आत्मा की स्वयंसिद्धिता का विचार, वेदांत की भारतीय दर्शन को एक अप्रतिम देन है। आत्म तत्व के निरूपण के उपरांत आचार्य शंकर मोक्ष के साधन की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि जीव अपने स्वरूप के विषय में मिथ्या ज्ञान के कारण ही इस संसार के अनंत क्लेशों का भागी बनता है। रतीय धर्म ग्रंथों-शास्त्रों में ऐसा वर्णन है कि ज्योतिष शास्त्र ही एक ऐसा विज्ञान है जो सर्वज्ञता प्रदान कर सकता है और इस विज्ञान से ही मनुष्यों के धर्म की सिद्धि हो सकती है अर्थात मानवमात्र निःश्रेयस अभ्युदय सिद्धि को प्राप्त हो सकता है। ‘‘यस्य विज्ञान मात्रेण धर्मसिद्धिर्भवेन्नृणाम्’’ क्यों न हो ऐसा जिस शास्त्र के उपदेष्टा साक्षात् सृष्टिकर्ता वेदमूर्ति ब्रह्मा ही हों ‘‘ज्योतिषांग प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ब्रह्मणा पुरा।’’ चतुर्लक्ष श्लोकों में वर्णित ज्योतिष शास्त्र त्रिस्कंध है- गणित (सिद्धांत) जातक (होरा) और संहिता।
त्रिस्कन्धं ज्योतिषं शास्त्रं शास्त्रं चतुर्लक्षमुदाहृतम्। गणितं जातकं विप्र संहितास्कन्ध संज्ञितम।। गणित में परिकर्म अर्थात योग, अंतर, गुणन, भजन, वर्ग, वर्गमूल घन और घनमूल, ग्रहों के मध्यम एवं स्पष्ट करने की रीतियां बताई गई हैं। इसके अतिरिक्त अनुयोग (देश, दिशा और कालज्ञान, चंद्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, उदय, अस्त, छायाधिकार चंद्र शृड़ोन्नति, ग्रहयुति तथा महापात सूर्यचंद्रमा के क्रांति साम्य का साधन-प्रकार कहा गया है। जातक स्कंध में राशि भेद, ग्रह योनि (ग्रहों की जाति रूप और गुण आदि) वियोनिज(मानवेतर जन्मफल) गर्भाधान जन्म अरिष्ट आयुर्दाय दशाक्रम कर्माजीव (आजीविका) अष्टकवर्ग राजयोग, नाभस योग, चन्द्र योग, प्रव्रज्या योग, राशिशील ग्रह दृष्टिफल ग्रहों का भाव फल, आश्रय योग, प्रकीर्ण, अनिष्ट योग, स्त्री जातक फल, निर्याण (मृत्यु विषयक विचार) अज्ञात जन्म काल जानने का प्रकार तथा द्रेष्काणों के स्वरूप का व्यापक वर्णन है।
संहिता स्कंध में ग्रहचार (ग्रहों की गति), वर्ष लक्षण, तिथि, दिन, नक्षत्र, योग, करण, मुहूर्त, उपग्रह, सूर्य संक्रांति ग्रह गोचर, चंद्रमा और तारा का बल, संपूर्ण लग्नों तथा ऋतु दर्शन का विचार गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म नामकरण, अन्न प्राशन, चूड़ाकरण, कर्णवेध, उपनयन, मौंजी त्रन्धन, वेदारम्भ, समावर्तन, विवाह, प्रतिष्ठा गृह लक्षमण यात्रा गृह प्रवेश सद्यः वृष्टि ज्ञान कर्म वैलक्षण्य तथा उत्पत्ति का लक्षण विशद प्रकार से वर्णित है। षडांग वेद ज्योतिष शास्त्र का विवेच्य ग्रहों का अध्यात्म क्रमशः ‘‘सूर्यात्मा जगतस्थुषश्च’’ ग्रह राज सूर्य देव काल पुरुष की आत्मा है। मन का कारक चंद्रमा, मंगल पराक्रम, बुध वाणी, गुरु ज्ञान एवं सुख, शुक्र कार्य और शनैश्चर दुःख...। आत्म तत्व का निरूपण करके जीव जगत में सोपाधिक क्लेशों का सर्वांत करना सभी उपनिषदों का भी लक्ष्य रहा है। ‘‘आत्मा’’ स्वयं सिद्ध है वह सूर्य सदृश किसी प्रकाश की अपेक्षा नहीं रखता। आद्य शंकराचार्य ने अपने प्रस्थानत्रयी भाष्य में इसी आत्म तत्व का व्यापक प्रकाश किया ज्योतिष शास्त्र का आदित्य ग्रह राज वेदांत में आत्म तत्व से ध्वनित है।
आदित्य वर्णं तमसः परस्तात्... आत्मा की स्वयंसिद्धिता का विचार, वेदांत की भारतीय दर्शन को एक अप्रतिम देन है। आत्म तत्व के निरूपण के उपरांत आचार्य शंकर मोक्ष के साधन की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि जीव अपने स्वरूप के विषय में मिथ्या ज्ञान के कारण ही इस संसार के अनंत क्लेशों का भागी बनता है। वह शुद्ध, मुक्त सच्चिदानंद ब्रह्मस्वरूप ही है। जब तक नानात्वबोध समाप्त नहीं होगा, तब तक आनंदरूप ब्रह्म की अपरोक्षानुभूति नहीं हो सकती। आचार्य शंकर तथा उनके योग्य शिष्य सुरेश्वर विशुद्ध ज्ञान को मुक्ति का एक मात्र साधन मानते हैं। कर्म तो मात्र सत्त्वशुद्धि का साधक होता है।
आत्मा के अनाप्य, अविकार्य तथा असंस्कार्य होने के कारण कर्म द्वारा उसकी निष्पत्ति हो ही नहीं सकती। अतः कर्म व्यर्थ है। सामान्यतया मलिन चित्त आत्मतत्व का बोध नहीं कर सकता, परंतु कामनाहीन नित्यकर्म के अनुष्ठान से चित्तशुद्धि उत्पन्न होती है जिससे बिना किसी बाधा के जीव आत्मा के स्वरूप को जान लेता है। आचार्य शंकर ने अपने महान ग्रंथ ‘‘विवेकचूड़ामणि’’ और ‘‘उपदेशसाहस्री में ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया का बड़ा ही विशद वर्णन किया है। वेदांत ज्ञान की प्राप्ति हेतु शिष्य को ‘साधनचतुष्टय’ से युक्त होना अपरिहार्य है। ‘साधनचतुष्टय’ शृंखला की पहली कड़ी नित्यानित्य वस्तु विवेक को माना गया है जिसका आशय यह है कि ब्रह्म ही केवल सत्य है, उससे भिन्न यह जगत अनित्य और मिथ्या है। साधक में इस विवेक का उदय मुक्ति पथ का प्रथम सोपान है द्वितीय कड़ी है।
इहामुंतार्थफल भोग विराग अर्थात इहलौकिक और परलौकिक समस्त फलों के भोग से उसे वैराग्य हो। तीसरी कड़ी शमदमादि साधन सम्पत है जिसमें शम, दम, उपरति, तितिक्षा, समाधान और श्रद्धा को शामिल किया गया है तथा मुमुक्षुत्व अर्थात मोक्ष पाने की उत्कट अभिलाषा होना इस शृंखला की अंतिम कड़ी है। इन सभी साधनों से युक्त होने पर शिष्य ब्रह्मज्ञानी गुरु के समीप जाकर आत्मा के संबंध में जिज्ञासु होता है। ब्रह्मज्ञानी सद्गुरु योग्य शिष्य को ‘तत् त्वमसि’ आदि महावाक्यों का उपदेश देता है। यह मनन, निदिध्यासन आदि योग-प्रक्रियाओं द्वारा अपरोक्ष रूप में बदल जाता है। अतएव गुरु के वचनों के श्रवण के पश्चात वाक्य के अर्थ का मनन तथा ध्यान, धारणा अथवा निरंतर अभ्यास अत्यंत आवश्यक होता है। इसी के पश्चात अपरोक्षानुभूति होती है।
‘तत् त्वमसि’ वाक्य सुनते ही अधिकारी शिष्य को ‘तुम स्वयं चेतन ब्रह्म हो-’ यह अर्थ ध्वनित होता है। इसी उपदेश पर निरंतर अभ्यास और निदिध्यासन करते हुए साधक को यह अनुभूति होती है कि मैं भी ब्रह्म हूं (अहं ब्रह्मास्म्)ि। इसी मार्ग को ग्रहण करने से जीव और ब्रह्म का भेद सर्वथा मिट जाता है, एकत्व का ज्ञान हो जाता है। शांकर वेदांत मात्र सिद्धांत की विषयवस्तु नहीं है। यह सनातन और व्यावहारिक मत है। इसकी शिक्षाओं के सार पर यदि हम गंभीरतापूर्वक विचार करें तो यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि यह संसार के प्रत्येक जीव में, प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान ब्रह्म की सत्ता पर आग्रह दिखलाता है। संसार के सभी जीव जब ब्रह्मस्वरूप हैं तो उनमें जाति, धर्म, संप्रदाय एवं वादभेद का किंचित स्थान नहीं रह जाता है।
यह विषयसुख को हेय सिद्धकर मानव को आध्यात्मिक उन्नति की ओर प्रेरित करता है क्योंकि आध्यात्मिक सुख सच्चा और चिरस्थायी होता है। यह मत हमें ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की उदार भावना से ओत-प्रोत करता है। आत्मदर्शी की न केवल मनुष्यमात्र में अपितु प्राणिमात्र में आत्मदृष्टि हो जाती है। फिर, वह घृणा किससे कर सकता है? ‘जीवन्मुक्त पुरुष’ इसी जीवन में उस शाश्वत एवं निरतिशय सुख स्वरूप आत्मा को प्राप्त कर लेता है, जिससे बढ़कर अन्य कोई सुख नहीं है।
वह जीवन की उस स्थिति को प्राप्त कर लेता है। जिसमें मानव समाज या प्राणिमात्र के हित के अतिरिक्त उसका स्वार्थ शेष नहीं रहता। वह ऐसी परिपूर्ण परकाष्ठा को प्राप्त कर लेता है, जिसके अनंतर कुछ भी प्राप्ति की कामना शेष नहीं रह जाती। ईशावास्य श्रुति भी ‘‘आत्मा’’ की उपलब्धि कराने हेतु सत्य धर्म को ज्योतिर्मय आदित्य मंडल की उपासना का विधान करके आत्मा कारक सूर्य तत्व को ही उपदिष्ट करती है। यथा - हिरण्ययेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुख्यम्। तत्वं पूषन्न पावृषु सत्य धर्माय दृष्टये।।