एक बात सदा ध्यान में रखना- जो आमतौर से समझा जाता है, वह आमतौर से गलत होता है। भीड़ के पास सत्य नहीं है - कभी नहीं रहा। सत्य सदा व्यक्तियों में घटता है- और उनमें ही घटता है, जो अपूर्व रूप से अपनी पात्रता निर्मित करते हैं। विरले व्यक्तियों में घटता है। भीड़ तो कामचलाऊ बातों को मानकर चलती रहती है। भीड़ तो उधार को मानकर चलती रहती है। भीड़ तो झूठे पर भरोसा रखती है। इसलिए दुनिया में सभी भीड़ों के अलग-अलग नाम हैं। किसी भीड़ को हम कहते हैं हिंदू; किसी भीड़ को हम कहते हैं मुसलमान; किसी भीड़ को हम कहते हैं ईसाई। जीसस के पास सत्य था, ईसाइयत के पास नहीं।
कृष्ण के पास सत्य था, हिंदू के पास नहीं। हिंदू तो कृष्ण को मान लिया है; कृष्ण ने जो कहा, उसे स्वीकार कर लिया है। हिंदू ने स्वयं अनुभव नहीं किया। स्वयं अनुभव करे तो कृष्ण हो जाए। दूसरे का मान ले तो हिंदू हो जाता है, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध। और ध्यान रखना - जो सत्य स्वयं नहीं जाना है, वह सत्य नहीं हो सकता। मेरा जाना हुआ मेरा है। मैं तुम्हें कहूं, तुम सुन भी लो; शब्द से, बुद्धि से समझ भी लो - फिर भी तुम्हारे लिए सत्य नहीं होगा। तुम्हारे लिए तो शब्द-मात्र होंगे; शास्त्र-मात्र होगा। तुम्हारे लिए सिद्धांत-मात्र होगा, सत्य नहीं। सत्य तो प्राणों की गहराई में अनुभव हो, तभी होता है। तुम्हारे लिए बात उधार होगी।
जैसे किसी ने प्रेम किया और उसने तुम्हें प्रेम की बातें कहीं, तुमने सुनीं, समझीं भी; फिर भी क्या तुम प्रेम समझ पाओगे? प्रेम तो अनुभव है। तुम तोते की तरह दोहराने लगोगे उन बातों को। तोते बन जाओगे, पंडित बन जाओगे। सभी पंडित तोते होते हैं। थोड़ी-बहुत तुम्हारे पास सूचनाओं की संपदा हो जाएगी। तुम्हारे अहंकार में थोड़े आभूषण लग जाएंगे। लेकिन तुम्हें प्रेम का अनुभव होगा? जल के संबंध में लाख पढ़ो, लाख सुनो; जब तक पीया न हो तब तक जल का गुण समझ में न आएगा। और ध्यान रखना-पीने पर भी तभी समझ में आएगा जब गहरी प्यास हो। अगर प्यास न हो और कोई जबरदस्ती तुम्हें जल पिला दे तो तुम्हें वह तृप्ति अनुभव नहीं होती, ध्यान रखना। तृप्ति तो प्यास की त्वरा से होती है। जल तो माध्यम बनता है; लेकिन उसके पहले प्यास चाहिए। मैं तुममें सत्य डाल दूं, तो भी तुम्हारे जीवन में कहीं कुछ परिणाम नहीं होगा।
तुम प्यासे ही न थे। प्यासे न थे तो जल कैसे अनुभव में आया? हां, जल का शास्त्र समझ में आ सकता है। दुनिया में सत्य विरलों को उपलब्ध होता है। और ऐसा नहीं है कि सत्य ने कोई शर्त लगा रखी है कि विरलों को ही उपलब्ध होंगे। सत्य सभी को उपलब्ध हो सकता है-लेकिन विरले ही प्यासे होते हैं। सत्य सभी की संपदा हो सकती है। सत्य सभी का अधिकार है- जन्मसिद्ध अधिकार है; स्वरूपसिद्ध अधिकार है। लेकिन दावा करोगे, तब न ! घोषणा करोगे, तब न! दांव पर लगाओगे अपने को, तब न! तो आमतौर से जो माना जाता है, वह तो समझ लेना कि आमतौर से गलत ही होगा। भीड़ क्या मानती है, इससे बहुत मत उलझ जाना। भीड़ को कुछ भी पता नहीं है। भीड़ ने मानने की चिंता भी नहीं की है; खोज भी नहीं की है।
भीड़ ने तो औपचारिक रूप से मान लिया है। जिस भीड़ मंे तुमने अपने को पाया, वही तुम हो गए। मंदिर की तरफ जाती थी तो मंदिर चले गए; मस्जिद जाती थी तो मस्जिद चले गए। यह धार्मिक होने का उपाय नहीं है। धर्म को तो स्वेच्छा से चुनना होता है। समझो। तुम यहां मेरे पास बैठे हो, यह चुनाव है; क्योंकि यहां तुम किसी भीड़ के कारण नहीं आ गए हो। यहां तुम किसी परिवार में पैदा होने के कारण नहीं आ गए हो; किसी संस्कार के कारण नहीं आ गए हो। यहां तुम्हारी तलाश तुम्हें लाई है। और इस तलाश के लिए तुम्हें मूल्य चुकाना पड़ेगा। अगर तुम ईसाई हो तो ईसाई तुम पर नाराज होंगे। अगर तुम हिंदू हो तो हिंदू नाराज होंगे। तुम जिस भीड़ को छोड़कर यहां आ गए हो मुझे सुनने, वही भीड़ तुम पर नाराज होगी। भीड़ बाधाएं खड़ी करेगी। और भीड़ बड़ी बाधाएं खड़ी कर सकती है, क्योंकि रहना तो भीड़ के साथ है।