आपके विचार
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फ्यूचर समाचार
व्यूस : 6782 | मार्च 2006

आपके विचार प्रश्न: वक्री ग्रहों का क्या प्रभाव होता है? ग्रहों के उच्च, नीच, शुभ, अशुभ, स्तंभित या अस्त होने की स्थिति में वक्री होने पर उनके प्रभाव में क्या अंतर आता है? ग्रह वक्री कैसे होते हैं?

हम मान लें कि पृथ्वी स्थिर है। बुध अपनी चाल से भचक्र का चित्र में दिखाए तीर के निशान की दिशा में चक्कर काट रहा है। मान लें कि दर्शक पृथ्वी के ग् बिंदु पर स्थित है और पृथ्वी स्थिर है और बुध भ् पर दिखाई पड़ेगा। जब बुध ळ बिंदु पर पहुंचेगा तो भचक्र में ळश् पर दिखाई देगा।

इसी तरह जब बुध थ्एम्एक्एब्एठ पर पहुंचेगा तो यह भचक्र में थ्श्एम्श्एक्श्एब्श् और ठश् पर दिखाई देगा। यहां हमने देखा कि बुध के भोगांश बढ़ रहे हैं और बुध कुछ देर के लिए स्थिर दिखाई पड़ेगा। बुध की कक्षा पर ग् । ।श् पृथ्वी से स्पर्श रेखा है। । बिंदु पर बुध की वक्री गति शुरू हो जाएगी और बुध कुछ देर के लिए स्थिर दिखाई पड़ेगा। जब बुध ब् म् थ् भ् श्र ज्ञ बिंदु पर पहुंचेगा तो भचक्र में पृथ्वी के ग् बिंदु से ब्श् म्श् थ्श् भ्श् श्रश् ज्ञश् बिंदु पर दिखाई पड़ेगा। अतः बुध के भोगांश कम होने से उसकी वक्री गति दिखाई देगी। ग् ज्ञ ज्ञश् बुध की मार्गी गति की स्पर्श रेखा है। बुध के ज्ञ बिंदु पर पहुंचने पर इसकी गति मार्गी हो जाएगी। बाहर के ग्रह मंगल, बृहस्पति एवं शनि की गतियां पृथ्वी से बहुत कम हैं।

इसलिए इन ग्रहों को स्थिर मान कर और पृथ्वी को गतिमान करके इन ग्रहों का वक्री होना दिखा सकते हैं। ग्रह पृथ्वी के निकट आते हैं, तो वक्री होते हैं। अब हम बाह्य ग्रह शनि की वक्री चाल समझते हैं। यहां हमने शनि को स्थिर माना। यहां पृथ्वी की गति शनि ग्रह से अधिक है। मान लें कि शनि म् बिंदु पर स्थित है और पृथ्वी के । स्थान पर । बिंदु से (पृथ्वी) शनि ग्रह 1800 से अधिक अंश पर नजर आता है। जब पृथ्वी ठ बिंदु पर पहुंचती है तो शनि पृथ्वी से 1800 पर नजर आएगा।

जब पृथ्वी ब् बिंदु पर पहुंचेगी तो शनि के भोगांश कम होते जाएंगे और शनि की वक्री गति ठ से ब् बिंदु तक नज़र आएगी और ब् से आगे शनि की मार्गी गति हो जाएगी। वक्री ग्रहों का क्या प्रभाव होता है: ऊपर लिखित तथ्यों से हमने यह पाया कि ग्रह वक्री तब होते हैं जब वे पृथ्वी के अधिकतम निकट होते हैं। इसलिए ये अधिक फलदायी होते हैं। कोई शुभ ग्रह वक्री होकर अधिक शुभ और पापी ग्रह अधिक पापी हो जाएगा क्योंकि इन वक्री ग्रहों के पृथ्वी के निकट होने से इनकी किरणें प्रभावशाली ढंग से पृथ्वी वासियों पर असर करंेगी।

वक्रीणस्तु महावीर्याः शुभाः राज्प्रदाः ग्रहाः।

शुभ ग्रह वक्री होकर अधिक शुभ व बली राज्यप्रद हो जाते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि वक्री ग्रह का बल बढ़ जाता है। इसलिए इन ग्रहों को चेष्टाबली माना जाता है। चेष्टाबली ग्रह निःसंदेह राज्य से सम्मान दिलाते हैं, यदि वे भावसंबंध से शुभ हों। यदि यही ग्रह भाव संबंध से पापी हों तो अच्छा फल नहीं देते। फलदीपिका का एक श्लोक यहां उल्लिखित है

जिसमें स्पष्ट किया गया है कि वक्री ग्रह उच्च, नीच, शुभ, अशुभ, उदित या अस्त होने पर क्या प्रभाव देते हैं? वक्र गतो रुचिररश्मिसमूहपूर्णो नीचरिमांशसहितोइपि भवेत्स खेर वीर्यान्विवस्तुहिनरश्मिरिवोच्च मित्रस्वक्षेत्रगोड़पिविवलो हतदेधितिश्चेत वक्री होने पर भी ग्रह यदि अधिक रश्मियों वाला हो तो बलवान समझा जाता है।

नीच राशि, नीच नवांश, शत्रु राशि व शत्रु नवांश में स्थित वक्री ग्रह उदित होने पर बलवान होता है। रश्मि रहित (अस्त) होने पर चाहे कोई भी ग्रह स्वक्षेत्र या उच्च राशि में क्यों न हो वक्री होने पर बलवान नहीं समझा जाता है। जैसे चंद्रमा अगर उच्च राशि का हो किंतु अमावस का दिन हो तो वह भी निर्बल माना जाएगा। यदि यही चंद्रमा वृश्चिक राशि का हो और पूर्णमासी हो तो पूर्ण बली होगा।

वक्री ग्रहों के प्रभाव के संबंध में सर्वाधिक प्रचलित मत के अनुसार पापी ग्रह वक्री होकर महा क्रूर तथा सौम्य ग्रह वक्री होकर महा षुभ हो जाते हैं। परंतु सौम्य अथवा क्रूर ग्रह षीघ्रगति हों तो सहज स्वभाव वाले होते हैं। वक्री ग्रहों के बल को सभी आचार्यों ने एक मत से स्वीकार किया है तथा फलित ज्योतिष में अनेक स्थानों पर उसका महत्व रेखांकित किया है। शुभ होरा प्रकाष के उपसूतिका विचार में लग्न तथा चंद्रमा के मध्य अपनी उच्च राषि में स्थित वक्री ग्रह के स्थित होने पर उपसूतिकाओं की संख्या तीन गुणा लेने का निर्देष है।

सर्वतोभद्र चक्र में वक्री ग्रह से अन्य ग्रहों, तिथि, नक्षत्र, वर्णादि के विरुद्ध होने पर दो गुना फल लेने का विधान है। इस चक्र में यदि रोग के समय क्रूर ग्रह का वेध वक्र गति से हो तो रोगी की मृत्यु होती है और यदि षीघ्रगति ग्रह से हो तो उपाय से रोग का शमन होता है। ग्रह उच्च, नीच, अस्त, स्तंभी अथवा अपनी किसी भी अवस्था में वक्री हो सकते हैं। नैसर्गिक षुभ तथा अषुभ दोनों ही स्वभाव के ग्रह वक्री होते हैं।

वक्री ग्रहों के बली होने के संबंध में ऊपर वर्णित सिद्धंात सामान्य सिंद्धात है। वक्री ग्रहों का फल प्रत्येक अवस्था में भिन्न होना स्वाभाविक भी है तथा व्यावहारिक भी। भावार्थ रत्नाकर के अध्याय 13 ष्लोक 16 में कहा गया है ‘क्रूर ग्रहाणां वक्रगत यदषुभयोगिवा’ अर्थात कल्याण वर्मा, पृथुयषा, वेंकटेष एवं अन्य आचार्यों के मत से पापी ग्रह वक्री होकर अषुभ फलदायी होते हैं। इसके विपरीत यदि षुभ ग्रह वक्री हों, तो षुभफलदायक होते हैं।

महादेव पाठक ने कहा है ‘वक्रग उच्चगो महाबली’ अर्थात वक्री ग्रह यदि अपने उच्च बिंदु पर हो तो वह महाबली हो जाता है। उत्तर कालामृत अध्याय 2 ष्लोक 6 में कालिदास इस विषय में अधिक स्पष्ट हंै: व

क्री ग्रह स्वोच्चबलः सवक्रसहिते मध्यं बलं तुं›भे

वक्री नीचबलः स्वनीचभवने वक्रीबलं तुं›जम् ।

उच्चस्थेन युतोऽर्द्धवीर्यमिति चेन्नीचे तु षून्यं बलं मित्रैः

पापखगैः षुभे रिपुखगैर्युक्तोऽक्तोऽपि चार्द्ध बलम् ।।

अर्थात वक्री ग्रह का बल उसके उच्च के समान समझना चाहिए। कोई ग्रह जब किसी वक्री ग्रह के साथ हो तो उसे आधा रूपा बल और प्राप्त हो जाता है। यदि कोई ग्रह उच्च परंतु वक्री हो तो उसका बल षून्य अर्थात नीच हो जाता है। नीच ग्रह वक्री होकर अपनी उच्च राषि में होने जैसा बली होता है। षुभ ग्रहों के विषय में माना जाता है कि वे वक्री होकर षुभ फल देने वाले हो जाते हैं।

क्रूर ग्रह वक्र्री होने पर अधिक पापी तथा षुभ ग्रह वक्री होने पर और शुभ होते हैं। ऐसा न होने पर षुभ पापी ग्रह अपना षुभ पापफल प्रदान करते हंै।

रवि चन्द्रा बुध गयने विपुलस्निग्धाõ वक्रमाõन्ये ।

बलिनो युधि चोत्तरगा व्यर्केनदुयुताõ चेश्टाभि: ।।

रवि और चंद्रमा के अतिरिक्त अन्य ग्रह विपुल अथवा वक्र गति में आकर बली होते हंै। परंतु ऐसा ग्रह अपनी बाल्यावस्था अथवा वृद्धावस्था में नहीं होना चाहिए। उदित हो रहा ग्रह ही बाल्यावस्था में होता है तथा अस्त होने से पूर्व वह वृद्धावस्था में होता है।

पक्षं दषाहं मासं च दषाहं मास पंचकम् ।

वक्रेऽतिचारे भौमाद्याः पूर्व राषि फलप्रदा ।।

मंगल वक्री अथवा अतिचारी हो तो 15 दिनों तक, बुध 10 दिनों तक, गुरु 1 मास तक, षुक्र 10 दिनों तक तथा षनि पांच मासों तक अगली राषि का फल देता है और उसके बाद अपनी राषि का फल देता है।

वक्रेऽतिचारे भौमाद्याः पूर्व राषि फलप्रदा ।

जीवः षनिष्च यत्रस्थौ तस्य राषेः फलप्रदौ ।।

अर्थात मंगल, बुध और षुक्र वक्री तथा अतिचारी होकर पूर्व राषि का फल प्रदान करते हैं परंतु गुरु तथा षनि जिस राषि में स्थित हों उसी का फल प्रदान करते हैं। वक्री ग्रहों के योग: जातक ग्रंथों में वक्री ग्रहों से बनने वाले योगों की संख्या अत्यधिक न्यून है तथापि कुछ योग तो उपलब्ध हैं ही।

जातक सारदीप के अनुसार कोई षुभ ग्रह यदि छठे अथवा आठवें भाव में हो तथा वक्री पापी ग्रहों से दृष्ट हो तो जातक की एक मास में मृत्यु होती है और यदि मंगल की राषियों मेष अथवा वृष्चिक में वक्री षनि मंगल से दृष्ट होकर केंद्र, छठे अथवा आठवें भाव में हो तो जातक की मृत्यु दो मास में होती है। वक्री ग्रह की राषि मंे षुक्र पुरुष के पुंसत्व में न्यूनता लाता है, लग्नेष वक्री हो तथा छठे भाव में स्थित हो और षष्ठेष लग्न में हो तो जातक के पेट में भयानक रोग होता है।परंतु यह रोग साध्य होता है और इसका उपचार हो सकता है।

वक्री ग्रहों की दृष्टियां: वक्री मंगल जिस भाव में होता है उससे चतुर्थ भाव का फल, वक्री गुरु अपने स्थान से पांचवें भाव का फल, वक्री बुध अपने स्थान से चैथे भाव का, वक्री षुक्र अपने स्थान से सातवें स्थान का तथा वक्री षनि अपने स्थान से नौवें भाव का फल देता है।

प्राणियों अथवा वस्तुओं के षुभाषुभ, तेजी मंदी आदि का निर्णय वेध का विचार किए बिना नहीं हो सकता। इसमें ‘वक्रगे दक्षिण् ाा दृष्टिर्वामा दृष्टिष्च षीघ्रगे। मध्यचसो मध्या ज्ञेया भौमादि पश्चके’ के अनुसार वक्री ग्रहों मंगल, बुध, षनि, गुरु तथा षुक्र में से जो ग्रह वक्री हो उसकी दृष्टि दाहिनी ओर, जो षीघ्रगामी हो उसकी बायीं ओर तथा जो मध्यचारी हो उसकी दृष्टि सामने की ओर मानी जाती है।

वक्री ग्रहों के फल: वक्री ग्रहों का जातकों पर प्रभाव प्रायः अषुभ एवं कष्टकारी माना गया है। ग्रह वक्री होकर जातक को परदेष गमन कराता है। वक्री ग्रहों के दषा फल तथा मार्गी ग्रहों के दषा फल में भी तुलनात्मक रूप से कोई अंतर नहीं होता। वक्री ग्रहों का विषेष प्रभाव गोचर के समय देखने में आता है। वक्री ग्रह जिन विषयों के कारक होते हंै उनके फलों में न्यूनता करते हंै।

उदाहरण के लिए यदि गुरु वक्री हो तो गुरु के कारकत्व वाले धन, संतान, भाग्य, मान, पद तथा लाभ विषयक फल देगा। वक्री ग्रह षुभ हों अथवा पापी सदैव अषुभ फलकारक होते हैं। वक्री ग्रह दुर्घटना, हत्या, मृत्यु, पतन, बंधन तथा रोगादि अषुभ फल देते हंै। यदि षुभ ग्रह वक्री हों तो वे विकृत यौन भावाना की वृद्धि कर दाम्पत्य सुख का नाष करते हंै। वक्री मंगल महिलाओं में यौन विकृतियों में वृद्धि करता है। ग्रेस ने कहा है कि यदि जन्म समय में कोई ग्रह वक्री हो तो गोचर समय में जब वह ग्रह पुनः वक्री होता है तो उस ग्रह के कार्यों में अधूरापन रहता है। परंतु जब वह ग्रह मार्गी होता है तो उस ग्रह से संबंधित कार्य पूर्ण हो जाते हंै।

वक्री ग्रहों की महादषाओं-अंतर्दषाओं के फल: होरासार के अध्याय 11 ष्लोक 3 में कहा गया है कि किसी ग्रह की महादषा-अंतर्दषा का मूल्यांकन करते समय यह अवष्य देखना चाहिए कि ग्रह आरोही, अवरोही अथवा वक्री या अनुवक्री तो नहीं है। यदि ग्रह अनुकूल राषि अथवा नवांष में हुआ तो जातक को राज्याधिकार भी प्राप्त हो सकता है। गोचर में यदि ग्रह की महादषा-अंतर्दषा चल रही हो और ग्रह यदि अपनी नीच राषि अथवा षत्रु राषि में जा रहा हो तथा अस्त हो तो अपनी अवस्था में कष्टकारी होता है परंतु यदि गोचर में अपनी स्वराषि, मित्र राषि अथवा उच्च राषि में अथवा वक्री होकर भ्रमण करता हो तो ऐसे समय में जातक को उत्तम परिणाम प्राप्त होता है। नृसिंह दैवज्ञ ने जातक सारदीप में कहा है कि पापी वक्री ग्रह की दषा में जातक उसी प्रकार भ्रमित रहता है जिस प्रकार कुम्हार का चाक भ्रमित रहता है। इसमें विपत्तियां आती हैं, षत्रु का आक्रमण होता है। परंतु षुभ वक्री ग्रह की दषा में अनिष्ट फल नहीं होते।

नैसर्गिक पापी ग्रह मंगल अपनी महादषा में अषुभ फल देता है। वक्री बुध षुभ होने के कारण अपनी महादषा में भाग्यवृद्धि, पत्नी पुत्र सुख, संपत्ति, सत्संग, दान, पुण्य, पवित्र स्नान, धार्मिक यात्राओं आदि का फल प्रदान करता है। यदि गुरु वक्री हो तो इस महादषा में गुरु के नैसर्गिक रूप से षुभ होने के कारण जातक को षुभ फलों की प्राप्ति होती है यथा उसके षासक वर्ग से मधुर संबंध होते हंै, वाक्चातुर्य, सुवास, सुगंध का लाभ, अपार धन, पुत्र पत्नी का सुख, युद्ध में विजय प्राप्त होती है। वक्री षुक्र की महादषा में राज्य से सम्मान तथा अनेक प्रकार के वस्त्राभूषणों की प्राप्ति होती है। मृदंग, भेरी के षब्दों के साथ जातक की सवारी निकलती है। परंतु यदि षनि वक्री हो तो यह महादषा कार्याें को विफल करने वाली, व्यापार का नाश करने वाली, दुख देने वाली और भाइयों का नाष करने वाली होती है।

वक्री गुरु एवं षुक्र के गोचर में त्याज्य कार्य: गुरु के वक्री होने पर 28 दिनों तक यज्ञोपवीत, विवाह तथा चैल कर्म नहीं करना चाहिए। परंतु मुहूर्त कल्पद्रुम के मत से यह निषेध गुरु अन्य राषियों में वक्री होने पर है। अपनी राषि में गुरु के वक्री होने पर तीन दिनों तक सभी षुभ कार्यों का त्याग करना चाहिए। षौनक ऋषि के मत से राषि में वक्री होकर गुरु अन्य राषि में संचार करे तो 28 दिन पहले तथा बाद में सभी कार्यों में अषुभ तथा दोषप्रद होता है, इसके बाद नहीं। वक्री गुरु एवं संवत्सर निर्णय: गुरु सामान्यतया किसी एक राषि में 13 मास तक रहता है, परंतु कभी ऐसा भी होता है कि गुरु अतिचारी होकर उससे पूर्व ही दूसरी राषि में पहुंच जाता है और वक्री होकर पुनः उसी राषि में नहीं आता। ऐसी अवस्था में वह वर्ष लुप्त संवत्सर के नाम से जाना जाता है। मेदिनीय ज्योतिष एवं वक्री ग्रह: वक्री ग्रहों का प्रभाव देश पर तथा देष में घट रही घटनाओं पर पड़ता है।

मेदिनीय ज्योतिष में एकाधिक ग्रहों के वक्री होने का विचार किया गया है। यह विचार जातक ग्रंथों में उपलब्ध नहीं है। क्रूर ग्रह वक्री हो जाए तथा उसी समय षुभ ग्रह अतिचारी हो तो दुर्भिक्ष आता है तथा षासकों में आपस में लड़ाई होती है । ग्रह वक्री हों तो अच्छी वर्षा करते हंै। दो ग्रह वक्री होने पर षासकों में क्षोभ की वृद्धितीन ग्रह वक्री होने पर अधिक युद्ध, अतिवृष्टि, बाढ़, तूफान आदि का भय होता है। यदि चार ग्रह वक्री हों तो राज भ्ंाग तथा पांच ग्रह वक्री हों तो राज्य तथा राष्ट्र का विनाष होता है। गुरु से युत वक्री षनि नौवें मास में गेहूं, तिल तथा तेलों में तेजी करता है। षनि के अतिचारी तथा षुक्र के वक्री होने पर राजा लोग आनंदित होते हैं तथा धन धान्यों की बहुलता रहती है। षनि वक्री और गुरु अतिचारी हो तो जगत में हाहाकार मच जाता है। लोग, विषेषकर दक्षिण के लोग, दुखी हो जाते हैं।

बृहज्जातक के ग्रह भक्तियोगाध्याय के ष्लोक 31 एवं 32 में कहा गया है कि मंगल के वक्र गमन से दूषित नक्षत्र पीड़ित होकर अपने वर्ग का नाष करता है (क्षितिसुतभेदनवक्रदूषितम्)। मंगल अपने उदित नक्षत्र से सातवें आठवें अथवा नौवें नक्षत्र में वक्री होता है तो उसे उष्ण संज्ञक वक्री कहते हंै। यदि 10वें 11वें अथवा 12वें नक्षत्र में वक्री हो तो उसे अश्रुमुख वक्री कहते हंै। इस वक्री स्थिति से राष्ट्र में विपत्ति आती है तथा अकाल पड़ता है। रसों में दोष उत्पन्न होता है तथा रोगों में वृद्धि होती है। यदि अस्त नक्षत्र से 13 वें अथवा 14 वें नक्षत्र में मंगल वक्री हो तो उसे व्याल क्री वक्र कहा जाता है। इसमें खेती का उत्पादन उत्तम होता है साथ ही सर्प भय होता है। यदि अस्तकालिक नक्षत्र से 15वें या 16 वें नक्षत्र में मंगल वक्री होता है तो उसे रुधिरानन वक्री कहते हैं।

इसका परिणाम सुभिक्ष होता है, परंतु प्रजा को भय तथा मुख के रोगों से पीड़ा होती है। यदि अस्त नक्षत्र से 17वें अथवा 18वें नक्षत्र में मंगल वक्री होता है तो उसे अतिमूसल वक्री कहते हैं। उसकी इस वक्री अवस्था में चोरों तथा ड़ाकुओं के कारण धन की हानि, अनावृष्टि तथा षस्त्र भय होता है। यदि मंगल पूर्वा फाल्गुनी अथवा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में उदित होकर उत्तराषाढ़ में वक्री हो तथा बाद में रोहिणी में अस्त हो जाए तो तीनों लोकों को पीड़ित करता है। यदि मंगल श्रवण नक्षत्र में उदित होकर पुष्य नक्षत्र में वक्री हो जाए तो षासकों, राष्ट्राध्यक्षों के लिए हानिकारक होता है। यदि मंगल मघा नक्षत्र के मध्य में उदित होकर मघा नक्षत्र में ही वक्री हो जाए तो पृथ्वी पर वर्षा का अभाव होता है तथा षस्त्र भय होता है। वक्री बुध षस्त्र भय तथा धन का नाष करता है।

मेष का वक्री गुरु पषुधन तथा सुगंधित वस्तुओं में तेजी करता है। वृष का वक्री गुरु पषुधन के अतिरिक्त सभी प्रकार के धान्यों में तेजी करता है। मिथुन का वक्री गुरु उत्तर प्रदेष तथा पंजाब में अकाल की स्थिति बनाता है। कर्क राषि का वक्री गुरु गृहयुद्ध, जनता में संघर्ष और राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन कराता है। सिंह राषि का वक्री गुरु षुभफलदायक होता है। कन्या राषि का वक्री गुरु उत्तम वर्षा तथा सुभिक्ष करता है। तुला राषि मंे वक्री गुरु कपास आदि में तेजी करता है, वृष्चिक राषि का वक्री गुरु अन्नांे में तेजी कारक होता है। धनु राषि का वक्री गुरु सभी प्रकार के धान्यों के मूल्यों में गिरावट लाता है।

मकर का वक्री गुरु भी धान्यों के मूल्यों में गिरावट लाता है। कुंभ राषि का वक्री गुरु सुभिक्ष कारक है तथा मीन राषि का वक्री गुरु धन हानि, प्रषासकों में अनबन, तथा महंगाई बढ़ाता है। षुक्र का षोभन वक्र आमोद-प्रमोद, वस्त्र, जल, धनधान्य की बहुलता देता है और विकृत वक्र इन सब की हानि करता है। गुरु का वक्र षुभ फलदायक होता है। गुरु वक्री होकर भाग्य परिवर्तन करता है। सामान्य रूप में गुरु जब वक्री होता है तो व्यक्ति अपने परिवार, देष, समाज अथवा धर्म के प्रति अधिक चिंतित हो जाता है। वक्री होने के पष्चात जब गुरु मार्गी होता है तो जातक की मनोकानाएं पूर्ण होती हैं।

षुक्र वक्री होकर नारी जाति की कोमल भावनाओं को उद्दीप्त कर पति अथवा प्रेमी के प्रति खोटी अवधारणाओं में वृद्धि करता है। यदि षुक्र पुरुष जातक की कुंडली में जन्म समय में वक्री हो तथा गोचर में वक्री होकर भ्रमण कर रहा हो तो पुरुष में काम का आवेग बढ़ जाता है। इसी समय में पुरुष के विवाहेतर संबंध की सभ्ंाावना में वृद्धि होती है। परंतु जिस समय वक्री षुक्र मार्गी होता है उस समयावधि में पति पत्नी के मध्य यदि विवाद चल रहे हों तो उन विवादों का अंत होता है और दाम्पत्य जीवन सुखद हो जाता है। वक्री षनि जातक को कष्टों तथा तनाव से मुक्ति प्रदान करता है। यह समय जातक के स्वमूल्यांकन, आत्म विषलेषण, अपने गुण दोषों पर दृष्टिपात का होता है।

वक्री ग्रह विषयक विविध मत: बलहीन वक्री ग्रह का फलादेश बलवान, सिद्धिप्रद होता है। अपनी दशांतर्दशा में बलवान ग्रह वक्री होने पर निर्बल होता है। अनेक विद्वानों का मानना है कि जिस भाव में जो ग्रह विराजमान होता है उस भाव के लिए वक्री ग्रह का शुभाशुभत्व फलादेश नहीं करना चाहिए। इन विद्वानों के मत के अनुसार वक्री ग्रह के शुभाशुभत्व का फलादेश पूर्व वाले भाव से किया जाना चाहिए।

जैसे कुंडली के द्वादश भावस्थ वक्री ग्रह का शुभ या अशुभ फलादेश द्व ादश भाव से न करके उसके पूर्व वाले एकादश भाव से किया जाना चाहिए। मंगल ग्रह वक्री होने पर अपनी महादशा-अंतर्दशा में व्यक्ति को एकाकी और उदासीन बना देता है। मंगल वक्री होने पर अग्निकांड करा सकता है। दुश्मनों की फौज लाकर खड़ी कर सकता है। अग्नि-भय, धन की हानि, शत्रु-शूल से जातक को पीड़ित करता है।

वक्री मंगल स्वस्थान से तृतीय स्थान के प्रभाव को दर्शाने वाला माना गया है। यदि व्यक्ति अध्यात्म से जुड़ जाए, धर्म-कर्म से ओतप्रोत होने लगे, उसमें धर्माचरण करने की अभिरुचि जाग्रत होने लगे तो यह मानना चाहिए कि बुध ग्रह अपनी दशा-अंतर्दशा काल में वक्री होकर शुभ फल प्रदाता बन गया होगा। वक्री बुध अपनी दशांतर्दशा में स्त्री, पुत्र (कलत्रादि) सुख की अभिवृद्धि करता है। घर-परिवार आदि के सुख, वैभव, ऐश्वर्य आदि की वृद्धि करता है। बुध वक्री होने पर अपने स्थान से चतुर्थ स्थान के फल को प्रतिपादित करता है। बृहस्पति ग्रह की वक्रता के बारे में विभिन्न ग्रंथों और विद्वानों का कथन है कि वह ग्रह अपने से पंचम भाव के फल को प्रभावित करता है।

पारिवारिक सुख, समृद्धि, स्वर्णाभूषणों, रत्न जवाहरात की वृद्धि, उच्च पद आदि, शत्रु-पराजय, उत्सवादि के सुखद परिणाम जातक को गुरु के वक्री होने पर ही प्राप्त होते हैं। वक्री बृहस्पति अत्यंत बलिष्ठ माना गया है परंतु यदि यह शत्रु राशि में हो तो प्रतिकूल फल देता है। शुक्र ग्रह वक्री होने पर जिस स्थान या भाव में बैठा हो उसके ठीक सप्तम भाव को प्रभावित करता हुआ शुभत्व फल देने वाला माना गया है। इस अवस्था में वह श्रेष्ठ भौतिक सुख, ऐश्वर्य, सुयश, नाना प्रकार के उच्च वाहनों का सुख देता है। राज्य कार्यादि में वक्री शुक्र सफलता देता है, बशर्ते शनि की राशि मकर या कुंभ की लग्न में वह प्रबल राजयोग कारक हो।

वक्री शुक्र के मामले में सावधानी अत्यावश्यक होती है क्योंकि यह मादकता वृद्धि करता है। यह नारी जाति की सरस कोमल भाव भंगिमाओं का, मधुर संबंधों का, गृहस्थ सुख-समृद्धि का, पुनप्र्रेम संबंध का कारक होता है। वक्री से मार्गी होने पर यह ग्रह पति-पत्नी की तकरार को दूर कर देता है। यह भी माना जाता है कि ग्रह जैसा फल अपने उच्च स्थान में होने पर अथवा मूल त्रिकोण में होने पर प्रदान करने में समर्थ होते हैं उनकी वही स्थिति वक्री होने पर भी निर्मित हो जाती है। वे मार्गी ग्रह की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली होते हैं।

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