श्रीयंत्र की उत्पत्ति एवं महत्व अशोक सक्सेना जो लोग अपनी निरंतर उन्नति चाहते हंै, उन्हें अवश्य ही श्रीयंत्र लाॅकेट धारण करना चाहिए, इससे परिवार में सुख-शांति व लक्ष्मी जी की कृपा स्थायी रूप से बनी रहती है। श्रीयंत्र नाम से ही स्पष्ट है कि यह श्री अर्थात् लक्ष्मी जी का यंत्र है। इस यंत्र में लक्ष्मी का साक्षात् वास माना गया है। लक्ष्मी जी स्वयं कहती हैं कि श्रीयंत्र तो मेरा आधार है, इसमें मेरी आत्मा वास करती है। श्रीयंत्र सभी यंत्रों में श्रेष्ठ माना गया है, इसलिए इसे यंत्रराज भी कहते हैं। एक पौराणिक कथा के अनुसार एक बार लक्ष्मी जी अप्रसन्न होकर बैकुंठ धाम चली गईं। इससे पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार की समस्याएं उत्पन्न होने लगीं। समस्त मानव जाति लक्ष्मी के अभाव में दीन-हीन व दुःखी होकर इधर-उधर फिरने लगी। तब वशिष्ठ मुनि ने लक्ष्मी को वापस लाने का निश्चय किया और तत्काल बैकुंठ धाम जाकर लक्ष्मी से मिले। लक्ष्मी जी अप्रसन्न थीं और किसी भी स्थिति में पृथ्वी पर आने को तैयार नहीं थीं। तब वशिष्ठ जी वहीं बैठकर आदि अनादि और अनंत भगवान श्री विष्णु जी की आराधना करने लगे। जब श्री विष्णु जी प्रसन्न होकर प्रगट हुए तब वशिष्ठ जी ने उनसे कहा, ‘प्रभो, श्री लक्ष्मी के अभाव में हम सब पृथ्वीवासी पीड़ित हैं। आश्रम उजड़ गए, वणिक वर्ग दुःखी हंै, सारा व्यवसाय तहस-नहस हो गया है। सबके मुख मुरझा गए हैं। आशा निराशा में बदल गई है तथा जीवन के प्रति मोह समाप्त हो गया है।’ तब श्री विष्णु जी वशिष्ठ जी को लेकर लक्ष्मी जी के पास गए और उन्हें मनाने लगे, परंतु वे भी लक्ष्मी जी को मनाने में सफल नहीं हो सके। रूठी लक्ष्मी ने दृढ़तापूर्वक कहा कि मैं किसी भी स्थिति में पृथ्वी पर जाने को तैयार नहीं हूं। उदास मन के साथ वशिष्ठ जी पुनः पृथ्वी लोक में लौट आए और अपने प्रयास व लक्ष्मी जी के निर्णय से सबको अवगत करा दिया। सभी अत्यंत दुःखी हुए। कुछ सोचकर देवगुरु बृहस्पति जी ने कहा कि अब तो मात्र एक ही उपाय है और वह है ‘‘श्रीयंत्र’’ की साधना। यदि श्रीयंत्र को स्थापित कर, प्राण-प्रतिष्ठा करके पूजा की जाए तो लक्ष्मी जी को अवश्य ही आना पड़ेगा। गुरु बृहस्पति की बात से ऋषि व महर्षियों में आशा का संचार हुआ। उन्होंने बृहस्पति जी के निर्देशन में श्रीयंत्र का निर्माण किया और उसकी सिद्धि एवं प्राण-प्रतिष्ठा कर दीपावली से दो दिन पूर्व अर्थात् धनतेरस को स्थापित कर उसका षोडशोपचार से पूजन किया। पूजा समाप्त होते-होते ही लक्ष्मी जी वहां उपस्थित हो गईं। लक्ष्मी ने कहा कि मैं किसी भी स्थिति में यहां आने को तैयार नहीं थी, परंतु आपने जो प्रयोग किया, उसके प्रभाव से मुझे आना ही पड़ा। श्रीयंत्र तो मेरा आधार है, इसमें मेरी आत्मा वास करती है। दरअसल यह सही भी है, इसीलिए श्रीयंत्र को सब यंत्रों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। श्रीयंत्र की रचना भी अनोखी है। पांच त्रिकोण के नीचे के भाग के ऊपर चार त्रिकोण, जिनका ऊपरी भाग नीचे की तरफ है। इस संयोजन से 43 त्रिकोण बनते हैं। इन 43 त्रिकोणों को घेरे दो कमल हैं। पहला कमल अष्टदल है, दूसरा बाहरी कमल षोडशदल का है। इन दो कमलों के बाहर तीन वृŸा हैं। इसके बाहर तीन चैरस हैं जिन्हें भूपुर कहते हैं। इस यंत्र के विषय में पश्चिम के सुप्रसिद्ध रेखागणित वैज्ञानिक सर एलेक्सीकुलचेव ने अदभुत तथ्य प्रस्तुत किए हैं जो इसकी महŸाा को और अधिक पुष्ट करते हैं। इनके अनुसार इस यंत्र की संरचना रेखा विज्ञान के अनुसार भी बड़ी ही विचित्र है। तीन आड़ी रेखाओं का बिंदु बनाना एक अतिविचित्र योग है। फिर अन्यान्य आड़ी रेखाओं का आकृतियां बनाना भी आश्चर्यजनक है। साथ ही संपूर्ण रूप में अपलक इस रेखा-रचना को देखते रहने पर यह चलायमान प्रतीत होती है। यंत्रों में जो भी अंक लिखे जाते हैं या जो भी आकृतियां बनाई जाती हैं वे देवी देवताओं की प्रतीक होती हैं। वैसे, यंत्रों की उत्पŸिा भगवान रुद्र के प्रलयकारी नृत्य तांडव से मानी जाती है। यंत्र-शक्ति इतनी प्रभावशाली होती है कि उसके दर्शनमात्र से ही सकारात्मक परिणाम मिल सकते हैं। नियमित रूप से इस यंत्र को अपने पास रखने से निरंतर शुभ कार्य सम्पन्न होते रहते हैं। संपूर्ण यंत्र विज्ञान में श्रीयंत्र को सर्व सिद्धिदाता, धनदाता या श्रीदाता कहा गया है। इसे सिद्ध या अभिमंत्रित करने की अनेक विधियां या मंत्र बताए गए हैं। इस यंत्र को तांबे, चांदी या सोने पर बनाया जा सकता है। तांबे पर 2 वर्ष तक चांदी पर 11 वर्ष तक और स्वर्ण पत्र पर बना हुआ यंत्र सदैव प्रभावी रहता है। जो लोग कोई कार्य नहीं करते हों, उन्हें श्रीयंत्र का लाॅकेट पहना दिया जाए तो उन्हें भी सद्बुद्धि आ जाती है और वे कामकाज करने लगते हंै। इस लाॅकेट को नवरात्रि स्थापना के दिन धारण करना चाहिए, इससे धन की प्राप्ति होती है। इसे धारण करने से धारक को किसी प्रकार का भय नहीं होता और उसके नौकरी-व्यवसाय में निरंतर उन्नति होती रहती है। उसका भाग्योदय हो जाता है। लक्ष्मी जी हमेशा उस पर अपना अशीर्वाद बनाए रखती हैं। जो स्त्री अपने पति की निरंतर उन्नति चाहती है, उसे अवश्य ही श्रीयंत्र लाॅकेट धारण करना चाहिए, इससे परिवार में सुख-शांति व लक्ष्मी जी की कृपा स्थायी रूप से बनी रहती है। श्रीयंत्र के प्रकार - मेरुपृष्ठीय श्रीयंत्र कूर्मपृष्ठीय श्रीयंत्र धरापृष्ठीय श्रीयंत्र मत्स्यपृष्ठीय श्रीयंत्र ऊध्र्वरुपीय श्रीयंत्र मातंगीय श्रीयंत्र नवनिधि श्रीयंत्र वाराहीय श्रीयंत्र श्रीयंत्र सोना, चांदी एवं तांबे के अतिरिक्त स्फटिक एवं पारे के भी होते हैं। सबसे अच्छा श्रीयंत्र स्फटिक का माना गया है। स्फटिक मणि के समान होता है। हिन्दू धर्म के विभिन्न पीठों के शंकराचार्य स्फटिक श्रीयंत्र की पूजा करते हैं। हिंदू धर्म के सभी ज्ञानी संत, महापुरुष, धर्माचार्य, महामण्डलेश्वर, योगी, तांत्रिक संन्यासी आदि सभी अपने पूजा स्थल में इस यंत्र को प्रमुखता से रखते हैं और पूजा आदि करते हैं। अन्य धातुओं के यंत्रों में मंत्रों के साथ धातुओं की शक्ति समाई होती है, परंतु स्फटिक के श्रीयंत्र में मंत्रों के साथ-साथ दिव्य अलौकिक शक्तियां भी होती हैं। पूजा स्थान, कार्यालय, दुकान, कारखाने और पढ़ाई के स्थान पर स्फटिक श्रीयंत्र को रखने एवं उसकी पूजा करने से धन-धान्य में वृद्धि होती है और व्यापार में लाभ तथा पढ़ाई में सफलता मिलती है। श्रीयंत्र विभिन्न आकार के बनाए जाते हैं जैसे अंगूठी, लाॅकेट और बांह पर बांधने वाले ताबीज और बटुए में रखने के लिए सिक्के के रूप में। श्रीयंत्र की पूजा में जप हेतु लक्ष्मी जी का यह मंत्र अति प्रभावशाली है- ¬ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ¬ महालक्ष्म्यै नमः। जप के लिए कमलगट्टे की माला का प्रयोग करें। पारे का श्रीयंत्र भी अति प्रभावशाली होता है। पारा भगवान शिव का विग्रह कहलाता है और लक्ष्मी जी ने स्वयं कहा है कि पारद ही मैं हूं और मेरा ही दूसरा स्वरूप पारद है। यह जिस घर में स्थापित होता है, उसमें लक्ष्मी का स्थायी वास होता है।