सृष्टि की उत्पŸिा एवं प्राणी का जन्म आज तक रहस्यमय बना हुआ है। कोई निश्चित सिद्धांत आज तक इस समस्या के समाधान हेतु सर्व सम्मति से नहीं बन पाया है। चरम शिखर पर पहुंचे विज्ञान के पास आज भी कई अनसुलझे प्रश्न हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि ज्ञान या विज्ञान एक निश्चित सीमा पर जा कर खत्म हो जाता है। किसी भी विषय पर विज्ञान एक निश्चित सीमा तक ही जानकारी रखता है एवं उसके पश्चात् की जानकारी या तो नहीं होती या वह खामोश हो जाता है, क्योंकि विज्ञान ने यहीं तक का सफर तय किया है।
मनुष्य के जीवित रहने के उस रहस्य, जिसे हम ‘‘प्राण’’ कहते हैं, के संबंध में जानकारी आज तक नहीं हो पाई। यह प्राण क्या है? शरीर में इसका वास कहां है? प्राण एक तत्व है जिसके निकल जाने पर शरीर के अंग अपना कार्य करना बंद कर देते हैं और तब हम कहते हैं, वह मर गया। हम पूर्णतः ईश्वर एवं प्रकृति पर निर्भर हैं। विज्ञान का अंत है, किंतु अध्यात्म अनंत है। इसे थोड़ा और विस्तार देते हुए हम यह कह सकते हैं कि अपने शरीर की रक्षा जितनी हम प्राकृतिक रूप से कर सकते हैं
उतनी कृत्रिम रूप से नहीं। वास्तव में अनंत प्रकृति के अनुसार प्राण की सुरक्षा करना ही ‘‘सूर्य-चिकित्सा’’ है। चिकित्सा की विभिन्न वैकल्पिक प्रणालियों में सूर्य किरण चिकित्सा का अपना अलग स्थान है। इस प्रणाली में रोगी की चिकित्सा सूर्य की रश्मियों से की जाती है। सूर्य शक्ति का पंुज है, जीवन का प्रतीक है। हिंदू धर्म ग्रंथों में सूर्य को ईश्वर का स्थान दिया गया है। समस्त मानव जाति आदि काल से ही उसकी पूजा अर्चना करती रही है। आदि काल में चिकित्सा की कोई वैज्ञानिक प्रणाली नहीं थी। तब अपने कष्टों से मुक्ति पाने के लिए लोग सूर्य को हाथ उठाते थे और प्रायः तभी से शुरू हई सूर्य चिकित्सा। समय-समय पर इसमें खोज एवं शोध होते रहे और आज भी हो रहे हैं।
जैसा कि ऊपर बताया गया है, सूर्य चिकित्सा का इतिहास बहुत प्राचीन है। यह चिकित्सा की यह प्रणाली सर्वप्रथम भारत में विकसित हुई और फिर मिश्र, यूनान, चीन, ईरान आदि विभिन्न देशों से होती हुई अमेरिका एवं इग्लैंड जैसे अति विकसित देशों में पहुंची जहां यह अत्यंत लोकप्रिय होने लगी है। आज इक्कीसवीं सदी के इस युग में इस प्रणाली के प्रति लोगों का आकर्षण एक बार फिर से बढ़ने लगा है। इसके चमत्कारिक परिणामों एवं सहज उपलब्धता के कारण यह प्रणाली दिनानुदिन लोकप्रिय होती जा रही है।
इस बढ़ती लोकप्रियता के फलस्वरूप संभव है, आने वाले कुछ ही समय में यह चिकित्सा जगत् में सर्वोपरि हो जाए। किंतु विडंबना यह है कि इसकी सरलता को देखते हुए लोगों को इस चिकित्सा प्रणाली पर विश्वास नहीं होता। वर्तमान समय में लोग हर बात को तर्क की कसौटी पर कसते हैं और उसका वैज्ञानिक आधार खोजते हैं।
जब वह बात तर्क संगत एवं वैज्ञानिक आधार पर खरी उतरती है तभी वे उस पर विश्वास करते हैं। ऐसे में आज के युग में प्रामाणिकता अनिवार्य हो गई है। जबकि हजारों ऐसी बातें हैं जिनका प्रमाण देना संभव नहीं है, उनका आधार सिर्फ अनुभव एवं परंपरा हुई है। प्राचीन काल में इस चिकित्सा का कोई वैज्ञानिक आधार खोजा नहीं गया था। उन दिनों लोग यह चिकित्सा सिर्फ धर्म और अनुभव के आधार पर करते थे।
अतः उन दिनों इस चिकित्सा का विशेष प्रचार प्रसार नहीं हो पाया। किंतु आज इस चिकित्सा पद्धति का जो स्वरूप सामने आया है उसका विकास अमेरिका, इग्लैंड आदि पश्चिम के देशों में अधिक हुआ है। अब एलोपैथिक चिकित्सा के प्रति वहां के लोगों का भी मोह भंग होने लगा। वे भी अब वैकल्पिक चिकित्सा को अपनाने लगे हैं।
मजदूर दिन भर खेतों में या रास्तों पर काम करते हैं, तेज धूप के कारण उनकी त्वचा जल कर काली पड़ जाती है, फिर भी वे आम आदमियों से अधिक स्वस्थ एवं ताकतवर होते हैं, जबकि उन्हें न तो भर पेट भोजन मिलता है न ही कोई स्वास्थ्यवर्धक पदार्थ। इसके ठीक विपरीत जो लोग वातानुकूलित कमरों में बैठ कर भर पेट स्वास्थ्यवर्धक भोजन करते हैं, दूध, मलाई, घी, मक्खन आदि का सेवन करते हैं, उनकी शारीरिक क्षमता अपेक्षाकृत कम होती है। उन्हें बीमारियां भी अधिक होती हैं। इसका मुख्य कारण सिर्फ धूप का अभाव है।
प्रायः सभी लोग किसी न किसी रूप में धूप का सेवन करते हैं पर वैज्ञानिक जानकारी की कमी के कारण इसका उचित लाभ उन्हें नहीं मिल पाता। अर्थात् उन्हें सूर्य की किरणें प्राप्त तो होती हैं पर वे शरीर की आवश्यकता के अनुरूप ऊर्जा नहीं दे पातीं। आम तौर पर प्राणी निरोग जन्म लेते हैं। किंतु आज प्रकृति से दूर होते जाने के कारण लोगों को नई-नई बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है।
एक प्राचीन कहावत है- पहला सुख निरोगी काया। यदि शरीर स्वस्थ नहीं हो तो संपूर्ण संपन्न्ाता निरर्थक हो जाती है। मानव का प्रथम लक्ष्य होना चाहिए स्वास्थ्य रक्षा के नियमों को समझना एवं उनका पालन करना न कि रोगी होकर स्वास्थ्य रक्षा के नियमों को समझना और उनका पालन करना। चालीस वर्ष की उम्र के बाद हमें रात्रि में भोजन नहीं लेना चाहिए बल्कि कुछ हल्का सा सात्विक भोजन जैसे दूध, थोड़ी सी खीर आदि का सेवन करना चाहिए। ऐसा करने से हम स्वयं फुर्तीला एवं स्वस्थ अनुभव करेंगे। स्वास्थ्य रक्षा के नियमों में वायु, श्रम, आहार एवं जल अनिवार्य हैं, तो कुछ परहेज भी जरूरी है।
अच्छे स्वास्थ्य के लिए सभी प्रकार के नशीले पदार्थों का त्याग करना चाहिए क्योंकि ये दिमाग की स्नायुओं पर कुप्रभाव डालते हैं। ये पदार्थ वास्तव में दिमाग को सुप्त एवं स्नायुओं को उŸोजित कर देते हैं, जिसके फलस्वरूप दिमाग के न्यूराॅन्स में खराबी आ जाती है और मनुष्य धीरे-धीरे निस्तेज होने लगता है।
वह अपनी सोचने की शक्ति को खो बैठता है। प्राण शक्ति के जागृती करण से समस्त रोगों का उपचार हो जाता है। इसके लिए सूर्य किरण चिकित्सा प्रणाली का सहारा लिया जा सकता है।
सूर्य की विशेषताएं:
- कोई साइड इफेक्ट नहीं होता।
- लंबे समय तक या बार-बार के इलाज से शरीर अर्थात इम्यून नहीं हो होता।
- इसमें बीमारी दबाई नहीं जाती बल्कि सिस्टम को दुरुस्त किया जाता है।
- यहां एक प्राकृतिक उपचार है जिसके फलस्वरूप कोई बीमारी बार-बार नहीं होती। इस चिकित्सा से अनिद्रा, अवसादख् तनाव, पागलपन, माइग्रेन, पारकिंसन रोग, मिरगी आदि से बचाव होता है।
इसके अतिरिक्त स्मरण शक्ति तथा दिमाग की कोशिकाएं पुष्ट होती हैं। वहीं बच्चों के दिमाग का समुचित विकास होता है। यह चिकित्सा कील-मुंहासों और फोड़े-फुंसियों से बचाव में भी सहायक होती है। यह थाइराॅइड की बीमारी साइनस, दमा, टी. बी. आदि से भी हमें बचाती है।
स्पौंडलाइटिस, आॅस्टियो आर्थराइटिस, गठिया, शियाटिका, घुटने के दर्द एवं उनकी निर्बलता, पीठ दर्द, कमर दर्द, रीढ़ के अंतिम छोर पर दर्द, पसलियों में दर्द आदि के इलाज में भी यह लाभदायक होती है।
- इस चिकित्सा से पेट दर्द, हाजमे की समस्या, एसिडिटी, अलसर, पेट में कीड़े आदि से भी बचाव हो सकता है।
- यह लकवा, पोलियो, मांसपेशी की कमजोरी आदि के इलाज में अत्यंत लाभदायक होती है। कोई बात नहीं। इस्तेमाल करें सूर्य किरण चिकित्सा।
- यह उपचार नियमित रूप से करते रहने से थकान, बदन दर्द आदि से मुक्ति तथा किसी अंग के जल होने पर उसके जलन से राहत मिलती है।