इस ब्रह्मांड के कण-कण में प्राण ऊर्जा प्रवाहित है। मनुष्य के अंदर व बाहर इसी प्राण ऊर्जा का विस्तार है। मानव इसी ऊर्जा से जन्म लेता है, इसी के सहयोग से बड़ा होता है तथा उसका संपूर्ण जीवन चक्र इसी ऊर्जा के अंतर्गत विकसित होता है।
इस प्राण ऊर्जा का अभाव ही रोगों को जन्म देता है तथा इसका लुप्त होना ही जीवन का अंत है। यह प्राण ऊर्जा ही समस्त चराचर जीवों के प्राणों का सार है। संभवतः इस सृष्टि की रचना इसी प्राण ऊर्जा के द्वारा हुई होगी।
यह विश्वव्यापी जीवन शक्ति कई नामों से संबोधित की जाती है। इसे जापानी भाषा में ‘‘रेकी’’, चीनी भाषा में ‘‘ची’’, पश्चिमी देशों में ‘‘लाइट’’ अथवा ‘‘होली स्पिरिट’’, रूसी में ‘‘बायोप्लाज्मिक’’ तथा हिंदी में इसे ‘‘प्राण-ऊर्जा’’ के नाम से जाना जाता है।
संसार का प्रत्येक मानव एकाग्रता, शांति, आत्म-जागृति और स्वस्थ व सुखमय जीवन के लिए सदैव उत्सुक और प्रयासरत रहता है। शरीर को स्वस्थ व निरोग रखने के लिए विश्व में विविध प्रकार की उपचार पद्धतियों का विकास हुआ जिनका एक मात्र लक्ष्य है रोगों का निदान करके शरीर को स्वास्थ्य प्रदान करना।
इन सभी उपचार पद्धतियों में रोग-निरीक्षण एवं रोग निदान की प्रक्रिया को अपनाया जाता है। कुछ पद्धतियों में किसी भी प्रकार की औषधि का प्रयोग किए बिना ब्राह्मांडीय ऊर्जा तथा शरीर में परिभ्रमित प्राण ऊर्जा पर ही काम किया जाता है। इनमें विशेषज्ञ अपनी संकल्प व चेतना शक्ति द्वारा रोगी पर प्राण-ऊर्जा के प्रवाह द्वारा कार्य करके रोगों का निदान करता है।
इस प्रकार की उपचार पद्धतियों में ‘‘रेकी’’, ‘‘प्राणिक-उपचार’’, ‘‘एक्यूप्रेशर’’, ‘‘मंत्र-चिकित्सा’’, फेंग-शुई’’ आदि प्रमुख हैं। इनमें उपचारक ब्रह्मांड में उपलब्ध चैतन्य शक्ति (प्राण ऊर्जा) की तरंगों को रोगी के शरीर में सुव्यवस्थित ढंग से प्रवाहित करके रोगों का उपचार करता है।
इसके लिए प्रवाहक अपनी संकल्प शक्ति व स्पर्श का प्रयोग करता है। इन उपचार पद्धतियों को ‘‘वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धति’’ की श्रेणी में रखा जाता है। प्राण ऊर्जा के द्वारा शरीर और मन तथा चेतना की प्रक्रिया को संतुलित करके बीमारियों से पूर्ण मुक्ति तथा संपूर्ण स्वास्थ्य एवं प्रसन्नता को प्राप्त किया जा सकता है।
शरीर में प्राण ऊर्जा संतुलित एवं लयबद्ध रूप से परिक्रमा करती रहती है तथा यही मनुष्य के जीवन का सार एवं उसका आधार भूत तथ्य है। यह शक्ति एवं वैचारिक क्षमताओं में वृद्धि करने के साथ-साथ मानवीय गुणों को विकसित करने में भी अपूर्व सहयोग प्रदान करती है। जब कभी वाह्य या किन्हीं आंतरिक कारणों से शरीर में परिभ्रमित प्राण ऊर्जा में असंतुलन पैदा हो जाता है, तो इसके फलस्वरूप शरीर की प्रतिरोधक क्षमता का घटना और बीमारियों का उत्पन्न होना आरंभ हो जाता है।
बीमारी का कारण समझने के लिए शरीर के बाहर और अंदर की स्थिति को भी समझना चाहिए तथा दृश्य अदृश्य कारणों का मंथन करना चाहिए। बाहर के कारणों का तात्पर्य उन भौतिक कारणों से है जिनकी वजह से बीमारी हुई है। जैसे कीटाण् ाु, कुपोषण, विषाणु युक्त प्रदूषित पदार्थ, व्यायाम की कमी, वायुमंडल में प्रदूषण तथा शुद्ध वायु एवं आॅक्सीजन की कमी और पानी कम पीना आदि।
आंतरिक कारणों से तात्पर्य है शारीरिक अवयवों का ठीक प्रकार से कार्य न करना, पेट से संबंधित रोग, भावनात्मक एवं मानसिक कारण आदि। इनके कारण विभिन्न शक्ति-चक्रों का कमजोर होना या चक्रों में अत्यधिक शक्ति का एकाएक एकत्रित हो जाना आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं।
सांस लेने के समय आॅक्सीजन तथा दूसरी गैसें एवं रासायनिक पदार्थ, जो वायु के रूप में फेफड़ों में जाते हैं, कुछ अंश में सोख लिए जाते हैं तथा शेष सांस के साथ बाहर आ जाते हैं। सोख ली गई गैसों को ‘‘स्पेक्ट्रम-एनालिसिस’’ द्वारा जाना जा सकता है।
रंगीन प्रकाश पंुज, जो प्राण वायु का रूप है, शोषित गैसों का ही अभिन्न हिस्सा होता है। इसी प्रकार हमारे खाद्य पदार्थों का वह भाग जो पाचन क्रिया के द्वारा तरल रूप में सोख लिया जाता है, हमारी जीवन ऊर्जा का स्रोत है। इस प्रकार जल, वायु, ताप व भोजन के द्वारा जो ऊर्जा, किरण-रश्मियों एवं प्राण वायु के द्वारा शरीर में शोषित की जाती है, उसका लगातार उत्सर्जन भी होता रहता है।
इस प्रकार ये उत्सर्जित किरणें शरीर के चारों तरफ एक कंबल की तरह लिपटी रहती हैं और जीव विशेष के आभा मंडल या प्रभा मंडल के रूप में जानी जाती हैं। यह आभा मंडल शरीर के बाहर ढाई से चार इंच की मोटाई में परिव्याप्त रहता है जिसे अनुभव द्वारा ज्ञात किया जा सकता है। मृतक के शव पर यह आभा मंडल नहीं होता क्योंकि यह आभा मंडल जीवित प्राणी की ऊर्जा का ही उत्सर्जन है।
आभा मंडल का चित्र, हाई वोल्टेज इलेक्ट्रो फोटोग्राफी तकनीक से गैस डिस्चार्ज विजुअलाइजेशन मशीन द्व ारा लिया जा सकता है क्योंकि यह अदृश्य रूप में रहता है। पूर्ण रूप से स्वस्थ व्यक्ति का आभा मंडल संतुलित, एक सरीखा तथा प्रभावी दिखाई पड़ता है जबकि बीमार व्यक्ति का आभा मंडल कटा-फटा एवं निष्प्रभावी होता है।
यह कटा-फटा आभा मंडल बीमारी से प्रभावित अंगों में ऊर्जा का असंतुलन दर्शाता है। इस आभा मंडल को ऊर्जा-शरीर भी कहते हैं। हमारे तीन शरीर हैं - सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर और कारण शरीर। सूक्ष्म शरीर (आत्मा) अति सूक्ष्म व अदृश्य है। यह आत्मा ही चेतना का उत्सर्जन करती है जिसे प्राण भी कहा जाता है। स्थूल शरीर हमारा यह दृश्य शरीर है।
यह शरीर ही हमारे क्रिया-कलापों का केंद्र है जिसमें शक्ति संचित है। यह सूक्ष्म शरीर को धारण करता है तथा अदृश्य रूप में कारण शरीर का भी केंद्र है। सूक्ष्म शरीर की उत्सर्जित चेतना अथवा प्राण के कारण यह जीवित रहता है। प्राण ऊर्जा के अशक्त होने से शरीर में प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है तथा रोगों का जन्म होता है।
कारण शरीर अदृश्य रूप में स्थूल शरीर के बाहर उससे लिपटा रहता है। इस कारण शरीर पर मानसिक एवं भावनात्मक विचार प्रभाव डालते रहते हैं और यह इन सबको स्थूल शरीर म ंे पत््र यावतिर्त कर दते ा ह।ै कछु विद्वान इसे मानसिक एवं भावनात्मक शरीर भी कहते हैं। किसी भी प्रकार की क्षति अथवा वाह्य या आंतरिक कारण पहले कारण शरीर पर प्रभाव डालता है जिससे आभा मंडल क्षति ग्रस्त हो जाता है तथा यह प्रभाव स्थूल शरीर पर प्रत्यावर्तित होकर उसे रुग्ण बना देता है।
हमारा कारण शरीर एक कवच की भांति स्थूल शरीर का एक प्रकार का आवरण है और जहां यह एक ओर मानसिक व भावनात्मक विचारों से प्रभावित होता है वहीं दूसरी ओर निरंतर ब्रह्मांडीय ऊर्जा से निकट संपर्क में रहता है। इस कारण ब्रह्माण् डीय-ऊर्जा में विद्यमान नकारात्मक एवं सकारात्मक ऊर्जाएं निरंतर कारण एवं स्थूल शरीर को प्रभावित करती रहती हैं।
स्थूल शरीर पर रोगों का प्रभाव, शरीर के किसी स्थान विशेष पर नकारात्मक ऊर्जा के जमाव को दर्शाता है। इसमें शरीर की प्रतिरोधक क्षमता का ह्रास हो जाता है तथा शरीर के अंदर स्वाभाविक गति से प्रभावित होने वाले ऊर्जा पथ में अवरोध आ जाता है जिसे स्थानीय ऊर्जा चक्र प्रदर्शित कर देते हैं। आध्यात्मिक उपचारक उस स्थानीय चक्र पर एकत्रित नकारात्मक ऊर्जा को झाड़ कर उसे दैवीय अग्नि में भस्म कर देता है अथवा अंतरिक्ष में प्रवाहित कर देता है।
इस प्रक्रिया में वह निरीक्षण करता हुआ यह पता करता रहता है कि वह चक्र नकारात्मक ऊर्जा के जमाव से मुक्त हुआ अथवा नहीं। फिर उसके बाद वह सकारात्मक ऊर्जा के प्रक्षेपण से उस चक्र को स्वस्थ एवं स्वाभाविक दशा में ले आता है। ये सभी क्रियाएं अदृश्य रूप में होती हैं जिनमें प्रवाहक अपने स्वयं के चक्रों एवं संकल्प शक्ति का प्रयोग करता है।
केवल स्पर्श की क्रिया ही दिखाई देती है जिसमें वह स्थानीय एक या उससे अधिक चक्रों को स्पर्श करता है तथा शेष सभी क्रियाएं अदृश्य ही होती हैं। स्थूल शरीर के ऊर्जा पथ पर विद्यमान ऊर्जा चक्र, जो एक प्रकार से ऊर्जा परिभ्रमित पथ पर स्थापित एक ‘जंक्शन स्टेशन’ की भांति कार्य करते हैं, उस स्थान विशेष की ऊर्जा उत्सर्जन की स्थिति को दर्शाते हैं। ये ऊर्जा चक्र योग शास्त्र में वर्णित हैं जो आधुनिक शरीर विज्ञान की पकड़ से बाहर हैं और मुख्य रूप से सात हैं।
किंतु आध्यात्मिक उपचारक आठ प्रमुख तथा अन्य सहायक चक्र मानते हैं। शरीर में ऊपर से नीचे की ओर आठ चक्र इस प्रकार हैं- सहस्त्रासार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, सौर, मणिपुर, स्वाधिष्ठान एवं मूलाधार आठवां चक्र। यह सभी चक्र स्थान विशेष एवं पंच तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
इन चक्रों से ऊर्जा के अवरोधन अथवा अत्यधिक उत्सर्जन की स्थिति का पता चल जाता है तथा उस स्थान विशेष का पता लग जाता है जिसके ऊपर किसी रोग का प्रभाव है। उपचारक उस चक्र विशेष पर ऊर्जा के नकारात्मक प्रभाव को हटाकर, सकारात्मक ऊर्जा का प्रेक्षपण करता है जिससे वह स्थान रोग मुक्त एवं स्वस्थ हो जाता है।
इसी क्रम में यह विधि बार-बार दोहराई जाती है जो रोग की अवधि व उसकी तीव्रता पर निर्भर करती है। कभी-कभी इसमें तत्काल प्रभाव दिखाई देने लगता है और कभी-कभी कई दिन व माह भी लग जाते हैं। एक बार में इस उपचार में दस मिनट से 60 मिनट तक का समय लग जाता है जिसे उपचारक ही निर्दिष्ट करता है।
इस उपचार विधि के उपचारक को आध्यात्मिक गुरु कहा जाता है जिसमें सदाचार, परोपकारिता, परमात्मा में भक्ति, दया के भाव एवं अन्य कई प्रकार के दैवीय गुणों का होना आवश्यक है। दूसरों के प्रति प्रेम, करुणा, निःस्वार्थ सेवा आदि भावों से पूरित व्यक्ति ही इस ब्रह्मांडीय ऊर्जा का सफल प्रवाहक एवं सम्प्रेषक बन पाता है। जब कोई प्रवाहक, रोगी पर इस ऊर्जा का प्रयोग करता है, तो वह रोगी और इस ब्रह्मांडीय ऊर्जा के मध्य एक माध्यम के रूप में कार्य करता है।
प्रवाहक अपनी संकल्प शक्ति एवं स्पर्श से इस ऊर्जा का प्रक्षेपण करता है, जिसमें यह ऊर्जा उसके आज्ञा चक्र से शरीर में प्रवेश करके उसकी हथेली के माध्यम से रोगी के शरीर में प्रवाहित होने लगती है। प्रवाहक अपनी संकल्प शक्ति से रोगी के ऊर्जा शरीर पर तथा अपने स्पर्श द्वारा रोगी के स्थूल शरीर पर, ऊर्जा का प्रक्षेपण करता है तथा कभी-कभी आवश्यकतानुसार अपने आज्ञा चक्र के अतिरिक्त विशुद्धि चक्र एवं मूलाधार चक्र का भी प्रयोग करता है।
ब्रह्मांडीय ऊर्जा, प्रज्ञावंत होने के साथ-साथ, विशुद्ध एवं सात्विक प्रेम का असीम भंडार है, जो कभी समाप्त नहीं होता। यह हमारी क्षमताओं में वृद्धि करने के अतिरिक्त जीवन में मानवीय सद्गुणों को विकसित करने में भी अपूर्व सहयोग प्रदान करती है। स्वभावतः इस ऊर्जा शक्ति का भंडार हमारे अंदर जन्म से ही होता है किंतु वैचारिक प्रदूषण के कारण इस ऊर्जा से हमारा संबंध विच्छेद होने लगता है।
परंतु जब कोई व्यक्ति गुरु रूप में अपनी संकल्प शक्ति से अथवा शक्ति पात क्रिया से इस सुषुप्त ऊर्जा को पुनः जाग्रत कर देता है तो यह संपर्क पुनः स्थापित हो जाता है तथा निरंतर अभ्यास से, विचारों की पवित्रता और सात्विकता के चलते आजीवन बना रह सकता है। एक ऊर्जा प्रवाहक रोग निदान के लिए, इस ब्रह्मांडीय ऊर्जा का प्रयोग करके, किसी समय विशेष पर शरीर में हुई ऊर्जा की क्षति को पूरा करता है। इस समग्र विश्व की संरचना एवं उसके अस्तित्व के पीछे यही ब्रह्मांडीय ऊर्जा सतत् क्रियाशील है।
यह पद्धति सरल एवं दुष्प्रभावों से रहित है तथा अत्यंत प्रभावशाली है जिसमें किसी भी प्रकार की हानि एवं प्रतिकूलता की संभावना नहीं है। ब्रह्माण्डीय ऊर्जा में शरीर की रासायनिक ग्रंथियों, शारीरिक अवयवों, स्नायुओं और अस्थियों की सृजनात्मक प्रक्रिया को सुचारू रूप से संतुलित करने की अपूर्व क्षमता है। यह शरीर के विजातीय तत्वों को पूर्ण रूप से निष्प्रभावी करके, प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करती है जिससे रोग की पुनरावृत्ति नहंीं हो पाती।
वस्तुतः यह चिकित्सा पद्धति रागे ा ंे को अल्प समय के लिए दबाती नहीं है, अपितु उन्हें उनके कारणों सहित पूर्ण रूप से निर्मूल कर देती है। इसमें रोगी के साथ-साथ, उपचारक को भी लाभ होता है क्योंकि वह उपचार की अवधि में स्वयं भी इस ब्रह्मांडीय ऊर्जा के संपर्क में होता है। ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का उपयोग दूरस्थ समस्याओं के निदान के लिए भी समान रूप से किया जा सकता है।
इसके द्वारा रोगी की अनुपस्थिति में भी उसका उपचार एवं समस्याओं का समाधान उतने ही प्रभावशाली ढंग से किया जा सकता है जितने कि उसकी उपस्थिति में। इसमें स्थान की दूरी कोई महत्व नहीं रखती। ब्रह्मांडीय ऊर्जा का प्रयोग पौधों एवं पशुओं के हितार्थ भी किया जा सकता है।
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