श्रीकृश्ण जन्मभूमि के प्राचीन मंदिर! डाॅ. भगवान सहाय श्रीवास्तव कृष्ण की जन्मभूमि मथुरा में कृष्ण के मंदिरों के अतिरिक्त कई अन्य मंदिर तथा दर्शनीय स्थल भी हैं, जिन्हें भक्तगण या पर्यटक देखकर उनकी विशेषताओं से परिचित होते हैं। प्रस्तुत है मथुरा के प्राचीन मंदिरों की एक झलक- मथुरा नगरी का जितना महत्व धार्मिक दृष्टि से है, उतना ही ऐतिहासिक दृष्टि से भी है। देश का ऐसा कोई प्रसिद्ध तीर्थ नहीं जो मथुरा मंडल में न हो या मथुरा का उससे किसी न किसी प्रकार का संबंध न हो। अयोध्या, काशी, हरिद्वार, अवन्ति, सभी प्रसिद्ध स्थल मथुरा मंडल में हैं। तीर्थराज प्रयाग भी यहां चातुर्मास्य में निवास करता है। विभिन्न प्रसिद्ध सम्राटों का भी इस नगरी से किसी न किसी प्रकार का संबंध रहा है। इस नगरी के कुछ खास स्थलों की जानकारी हम यहां दे रहे हैं। विश्राम घाट: विश्राम घाट पर भगवान वराह ने हिरण्याक्ष का वध करके विश्राम किया था। द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण ने कंस को मारकर यहां विश्राम किया था। वाराह पुराण में विश्राम घाट को अद्वितीय तीर्थ बताया गया है- श्रमो नश्यति मे शीघ्रं मथुरा भगतस्य हि। विश्रमणाच्चैव विशांतिस्तेन संज्ञा कृतामया।। तथा- नकेशवसमो देवो न माथुर समोद्विजः। न विश्रांत समं तीर्थ सत्यं-सत्यं वसुन्धरे। यहां प्रातः और सायंकाल श्री यमुना जी की आरती देखते ही बनती है जिसमें बहुत से घंटे एक साथ बजाए जाते हैं। द्वारकाधीश मंदिर: श्री द्वारकाधीश जी विश्राम घाट के समीप विशाल मंदिर में विराजमान हैं। बल्लभकुल-संप्रदाय के आचार्य श्री ब्रजभूषण लाल जी महाराज के संरक्षण में इनकी सेवा पूजा प्रचलित रही। द्वारकाधीश जी की मूर्ति ग्वालियर में सुप्रसिद्ध पारखवाड़े नामक स्थान पर नींव खोदते समय पारिख गोकुलदास जी को मिली थी। पारिख जी महाराज दौलत राव सिंधिया के दीवान थे। नागाओं के अपार धन के साथ इस मूर्ति को वे मथुरा लाए और यहां मंदिर निर्माण कर ठाकुर जी को िव र ा ज म ा न किया। यह मंदिर आषाढ़ कृष्ण अष्टमी, संवत् 1871 में बनकर तैयार हुआ था। वराह जी का मंदिर: यह मंदिर मानिक चैक मुहल्ले में है। इसके समीप ही श्री द्वारकाधीश जी हैं। वराह जी की मूर्ति अत्यंत प्राचीन है। कथा है कि प्राचीन काल में मान्धाता नामक एक राजा था। मान्धाता की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उसे वराह की मूर्ति सेवा के लिए दी थी। मान्धाता से यह मूर्ति कपिल मुनि को मिली और कपिल ने इसे इंद्र को दिया। इंद्र से इंद्रजीत ले गया और रावण वध के पश्चात् विभीषण से श्री राम ने केवल वराह जी की मूर्ति ग्रहण की, और उन्हें अयोध्या में स्थापित किया। अयोध्या से एक बार शत्रु धन जी मथुरा पधारे थे और माथुर ब्राह्मणों के आग्रह पर उन्होंने लवण नामक असुर का वध किया था। श्रीराम ने जब शत्रुघ्न जी को मथुरा का राज्य दिया तो वे वराह जी को अपने साथ मथुरा लाए और तब से यह मूर्ति मथुरा में ही विद्यमान है। एक अन्य कथा के अनुसार वराह जी ने हिरण्याक्ष को मारकर यहीं विश्राम किया था, तभी इस मंदिर का निर्माण हुआ। यह कपिल वराह, वाराह देव, नारायण, लांगल और वामन नाम से प्रसिद्ध हैं। वराह के दर्शनों का पुण्य पुष्कर स्नान और गया के पिण्डदान के समान है। द्वादशी के दिन इनकी परिक्रमा करने से पृथ्वी परिक्रमा का पुण्य मिलता है। पद्मनाभ मंदिर: यह मंदिर महोली पोर मुहल्ले में स्थित है। इसमें पद्मनाभ जी की मूर्ति है, जिसे भगवान श्री कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने अपने समय में स्थापित किया था। इस मूर्ति में आधा भाग हरि का और आधा हर का है। अतः इसका विशेष महत्व है। गतश्रम नारायण मंदिर: यह मंदिर गतश्रम टीला मुहल्ले में है। गतश्रम नारायण की मूर्ति अत्यंत प्राचीन है। यही अतं गृर्ह ी परिक्रमा म ंे आचार्य श्री बल्लभ मुनि के दर्शन अवश्य करने चाहिए। मंदिर जीर्ण अवस्था में है। मथुरा देवी मंदिर - यह शीतला पायसा नामक स्थान में स्थित है। इसमें मथुरा देवी विद्यमान हैं। इतिहास है कि यहां अहमद शाह अब्दाली ने माथुरों का विनाश किया था, अतः इसका ऐतिहासिक महत्व भी है। अतं गृर्ह ी परिक्रमा म ंे पत््र यके यात्री यहां आता है। दीर्घ विष्णु मंदिर - यह मंदिर मनोहर पुरा नामक स्थान में है। वर्तमान मंदिर का निर्माण बनारस के राजा पटनीमल ने करवाया था। भगवान दीर्घ विष्णु की मूर्ति बड़ी भव्य है। मथुरा में कंस के मल्लों के विनाश के समय भगवान ने जो दीर्घ रूप धारण किया था, यह मूर्ति उसी की परिचायक है। चैत्र शुक्ल द्वादशी के दिन इसके पूजन से दुःखों का निवारण होता है। केशवदेव मंदिर: यह मंदिर मथुरा नगर के पश्चिम में है। प्राचीन मथुरा यहीं पर बसी हुई थी। भगवान कृष्ण की जन्म भूमि भी यही है। कंस का कारावास यहीं था। इसके भग्नावशेष आज इसके ज्वलंत प्रमाण हैं। भगवान का धाम होने के कारण इस पर आक्रमणकारियों, लुटेरों आदि के अनेक क्रूर आक्रमण हुए फिर भी यह स्थल अपनी स्मृति आज तक बनाए हुए है। यहां अद्वितीय भागवत भवन है। महमूद गजनवी के समय इस मंदिर का ऐश्वर्य अपने यौवन पर था, लेकिन इसे गजनी के लूटेरों ने नष्ट कर दिया। कालांतर में वीरसिंह बुंदेला ने 33 लाख रुपये की राशि से इसका जीर्णोद्धार करवाया, लेकिन आगे चलकर क्रूर औरंगजेब ने इसे धराशायी कर यहां एक मस्जिद का निर्माण करा दिया। आज से लगभग 250 वर्ष पूर्व ग्वालियर महाराज ने इसके कुछ भागों की रक्षा की थी। महाविद्या मंदिर: यह मंदिर केशव देव से आगे परिक्रमा मार्ग में स्थित है। अपनी शैली का मथुरा में यह एक ही मंदिर है। इसमें महाविद्या की मूर्ति है। कहा जाता है कि महाविद्या की प्रतिष्ठा पाण्डवों ने की थी। वर्तमान मंदिर का निर्माण 18 वीं शदी में पेशवाओं ने किया था। चामुण्डा मंदिर: यह मंदिर शाक्त संप्रदाय का प्रसिद्ध तीर्थ है। योनि की आकृति में चामुण्डा जी की मूर्ति के हाथ पैर आदि अंग नहीं हैं। सिंदूर के लेप से विशाल खंड आवृत है। कुछ लोग इन्हें छिन्नमस्ता कहते हैं और कुछ अन्य इनका संबंध सप्तशती में वर्णित चण्ड मुण्ड विनाशिनी ‘चामुण्डा’ से जोड़ते हैं। नगर की यह आराध्य देवी हैं। गणेश मंदिर: यह मंदिर वृन्दावन मार्ग में यमुना तट पर मिट्टी के एक विशाल शिखर पर स्थित है। यहां गणेश की मूर्ति में अनेक देवी-देवता उत्कीर्ण हैं। माघ मास में पंचामृत स्नान के समय इनके सर्वांग दर्शन कराए जाते हैं। गणेश की एक और प्रतिमा नगर के मध्य में है, जिसमें 10 भुजाए हंै। यह प्रतिमा विशाल है। गोकर्ण नाथ: मथुरा की प्राचीन मूर्तियों में गोकर्णनाथ की मूर्ति भी शिव की यह प्रतिमा अत्यंत विलक्षण है। भगवान शिव हाथ में कुंडी सोटा लिए हैं। उनकी ऐसी मूर्ति भारत में अन्यत्र कहीं नहीं है। पुराण के अनुसार यहां भागवत में वर्णित प्रसिद्ध धुंधुकारी प्रेत के भाई गोकर्ण ने तपस्या की थी, इसलिए इसका नाम गोकर्ण तीर्थ पड़ा। भूतेश्वर महादेव: भूतेश्वर यहां के कोटपाल हैं। मथुरा का प्रत्येक व्यक्ति पूजा के दौरान संकल्प में आज भी ‘भूतेश्वर क्षेत्रे’ कहकर इनका स्मरण करता है। इनकी प्रतिमा अर्ध मनुष्य के आकार की है। इसी प्रकार रंगेश्वर महादेव की मूर्ति कंस वध के पश्चात् कृष्ण बलराम के बल का गुणगान करती हुई भूमि से निःसृत हुई थी।