रक्तचाप के कारण, लक्षण एवं उपाय
रक्तचाप के कारण, लक्षण एवं उपाय

रक्तचाप के कारण, लक्षण एवं उपाय  

आलोक शर्मा
व्यूस : 7831 | अकतूबर 2008

च्च रक्तचाप या सामान्य रक्तचाप न रहना एक जीर्ण व्याधि है, जो कि युवा व्यक्तियों की अपेक्षा वृद्धावस्था में अधिक मिलती है।

रक्तचाप को जानने के लिए निम्नलिखित जानकारियां आवश्यक प्रतीत होती हैं -

- यह हृदय व रक्तवाहिन्यों के अपगलन ;क्महमदमतंजपवदद्ध का रोग है। इसमें रक्त वाहिन्यों की आंतरीक दीवार टूटने लगती है जिस पर बहने वाला वसा जमा होने लगता है। यह बाद में कैल्सियम द्वारा बदला जाता है जिसके कारण रक्त वाहिन्यां संकुचित होने से थक्का ;ज्ीतवउइनेद्ध बनने लगता है रक्त वाहिन्यां टूटने-फटने लगती हैं।


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- भारत में प्रति एक हजार पुरुषों व स्त्रियों में क्रमशः 59.9 व 69.9 रोगी मिलती हैं। शहरों में प्रति हजार 35.5 तथा गांवों में 35.9 रोगी मिलते हैं।

- उच्च रक्तचाप लगातार काफी समय रहने से प्रायः रोगी के हृदय, वृक्क, रक्तवाहिन्यां, आंख का पर्दा, केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर दुष्प्रभाव पड़ता है।

- उच्च रक्तचाप सायलेंट किलर के रूप में काम करता है। करीब 85 प्रतिशत रोगियों में इसका कारण आरंभ में पता लगना मुश्किल होता है। इस जगह ज्योतिष अपनी ज्योति दिखा सकता है।

- वयस्कों में सामान्यतः सिस्टोलीक बी.पी. 160 एम.एम. आॅफ एचजी तथा डायस्टोलीक बी.पी. 95 एम.एम. आॅफ एचजी से उपर रहता है। पर यह मापदंड जाति, स्थान, देशकाल आदि के आधार पर परिवर्तित भी हो सकता है।

निदानार्थकर रोग: मधुमेह, स्थौल्य, हृदयरोग, वृक्करोग के उपद्रव स्वरूप, उच्च रक्तचाप मिलता है।

आयुर्वेदिक दृष्टिकोण रक्तगतवात: रक्त में वायु के बढ़ने से तीव्रशूल, जलन, त्वचा वैवण्र्य, शरीर कृशता, भूख न लगना, त्वचा पर धब्बे, भोजन के तुरंत बाद शरीर में भारीपन।

रुजःस्तीव्राः ससंतापा वैवण्र्य कृषताऽरूचिः। गात्रे चारूंषि भुक्तस्य स्तम्भश्चासृग्गतेऽनिले।।

धमनी प्रतिचय: धमनी प्रतिचय में धमनी प्रतिचय को कफनानात्मज विकार के रूप में लिया है जिसके कारण उच्च रक्तचाप होता है।

शिरोगतवात: शिर में वायु के प्रकोप से हल्का शूल, शरीर में शोथ, धातुक्षय, शिर में थ्रोबींग सेंसेशन होता है। शरीरं मन्दरूक्शोफं शुष्यति स्पन्दते तथा। सुप्तास्तन्व्यो महत्यो वा सिरा वाते सिरागते।।

धमनी काठिन्य: हृदय रोग, यकृत, वृक्क आदि रोगों में धमनी काठिन्य होता है। रक्तचाप किसी भी चिकित्सा शास्त्र में रोग के रूप में न होकर लक्षणपुंज के रूप में वर्णित है।

इसलिए ज्योतिष में भी रक्तचाप के परिज्ञान हेतु निम्नलिखित तीन उपकरण आवश्यक है।

1. योग, 2. दशा, 3. गोचर इनमें से दशा तथा गोचर का ज्ञान तो तात्कालिक रूप से किया जा सकता है परंतु उसके लिए भी रक्तचाप के संदर्भ में योग के तीन प्रमुख घटकों (क) गृह (ख) राशि (ग) भाव का चिंतन आवश्यक है।

संबंधित ग्रह

1. सूर्यः अग्नि तत्व तथा मध्यम कद वाला शुष्क ग्रह है। मनुष्यों में नेत्र, आयु, सिर, हृदय, प्राणशक्ति, रक्त, पित्त का प्रतिनिधि है। आयुर्वेद मत से जाठराग्निमान्ध, रक्ताग्निमान्ध इस रोग का प्रमुख कारण है। पाचक व साधक पित्त सम्प्राप्ति के घटक हैं। अतः सूर्य का पापाक्रांत नीच का होना आवश्यक प्रतीत होता है।


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2. चंद्रमा: जल तत्व व दीर्घ कद वाला है। यह व्यक्ति के मन-मस्तिष्क, रस रक्तधातु, कफ का प्रतिनिधि है। यह चतुर्थ स्थान का एक कारक होने के कारण रस-रक्त धातु का प्रतिनिधि है। इस कारण चंद्रमा का शुद्ध एवं शुभ होना अति आवश्यक है।

3. मंगल: अग्नि तत्व व छोटे कद वाला शुष्क ग्रह है। मज्जा, शारीरिक शक्ति, संघर्षशीलता, उत्तेजना व पित्त का प्रतिनिधि है। निर्बल होने पर रक्त विकार, रक्तचाप, रक्तस्राव निराशा का एक कारण है। चतुर्थ स्थान के एक कारण होने के कारण इसका सामान्य होना आवश्यक है।

4. बुध: पृथ्वी तत्व तथा सामान्य कद वाला जलीय ग्रह है। जिह्वा, वाणी, स्वर चक्र, त्रिधातु का प्रतिनिधि है। बलवान होने पर मस्तिष्क संतुलित रहता है। तृतीय व चतुर्थ भाव दोनों का कारक होने के कारण रक्तचाप को प्रभावित करता है।

5. गुरु: आकाश तत्व, मध्यम कद वाला जलीय ग्रह है। शरीर में वसा, वीर्य, यकृत, रक्त धमनी विशेष रूप से कफ का प्रतिनिधि है। धमनी प्रतिचय होने पर रक्तचाप का कारण हो सकता है।

6. शुक्र: जल तत्व - मध्यम कद वाला जलीय ग्रह। शुक्राणु, नेत्र, स्वर, संवेग, शक्ति का प्रतिनिधि चतुर्थ स्थान के एक कारक होने के कारण संभावित ग्रह है।

7. शनि: वायु तत्व तथा लंबे कद वाला शुष्क ग्रह वात संस्थान, स्नायु मंडल, साहस, क्रिया शक्ति का प्रतिपादक। निर्बल होने पर वात-विकार, स्नायु विकार, संधिवात, निराशाजन्य मानसिक रोग। रक्तचाप में हृदय रोगों के कारक ग्रहों के साथ-साथ वात प्रकोपक शनि का प्रकोप संभावित।

8. राहु: वायु तत्व, मध्यम कद शरीर के मस्तिष्क रक्त, त्वचा, वात का प्रतिनिधि।

9. केतु: वायु तत्व, छोटे कद, वात, रक्त का प्रतिनिधि। रक्तचाप में हृदय रोगों का कारण ग्रहों के साथ-साथ राहु के अपेक्षा केतु का संयोग अधिक संभावित होता है।

संबंधित राशि: राशियों में मेष राशि - मानसिक रोग, मिथुन राशि- रक्त विकार, कर्क राशि - हृदय रोग, मकर राशि - वात रोग व रक्तचाप, कुंभ राशि - मानसिक रोगों से संबंधित होने के कारण रक्तचाप व्याधि से अधिक संबंधित प्रतीत होती है।

संबंधित भाव: यद्यपि चतुर्थ भाव हृदय का प्रतिनिधि है। अतः चतुर्थ भाव एवं चतुर्थेष पर पाप प्रभाव हृदय रोगों का सूचक है। परंतु रक्तचाप प्रधानतः मन एवं मस्तिष्क पर दबाव के कारण होता है। अतः चतुर्थ भाव के साथ-साथ तृतीय एवं पंचम भाव को भी देखना चाहिए। यद्यपि सामान्य रोग विचार की दृष्टि से प्रथम, षष्ठ, अष्टम एवं द्वादश भावों का अध्ययन आवश्यक है, जबकि द्वितीय एवं सप्तम भाव मारक होने से मृत्युदायक होते हैं।

तृतीय भाव: सर्वाधिक महत्वपूर्ण, यह अष्टम से अष्टम होने के कारण आयुष्य के संबंध में महत्वपूर्ण है। जीवन को प्रेरणास्रोत के भांति काम करता है। यह पंचम से एकादश स्थान होने के कारण उपचय स्थान भी है, मनोवृत्ति से संबंधित है। लग्न, चेतना मस्तिष्क है तो तृतीय स्थान अचेतन मस्तिष्क है। इसके पीड़ित होने पर जातक ईष्र्यालु होगा, शुद्ध चित्त नहीं होगा, चंद्रयुक्त होने पर जातक द्वारा किए गए पाप कर्म का सूचक है। काल पुरूष में तृतीय स्थान का स्वामी बुध है, जो बुद्धि कारक है।

अवचेतन मस्तिष्क षष्ठ स्थान है। सुप्तावस्था रहने पर भी अवचेतन मस्तिष्क क्रियाशील रहता है। पराचेतन मस्तिष्क का बोध अचेतन मस्तिष्क के स्थान से सप्तम स्थान अर्थात नवम स्थान से होता है। तृतीय स्थान पितृ दोष का भी सूचक है। पापी सूर्य, शनि, नीचगत ग्रह, राहुयुत सूर्य या मृत्यु भाग में स्थित ग्रह पितृ श्राप का सूचक है। षष्टेश, रोग कारक केतु या शनि का संबंध जातक के रोग ग्रस्त होने का सूचक है। अतः राहु, सूर्य व बली मंगल का तृतीय स्थान से संबंध जातक के निरोगी होने का सूचक है। तृतीय स्थान के सर्वाधिक विलक्षण गुणों में से एक इसका अकाल मृत्यु निवारक उपाय जानने में सहायक होना है।

चतुर्थ भाव: द्वितीय केंद्र नाम से प्रसिद्ध यह कालपुरूष के वक्ष स्थल का कारक है इसलिए पर्याप्त सुख आनंद प्राप्त करने के लिए व्यक्ति का हृदय निर्मल होना चाहिए इसलिए चतुर्थ भाव सुस्थित व शुभ ग्रह से द्रष्ट होना चाहिए। चतुर्थ स्थान पीड़ित होने पर जातक मनःशांति से वंचित हो जाता है। यह सर्वाधिक शुद्ध केंद्र है। किसी कुंडली में चतुर्थेश व कारक चंद्र, बुध, शुक्र व मंगल सभी का चतुर्थ स्थान से अत्यधिक शुद्ध संबंध होना चाहिए परंतु व्यवहारिक रूप से यह संभव नहीं है।

अतः इनमें से जिस किसी भी ग्रह का बल क्षय होता है उस ग्रह विशेष के चतुर्थ स्थान से संबंधित कारकत्व पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं। जातक उस क्षेत्र विशेष से अकिंचन हो जाता है।

पंचम भाव: सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्रिकोण स्थान कुंडली के मूल की भांति कार्य करता है क्योंकि यह जन्मजात पूर्व पुण्यों का अभिज्ञान प्रदान करता है। किी भी भाव के विवेचन से पूर्व पंचम भाव का अध्ययन आवश्यक है क्योंकि पंचम स्थान व पंचमेश पर शुभ ग्रह गोचर करे तभी परिणाम फलिभूत होंगे अथवा नहीं। आत्मा का प्रवेश पंचम स्थान से होता है।

रक्तचाप विनिश्चय में जहां उपरोक्त ग्रह राशि व भाव का अध्ययन आवश्यक प्रतीत होता है पर उससे पूर्व हमें कालपुरूष के सापेक्ष राशि पुरूष का अध्ययन आवश्यक है, क्योंकि कालपुरूष प्राकृत है और राशि पुरूष वैकृत। चिकित्सा परिभाषा के अनुसार वैकृत को प्राकृत करना ही चिकित्सा है। रक्तचाप विनिश्चय से पूर्व द्वितीय द्रेष्यकाण का अध्ययन भी आवश्यक है।

स्त्रियों में हृदय बाएं भाग में न होकर मध्य में होता है इसलिए स्त्रियों के संदर्भ में यह विनिश्चय भी आवश्यक है। यदि तृतीय, चतुर्थ व पंचम भाव में शुभ ग्रह देखते हों, इन भावों के स्वामी बलवान हों, तो शरीर में इन तीनों भावों से संबंधित अवयव पुष्प व सुंदर होंगे। रक्तचाप की संभावना नहीं होगी। लग्नेश का नीच राशि में होना व्याधि का सूचक है। क्रूर षष्ठयांश में स्थित ग्रह का अध्ययन भी इस हेतु आवश्यक है।

नक्षत्र: ज्योतिष शास्त्र में शरीर के प्रत्येक भाग के नक्षत्र बताए गए हैं। हृदय का अनुराधा नक्षत्र है। अनुराधा नक्षत्र का ग्रह शनि है जिसके अन्य नक्षत्र पुष्य एवं उत्तरभाद्रपद हैं। हृदय रोग - रक्तचाप के अध्ययन में अनुराधा नक्षत्र की उपादेयता प्रकट होती है। चिकित्सा: सामान्यतः जिस ग्रह की महादशा अंतदर्शा में रोग होता है उस ग्रह से संबंधित देवता के अराधना से व्याधि शांत होती है।

रक्तचाप में विशेष रूप से रूद्राक्ष ;म्संमवबंतचने ळंदपजतनइ त्वगइद्ध का धारण विशेष लाभदायक है। इसमें भी विशेष रूप से तीनमुखी रूद्राक्ष धारण अपेक्षित है। रूद्राक्षादिघनवटी का अंतःप्रयोग भी रक्तचाप में किया जाता है। महामृत्युंजय मंत्र का प्रयोग विशेष रूप से लाभप्रद होता है। आयुर्वेद मत से रक्तपित्त हर चिकित्सा, विरेचन, उपवास, रक्तमोक्षण लाभप्रद होता है।

वाक्यों के चक्राधारित अर्थ

1. त्र्यंबकम: भूत शक्ति, भवेश, मूलाधार चक्र में स्थित।

2. यजामहे: शर्वाणी शक्ति, सर्वेश, स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित।

3. सुगंधिम: विरूपा शक्ति, रुद्रेश, मणिपुर चक्र में स्थित।

4. पुष्टिवर्धनम: वंशवर्धिनी शक्ति, पुरुशवरदेश, अनाहत चक्र में स्थित।

5. ऊर्वारूकमिव: उग्रा शक्ति, उग्रेश, विशुद्ध चक्र में स्थित।

6. बंधनान: मानवती शक्ति, महादेवेश, आज्ञा चक्र में स्थित।

7. मृत्योर्मुक्षीय: भद्रकाली शक्ति, भीमेश, सहस्रदल चक्र में स्थित।

8. मामृतात्: ईशानी शक्ति, ईशानेश, सहस्रदल चक्र में स्थित।


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