दीपावली के पौराणिक प्रसंग डाॅ. भगवान सहाय श्रीवास्तव दीपावली का इतिहास अति प्राचीन है। वेद, पुराण तथा हिंदू धर्म के अन्य ग्रंथों में इसका उल्लेख तथा सौभाग्य की देवी लक्ष्मी के स्वरूप और महिमा का व्यापक विवरण मिलता है। प्राचीन काल में भारतीय जहां भी गए, दीपावली के प्रति अपनी आस्था, विश्वास और परंपराएं भी साथ ले गए। फलस्वरूप भारतीय जीवन दर्शन के तमाम उपक्रमों के साथ-साथ लक्ष्मी पूजा की परंपरा भी देश-देशांतरों में फैलती गई। उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार दीपावली का सांस्कृतिक और पावन पर्व कम से कम तीन हजार वर्ष पुराना है, किंतु उस समय इसका स्वरूप, आज से बिल्कुल भिन्न था। आज हम इसे धन की देवी लक्ष्मी के पूजन का पर्व मानते हैं। जबकि प्राचीन काल में यह केवल यक्षों का ही पर्व था। इस रात्रि को यक्ष जाति के सभी लोग अपने सम्राट कुबेर के साथ विलास में बिताते और अपनी यक्षिणियों के साथ आमोद-प्रमोद करते। सर्वत्र हर्षोल्लास और प्रेमोन्माद की वर्षा होती, इसीलिए इस रात्रि को ‘यक्ष रात्रि’ भी कहा जाता है। ‘वाराह पुराण’ और वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ में भी इसका उल्लेख यक्ष रात्रि के रूप में ही किया गया है। बाद में इस अवसर पर यक्षाधिपति कुबेर अथवा यक्ष जाति के ही पूजन की परंपरा बनी। उŸारी भारत के अनेक गांवों में यक्ष वृक्ष, यक्ष चैरा अथवा यक्ष चैत्य होने के प्रमाण मिले हैं। इन स्थानों पर विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से केवल यक्षों की ही पूजा प्रचलन में थी। हिमाचल प्रदेश की कुछ पर्वतीय जातियों में अब भी यक्ष पूजन की परंपरा है। विभिन्न स्थानों पर की गई खुदाई में कुषाणकाल की अनेक ऐसी प्रतिमाएं मिली हैं, जिनमें यक्षाधिपति कुबेर और लक्ष्मी को एक साथ दिखाया गया है। कुछ प्रतिमाओं में कुबेर अपनी पत्नी हरिति के साथ भी दिखाए गए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में कुबेर और उनकी पत्नी हरिति का ही पूजन किया जाता होगा। कालांतर में हरिति का स्थान लक्ष्मी ने ले लिया और आगे चलकर कुबेर के स्थान पर गणेश जी को प्रतिष्ठित कर दिया गया। कुछ स्थानों पर गणेश और लक्ष्मी जी के पूजन के साथ इंद्र और कुबेर की भी पूजा की जाती है। यक्ष-रात्रि और लक्ष्मी पूजन: यक्ष रात्रि के साथ लक्ष्मी पूजन के जुड़ने का कारण धन की देवी के रूप में लक्ष्मी की धारणा तथा इसी दिन विष्णु से उनके विवाह का प्रसंग है। फिर कुबेर तथा लक्ष्मी की प्रकृति में समानता भी अधिक है। कुबेर धन के देवता हैं और लक्ष्मी जी धन की देवी। अंतर केवल यह है कि कुबेर की मान्यता यक्ष जाति में थी और लक्ष्मी की देव तथा मानव जातियों में। कालांतर में जब हमारे यहां विभिन्न जातियों का समन्वय हुआ तो आपस में एक-दूसरे की मान्यताओं को स्वीकार करना भी स्वाभाविक था। इसीलिए कुबेर और लक्ष्मी को एक ही रूप मानकर उनकी पूजा की जाने लगी। प्रारंभ में देवजाति के मुख्य देवता केवल वरुण थे। इसके बाद जब वैवस्वत मनु ने मानव संस्कृति को जन्म दिया तो इंद्र तथा अन्य देवताओं को भी पूज्य माना गया। आगे चलकर जब शैव संप्रदाय का महत्व समाज में बढ़ने लगा तो गणेश की प्रतिष्ठा भी बढ़ी। गणेश जी ऋद्धि-सिद्धि के देवता माने जाते हैं, जबकि कुबेर केवल धन के ही अधिपति हैं, इसीलिए गणेश कुबेर से श्रेष्ठ हुए। उधर लक्ष्मी केवल धन की ही नहीं, यश, सुख, कृषि आदि की भी देवी हैं, इसीलिए लक्ष्मी के साथ गणेश की निकटता मानी जाने लगी। कुबेर ही गणनायक (गणेश): ‘मत्स्य पुराण’ (180/62) के अनुसार स्वयं कुबेर ही देवाधिदेव शंकर जी की नगरी वाराणसी में आकर अपने यक्ष स्वभाव को छोड़कर उनके गणनायक और मंगलमूर्ति गणेश बन गए। पूजा के मंच पर किए गए इस परिवर्तन में कोई विशेष कठिनाई भी नहीं हुई। गणेश के गजानन स्वरूप को यदि छोड़ दिया जाए तो उनकी शेष आकृति कुबेर से काफी मिलती-जुलती है। वही लंबोदर और स्थूल शरीर जो गणेश का है, कुबेर का भी है, इसीलिए कुबेर का स्थान गणेश जी ने बड़े सहज और सरल रूप में ही ले लिया। विभिन्न जातियों में प्रेमपूर्ण समन्वय के कारण लोग यह तो भूलते ही जा रहे थे कि उनके पूर्वज किस जाति के थे और उनके देवता कौन थे। आपसी समन्वय का एक बड़ा प्रमाण यह है कि स्वयं सम्राट बिंबिसार भी दीपावली के दिन यक्ष मंदिर में जाकर पूजन किया करते थे। दूसरी तरफ वाराणसी में भगवान शंकर के साथ ही मणिभट्ट यक्ष की भी पूजा होती थी। यक्षांे के बारे में हमें अनेक विरोधाभासी बातें पढ़ने को मिलती हैं। ‘महाभारत’ में इन्हें कहीं देवजाति का माना गया है, कहीं उपदेव की कोटि का और कहीं मानव जाति का अथर्ववेद में देवताओं के नायक वरुण और प्रजापति को यक्ष के रूप में चिह्नित किया गया है। दूसरी ओर, वैदिक साहित्य के चिंतकों का कथन है कि यक्ष अनार्यों के देवता थे। यक्ष देवजाति में तो नहीं थे, लेकिन आपसी संबंधों के कारण देव समाज में उन्हें सम्मानपूर्ण स्थान दिया जाता था। इसी कारण यक्षों को कभी देव और कभी उपदेव की संज्ञा दी गई। इस प्रकार, देव या मानवजाति के न होने पर भी आपसी समन्वय के कारण यक्ष भी मानव रूप में स्वीकार किए गए। यक्षों की प्रकृति और व्यक्तित्व के बारे में भी कई विचार पढ़ने को मिलते हैं। जैन ग्रंथों में यक्षों को गंभीर प्रकृति का बताते हुए उनके व्यक्तित्व की चर्चा इन शब्दों मे की गई है - ‘‘वे देखने में प्रिय होते हैं, उनके हाथ, पैर, नख, तालु, जिह्ना आदि रक्तवर्ण के होते हैं। वे किरीट और नाना प्रकार के आभूषण धारण करते हैं। बौद्ध ग्रंथों में यक्षों को एक ओर दयालु देवता तो दूसरी ओर कुछ अन्य स्थानों पर क्रूर और मानव भक्षी बतलाया गया है। सामान्य रूप में यक्षों का जीवन दर्शन था- खाओ, पीओ और मौज करो। उनके पास अथाह संपŸिा थी। विशाल स्वर्ण भंडार के वे मालिक थे। बड़े पैमाने पर उनका व्यापार चलता था। साम्राज्य विस्तार को लेकर नाग जाति से उनकी प्रतिद्वंदिता चलती थी। धन संपन्न होने के कारण वे अत्यधिक शक्तिशाली भी होते थे। जहां भी उन्हें अपनी शक्ति के प्रदर्शन की आवश्यकता होती, वे निर्मम हो जाते थे। यक्षों में ही आगे चलकर ‘रक्ष’ जाति का उदय हुआ, जो मूलतः रक्षा करने के लिए बनी थी, लेकिन इसमें मानवतर गुणों की प्रबलता के कारण इस जाति के लोग राक्षस कहलाए। चूंकि राक्षस मानव जाति के विरुद्ध तथा अत्यधिक अत्याचारी थे, इसलिए उनसे संबंधित होने के कारण भी यक्ष जाति बदनाम हुई। यक्षाधिपति कुबेर, रावण का सौतेला भाई था। महर्षि पुलस्त्य के दो पत्नियां थीं। पहली पत्नी से कुबेर का जन्म हुआ और दूसरी से रावण का। यक्ष अपनी प्रतिभा के कारण भी विख्यात थे। जलाशयों पर बड़े-बड़े पुल बनाने की तकनीक का उन्हें अच्छा ज्ञान था। देवताओं की मूर्तियों पर अक्सर यक्षों को उड़ते हुए फूल मालाएं अर्पित करते हुए दिखलाया जाता है, इससे यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे वायुयान जैसे किसी यान का भी प्रयोग करते थे। आदिकालीन यक्ष महिलाएं अपने रूप सौंदर्य और आकर्षण के लिए प्रसिद्ध थीं। अनेक प्राचीन मंदिरों मे यक्षिणियों की मूर्तियां बड़ी संख्या में प्राप्त होती हैं। यक्षिणियां नृत्य और गायन में भी प्रवीण थीं और इसीलिए कभी-कभी यक्ष और गंधर्वों को एक ही समझने की भूल की जाती है। वास्तव मं े य े जातिया ं अलग-अलग थी।ं दीपावली पर आतिशबाजी, खानपान अथवा आमोद-प्रमोद के जो विभिन्न कार्यक्रम होते हैं, वे स्पष्ट ही हमें यक्षों की स्मृति से जोड़ देते हैं, जो हास विलास और मस्ती के साथ इस त्यौहार को मनाते थे। इस प्रकार, दीपावली के आदिकालीन स्वरूप के साथ यक्षों की स्मृति सहज रूप में जुड़ी है।