योगकारक का फलप्राप्ति काल
योगकारक का फलप्राप्ति काल

योगकारक का फलप्राप्ति काल  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 6889 | मार्च 2006

योगकारक का फलप्राप्ति काल प्रो. शुकदेव चतुर्वेदी लघुपाराशरी के योगाध्याय के श्लोक संख्या 14-17 तथा 20-21 इन छः श्लोकों में योगकारक ग्रह का लक्षण एवं उदाहरण की विस्तार से विवेचना की गयी है।

इस प्रसंग में यह स्वाभाविक प्रश्न है कि योगकारक ग्रहों का फल कब और कैसे मिलेगा? इस प्रश्न का उत्तर योगाध्याय के श्लोक संख्या 18-19 तथा दशाध्याय के श्लोक संख्या 33-36 में दिया गया है। इस अनुच्छेद में श्लोक संख्या 18-191 के अनुसार योगकारक ग्रहों के फलप्राप्ति के समय का विचार किया जा रहा है।

जैसे सभी ग्रहों का फल उनकी दशा में मिलता है उसी प्रकार योगकारक ग्रहों का फल उनकी महादशा में मिलेगा। यह जान लेने से ठीक-ठीक फलादेश नहीं किया जा सकता क्योंकि ग्रहों की दशाएं वर्षों-वर्षों तक चलती हैं। अतः फल प्राप्ति का ठीक-ठीक समय निर्धारित करने के लिए अंतर्दशा एवं प्रत्यंतर दशा का आश्रय लिया जाता है।

इस विषय में महर्षि पराशर का स्पष्ट मत है कि कोई भी ग्रह अपनी दशा में अपनी ही अंतर्दशा के समय में अपना आत्मभावनुरूपी शुभ या अशुभफल नहीं देता। अपितु वह अपनी दशा में अपनी संबंधी या सधर्मी ग्रह की अंतर्दशा में अपना फल देता है। दशाफल के इस सिद्धांत के अनुसार योगकारक ग्रहों के फल की प्राप्ति का समय निर्धारित किया जा सकता है, यथा-जब योगकारक ग्रहों में से एक की दशा में दूसरे की अंतर्दशा आती है तब योगज-फल मिलता है।

अथवा जब योगकारक ग्रह की दशा में उससे संबंध न रखने वाले किसी शुभकारक ग्रह की अंतर्दशा आती है तब भी योगजफल मिलता है क्योंकि शुभकारक योगकारक ग्रह का सधर्मी होता है।

2 कुछ विद्वान यहां ‘शुभकारिन्’ का अर्थ त्रिकोणेश मानते हैं।

3 यद्यपि त्रिकोण् ोश शुभफल ही देता है तथापि शुभ फलदायक होने के कारण ‘शुभकारिन्’ का अर्थ केवल त्रिकोणेश नहीं माना जा सकता क्योंकि लघुपाराशरी के संज्ञाध्याय में त्रिकोणेश के अलावा लग्नेश तथा केंद्र-त्रिकोण दोनों के स्वामी क्रूर ग्रह को भी शुभफलदायक माना गया है।

4 अतः इस प्रसंग में ‘शुभकारिन्’ का अर्थ त्रिकोण् ोश, लग्नेश, लग्नेश-अष्टमेश तथा केंद्रत्रिकोण दोनों का स्वामी क्रूर ग्रह मानना उचित है। ये सभी ग्रह शुभफलदायक होते हैं और शुभदायक होने के नाते योगकारक ग्रह के सधर्मी कहलाते हैं। क्योंकि योगकारक ग्रह भी शुभफलदायक होता है इसलिए योगकारक ग्रह की दशा में जब उससे संबंध न रखने वाले शुभ कारक ग्रह की अंतर्दशा आती है तब योगफल मिलता है। वस्तुतः योगकारक ग्रह का अन्य योगकारक संबंधी होता है तथा शुभकारक ग्रह सधर्मी होता है।

इसलिए इनकी अंतर्दशा में योगकारक ग्रह अपना योगफल देता है। इससे यह भी प्रतीत होता है कि योगकारक ग्रह से संबंध न रखने वाले किसी शुभकारक ग्रह की दशा में किसी योगकारक ग्रह की अंतर्दशा आने पर भी योगज फल मिलता है। ग्रहों की अंतर्दशाएं भी काफी लंबे समय तक चलती हैं। इन अंतर्दशाओं के समय में योगज फल कब मिलेगा, यह जानने के लिए प्रत्यंतरदशा का आश्रय लिया जाता है। यथा-जब यागे कारक गह्र ा ंे म ंे स े एक ही महादशा में, दूसरे की अंतर्दशा तथा उनसे संबंध न रखने वाले किसी शुभकारक की प्रत्यंतर दशा आती है तब योगजफल मिलता है।

अथवा योगकारक ग्रहों से संबंध न रखने वाले किसी शुभकारी ग्रह की महादशा में जब एक योगकारक की अंतर्दशा तथा दूसरे की प्रत्यंतर दशा आती है तब भी योगजफल मिलता है। यथोक्ततम् ‘योगकारकयोः कार्यं स्वदशासु तथैव हि। वर्धयन्ति शुभा योगं संबंधरहिता अपि।।’’

विचारणीय बिंदु : ग्रहों के दशाफल का विचार मुख्यरूप से निम्नलिखित बातों पर आधारित होता है-

1. गुणज,

2. अनुगुणज,

3. योगज,

4. सहायज,

5. दृष्टिज एवं

6. मितज।

ग्रह के स्वाभाविक (अपने भाव के प्रतिनिधित्व के अनुसार) फल को गुणजफल कहते हैं। अपने अन्यभाव के प्रतिनिधि के अनुसार, अन्य ग्रहों के साहचर्य के कारण तथा भाव में स्थितिवश मिलने वाला फल अनुगुणज कहलाता है। आपस में संबंध करने वाले केंद्रेश एवं त्रिकोणेश का फल योगज कहा जाता है। एक जैसा फल देने वाले सधर्मी ग्रहों का फल सहायज कहलाता है।

परस्पर एक-दूसरे को देखने वाले ग्रहों का फल दृष्टिज कहा जाता है और भाव/राशि में स्थिति, बल एवं अन्य ग्रहों से युति का फल मितज फल कहलाता है। ग्रहों का दशाफल निर्धारित करते समय इन सभी आधारों का विचार कर लेना चाहिए। 

अंतर्दशा का फल निर्धारित करने के मुख्य आधार आठ माने जाते हैं-

1. संबंधित सधर्मी,

2. संबंधित विरुद्ध धर्मी,

3. संबंधित उभयधर्मी,

4. संबंधित अनुभयधर्मी,

5. असंबंधित सधर्मी,

6. असंबंधित विरुद्धधर्मी,

7. असंबंधित उभयधर्मी तथा

8. असंबंधित अनुभयधर्मी।

इनमें से प्रथम पांच ग्रहों की अंतर्दशा में दशाधीश का आत्मभावानुरूपी फल एक निश्चित तारतम्य के अनुसार मिलता है। शेष तीनों ग्रहों का फल श्लोक संख्या 31 के अनुसार निर्धारित किया जाता है। संबंधित सधर्मी का फल सर्वाधिक, संबंधित अनुभय धर्मी का उससे कम, सबं ंि धत उभयधर्मी का उसस े कम तथा संबंधित विरुद्धधर्मी का फल सबसे कम होता है। इसी प्रकार असंबंधित ग्रह का फल भी जानना चाहिए।

कुंडली संख्या 1 में बुध एवं शुक्र योगकारक ग्रह हैं अतः बुध की महादशा में शुक्र की अंतर्दशा के समय में इनको मुख्यमंत्री पद मिला।

कुंडली संख्या 2 में शुभकारक गुरु का योगकारक ग्रहों से संबंध नहीं है। अतः गुरु की दशा में स्वतः योगकारक मंगल की अंतर्दशा में इनको भारत का विदेश मंत्री बनाया गया।

योगकारक के संबंधी पापी की अंतर्दशा में योगफल: पिछले अनुच्छेद में बतलाया गया है कि दशाफल की जानकारी के लिए ग्रह के स्वभाविक या आत्मभावानुरूप फल का निर्धारण गुणज आदि छः आधारों पर तथा अंतर्दशा के फल का निर्धारण संबंधित सधर्मी आदि आठ आधारों पर किया जाता है। योगकारक ग्रह एक ऐसा पारसमणि है कि जिससे संबंध या संपर्क होने से पापी ग्रह भी योगज फल देता है। जैसे पारस के संपर्क से लोहा सोना बन जाता है वैसे ही योगकारक से संबंध होने पर पापी ग्रह भी योगजफलदायक हो जाता है। इस विषय में लघुपाराशरीकार का कथन है कि योगकारक ग्रहों के संबंध से स्वतः पापीग्रह भी योगकारक ग्रहों की दशा तथा अपनी अंतर्दशा में योगजफल देते हैं।

5 लघुपाराशरी के अनुसार त्रिषडायेश, मारकेश एवं वे अष्टमेश-जो लग्नेश न हों-पापी ग्रह होते हैं। ये पापीग्रह भी दो प्रकार के होते हैं:

1. जिनकी दूसरी राशि पाप स्थान में हो और

2. जिनकी दूसरी राशि केंद्र में हो। इन दोनों प्रकार के पापी ग्रहों से योगकारक ग्रह का संबंध हो तो ये पापी ग्रह भी योगकारक ग्रह की दशा और अपनी अंतर्दशा में पापफल न देकर योगजफल देते हैं।

दशाफल का मुख्य सिद्धांत है कि कोई भी ग्रह अपना स्वाभाविक (आत्मभावानुरूपी) फल अपने संबंधी या सधर्मी ग्रह की अंतर्दशा में देता है।6 तात्पर्य यह है कि जब किसी ग्रह की दशा में उसके संबंधी या सधर्मी ग्रह की अंतर्दशा आती है तब दशाधीश का आत्म-भावानुरूपी फल मिलता है। यदि योगकारक ग्रहों से पापीग्रहों का संबंध हो तो पापी ग्रह योगकारक के संबंधी हो जाते हैं।

इसलिए योगकारक ग्रह की दशा में जब उनके संबंधी पापी ग्रह की अंतर्दशा आती है तब योगकारक ग्रह का आत्मभावानुरूपी योगज फल मिलता है। लघुपाराशरी के कुछ व्याख्याकारों ने ‘‘तत्तद्भुक्त्यनुसारेष’’- का अर्थ - ‘‘उस योगकारक ग्रह की अंतर्दशा के अनुसार’’ - ऐसा मान कर श्लोक संख्या 19 का यह अर्थ लिया है कि -‘‘स्वयं पापीग्रह भी योगकारक ग्रहों से संबंध होने पर अपनी दशाा में योगकारक की अंतर्दशा में योगजफल देते हैं।’’

किंतु यह अर्थ लघुपाराशरी के दशाफल सिद्धांत के प्रतिकूल है क्योंकि पापी ग्रह की दशा में उसके संबंधी योगकारक ग्रह की अंतर्दशा में मिश्रित फल मिलता है7 न कि योगज फल। अतः ‘‘तत्तद् भुकत्यनुसारेण’’ - का अर्थ उन (पापी) ग्रहों की अंतर्दशा के अनुसार मानकर इस श्लोक का अर्थ- ‘‘योगकारक ग्रहों के संबंध से स्वतः पापीग्रह योगकारक ग्रहों की दशा तथा अपनी अंतर्दशा में योगज फल देते हैं’’ - यह मानना उचित एवं तर्कसंगत है। यथा - ‘‘संबंधे सति साधूनां खलोऽपि हितसाधकः। तद्वत् पापेऽनि संबंधे सति योगफलप्रदः।

संदर्भ: 1. ‘‘दशास्वपि भवेद्योग प्रायशो योगकारिणोः। दशाद्वयीमध्यगतस्तदयुक् शुभकारिणाम्।। योगकारक संबंधात्पापिनोऽपि ग्रहाः स्वतः। तत्तद् भुकत्यनुसारेण द्विशेयुर्योगजं फलम्।।’’ -लघुपाराशरी श्लो. 18-19

2. देखिए-लघुपाराशरी श्लो. 29-30 3. देखिए-लघुपाराशरी भाष्य-दीवान रामचंद्र कपूर पृ. 58 4. देखिए-लघुपाराशरी श्लो. 8 एवं 12 5. ‘‘योगकारकसंबंधपपिनोऽपि ग्रहाः स्वतः। तत्तद्भुकत्यनुसारेंण दिशेयु योगिजं फलम्।।’’

If you are facing any type of problems in your life you can Consult with Astrologer In Delhi



Ask a Question?

Some problems are too personal to share via a written consultation! No matter what kind of predicament it is that you face, the Talk to an Astrologer service at Future Point aims to get you out of all your misery at once.

SHARE YOUR PROBLEM, GET SOLUTIONS

  • Health

  • Family

  • Marriage

  • Career

  • Finance

  • Business


.