सप्तम राशियां होने पर उŸाम संतति सुख, चतुर्थ-दशम होने पर सुखमय जीवन और तृतीय-एकादश होने पर धन का प्राचुर्य रहता है, जो सुखी वैवाहिक जीवन के लिए आवश्यक होता है। यदि वर और कन्या के नामाक्षर एक ही वर्ग के हों तो दोनों में उŸाम प्रीति रहती है। अग्नि एवं वायु तत्व तथा भूमि एवं जल तत्व वाली राशियों के वर और कन्या के वैवाहिक जीवन में सामंजस्य बना रहता है, अतएव कुंडली मिलाते समय राशि का मिलान हंसानुसार (तत्वानुसार) कर लेना चाहिए। विभिन्न तत्वों की राशियों का संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत है- अग्नि तत्व राशियां- मेष, सिंह, धनु वायु तत्व राशियां- मिथुन, तुला, कुंभ भूमि तत्व राशियां- वृष, कन्या, मकर जल तत्व राशियां- कर्क, वृश्चिक, मीन कुंडली मिलान के समय ग्रह मैत्री के साथ-साथ युंजा (नाड़ी) का विचार भी अवश्य करना चाहिए। यदि वर और कन्या दोनों का राशि स्वामी एक ही हो तो विवाहोपरांत दोनों में परस्पर मैत्री भाव बना रहता है। यदि दोनों की यंुजा (नाड़ी) आदि-आदि, मध्य-मध्य या अन्त्य-अन्त्य होगी तो दोनों में हार्दिक स्नेह आजीवन बना रहेगा। वर और कन्या के षष्ठ, अष्टम और द्वादश भावों की राशियां समान नहीं होनी चाहिए। यदि वर व कन्या दोनों की राशि अथवा लग्न एक ही हों तो उनका वैवाहिक जीवन सुखमय होता है, किंतु एक राशि होने पर नक्षत्र भेद और एक ही नक्षत्र होने पर चरण भेद आवश्यक होता है। वर और कन्या दोनों की लग्न राशि परस्पर सप्तम होने पर जीवन सुखमय रहता है। सुखमय वैवाहिक जीवन के लिए कन्या के चयन के पूर्व यह अवश्य देखें कि उसकी कुंडली में ये पंच महादोष योग न हों- दारिद्र् योग, मृत्यु योग, वैधव्य योग, व्यभिचार योग और संतानाभाव योग। इसी तरह यह भी आवश्यक कि वर की कुंडली में निम्न योग न हों- भार्यानाश योग, अल्पायु योग, व्यभिचार योग, उन्माद योग, नपुंसकत्व योग। विष-कन्या योग वाली कन्या से विवाह वर्जित माना गया है। उक्त सभी उपाय सुखमय वैवाहिक जीवन के लिए विवाह पूर्व के हैं। विवाह के पश्चात् निम्न उपाय करने चाहिए- पति-पत्नी दोनों को भगवान गणेश का पूजन नवीन दूर्वांकुरों से श्रद्धा और भक्ति भावना के साथ नियमित रूप से करते रहना चाहिए। परिवार में आपस में प्रेम बना रहे, इसके लिए आदि शंकराचार्य विरचित गणपति-स्तोत्र का पाठ नियमित रूप से करना चाहिए। वर्ष में कम से कम एक बार सत्यनारायण व्रत-कथा करनी चाहिए। समय-समय पर अपने कुल देवता और कुल देवी का पूजन करना चाहिए। दुर्गा-पाठ और रुद्राभिषेक क्रमशः नवरात्रिकाल एवं श्रावण मास में करते रहना चाहिए। वर और कन्या दोनों को सुख-समृद्धि हेतु भाग्यदायी रत्न धारण करना चाहिए। वैवाहिक जीवन में सामंजस्य बनाए रखने लिए प्रेम वृद्धि यंत्र एवं आकर्षण यंत्र की स्थापना शुभ मुहूर्त में करनी चाहिए। सुख-समृद्धि और धन की प्राप्ति तथा वैवाहिक जीवन में खुशहाली लाने के लिए फेंगशुई की वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिए। विशेष पर्वों पर तीर्थ स्थलों का भ्रमण तथा गंगा, नर्मदा आदि पवित्र नदियों में स्नान-दान करना चाहिए। माता-पिता और गुरुजनों की सदा सेवा करनी चाहिए। गौ-माता, विप्रजन, कुमारी कन्याओं का आदर सत्कार करते हुए उन्हें अन्न्ा, वस्त्र, भोजनादि से संतुष्ट करना चाहिए। संतानों को सद्गुणी, उदार, विद्यावान, धनवान और कर्मशील बनाने के लिए सदैव प्रयासरत रहना चाहिए।



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