पर्वत पर अंकित धर्म गाथा डाॅ. राकेश कुमार सिन्हा पुराणों में वर्णित विष्णु के प्रसिद्ध अवतारों में से अब तक का अंतिम अवतार भगवान बुद्ध के रूप में हुआ है जिन्होंने विश्व में अनेक स्थानों पर अपने शांति और अहिंसा के संदेश जनता जनार्दन को दिये। ऐसे ऐतिहसिक एवं सांस्कृतिक पुण्य स्थलों में मगध के गया क्षेत्र में कोआडोल नामक पर्वत अपनी सुरम्य प्राकृतिक सुषमा के साथ-साथ पाषाण कलाकारिता के लिए भी प्रसिद्ध है। प्रकारान्तर से धर्म व इतिहास से सम्मत रहे मगध प्रदेश में एक से बढ़कर एक ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्व के पर्वत विराजमान हैं। इसी मगध की भूमि में संसार में मानव निर्मित प्रथम पाषाण गुफा का पर्वत ‘बराबर’ है तो इसी धरती पर ब्रह्मा जी के यज्ञ की स्थली ‘ब्रह्मयोनि’ विराजमान है। यहीं हिंदू, बौद्ध व जैन धर्म का संगम पर्वत ‘हसराकोल’ मौजूद है तो यहीं 52 मंदिर व इतने ही तालाबों का पहाड़ ‘उमगा’ की स्थिति है। इसी धरती पर पाश्र्वनाथ की साधना-गुफा का पर्वत ‘पचार’ मौजूद है तो यहीं डूंगेहारी समस्त भूत-प्रेत की आदि स्थली ‘प्रेतशिला’ यही है तो पितरों को मुक्ति देने श्री राम जहां पधारे, वह ‘रामशिला’ भी इसी धरती पर शोभायमान है। आज भी यहां शताधिक पर्वतों की उपस्थिति दर्ज है इसमें ‘‘कौआडोल’’ का सुनाम है। विश्व प्रसिद्ध ऐतिहासिक बराबर पर्वत से दक्षिण-पश्चिम में 3 किमी. की दूरी पर अवस्थित कौआडोल पर्वत के शिलाखंड के निचली ढाल में आज भी सैकड़ो हिंदू व बौद्ध देवी-देवताओं के विग्रह, तांत्रिक चिन्ह, देवी-देवताओं के वाहन व शिवलिंग का अंबार देखा जा सकता है। मगध के गया क्षेत्र के बेलागंज (पटना-गया रेल खंड पर अवस्थित) से सड़क मार्ग तय करके सात किमीचलकर कौआडोल पर्वत के समीप आते ही यह बात दिमाग में सहसा आ जाती है कि आखिर कौन से कारण थे कि इस पर्वत को कौआडोल कहा गया। इस बारे में स्थानीय क्षेत्र में प्रचलित जनश्रुति से ज्ञात होता है कि यह स्थल मगधदेशीय कोल राजाओं की राजधानी रही जहां उनका विशाल भवन व आराधन स्थल विद्यमान था। इस क्षेत्र के समस्त कौए जो पक्षियों में सबसे चालाक व तेज होते हैं। उसके रक्षक-संरक्षक माने जाते हंै। इसी कारण यह क्षेत्र कौआडोल कहलाया। एक अन्य मत के अनुसार यहीं गया श्राद्ध पिंडदान के ‘काकबलि’ का शास्त्रोक्त स्थल है जिसकी गणना श्राद्ध में पंचबलि’ के अंतर्गत की जाती है। यहां के नामकरण पर चर्चा आती है कि रामायण काल में यहीं ‘काक’ भुसुण्डी’ का बसेरा रहा जिस कारण इसे कौआ डोल कहा गया। आज भी इस पर्वत के सबसे ऊंचे शिखर पर दो शिलाखंड तीसरे से इस प्रकार सटे हैं कि एक कौआ बैठने पर भी वह दूसरी शिला हिलने लगती है, पर गिरती नहीं। इस तरह स्पष्ट हो जाता है कि यह रामायणकालीन है जो बाद में बलि पुत्र वाणासुर के साम्राज्य में देव पूजन केंद्र के रूप में चर्चित रहा। लगभग 500 फीट ऊंचा, काले-भूरे ग्रेनाइट पत्थर के अनगढ़ छोटे-बड़े खंडों से निर्मित कौआडोल पर्वत के ठीक निचले इलाके में कुरी सराय, समनपुर (श्रमण पुर) व मिर्जापुर नामक गांव है। उपलब्ध्य साक्ष्यों से विदित होता है कि इस स्थान पर तथागत का भी आगमन हुआ जहां बाद में बौद्ध विद्वान शीलभद्र का प्रसिद्ध बौद्ध मठ था। यह स्थान बालकों को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का प्रधान केंद्र था जिन्हें ‘श्रमण’ कहा गया है। यही कारण है कि बगल का गांव काफी दिनों तक श्रमणेर कहलाता था। ऐतिहासिक उद्धरण स्पष्ट करते हैं कि यहां चीनी परिभ्रमणकारी ह्वेनसांग का आगमन हुआ था। यहां उस जमाने के मठ के ध्वसांवशेष व पाषाण-स्तंभ आज भी देखे जा सकते हैं। यहीं पर पुरातत्व विभाग द्वारा निर्मित एक कक्षीय भवन में तथागत की गांधार शैली की 8 फीट ऊंची, विशाल काले पत्थर की बनी मूर्ति रखी है जिसे स्थानीय लोग ‘भीमसेना’ ’भीमसेना बाबा’ अथवा ‘मूंडसेन बाबा’ कहते हैं। इस पर्वत के पूर्वी किनारे के पाषाण खंड के निचले व मध्य भाग में बनी पाषाण- कलाकृति को देखकर मन गद्-गद् हो जाता है। यहां प्रायः सभी देव-विग्रह एक फ्रेमनुमा भाग के अंदर बड़े ही करीने से उकेरे गये हैं जिनको देखने से उच्च पाषाण कलाकारिता का सहज बोध होता है। सबसे अंतिम तरफ से प्रारंभ करने पर वहां एक अलंकृत पाषाण खंड के दर्शन किये जा सकते हंै। जिसके ऊपरी भाग पर चतुर्मुखी शिव लिंग विराजमान है। यहां पाषाण पर देवी मां, उमाशंकर व भैरवजी विराजमान हैं। यहां आज भी चट्टान पर बनी कुल मूर्तियांे की संख्या 300 से अधिक है। पुरातत्वविद् डाॅ. उपेन्द्र ठाकुर जैसे विद्वानों का मानना है कि यहां बाल प्रशिक्षण केंद्र था और प्रायः इन चित्रों का निर्माण किसी सिद्धहस्त के निर्देशन में किया गया है। इसी कारण हरेक कृति में अलग-अलग विविधता मौजूद है। आज भी इस पूरे पाषाण खंड में गणेश, बुद्ध, वराह, सरस्वती, वामन, विष्णु, पक्षी, उमाशंकर, शिव, भैरव, ब्रह्मा, हनुमान, लकुलिश, अष्टदेवी, नवग्रह, दशावतार व गरुड़ आदि की प्रतिमा को सहज में देखा जा सकता है। इतने वर्षों से प्रकृति के थपेड़ों के बावजूद यहां की स्थिति मिला-जुला कर ठीक होना कोई अचरज की ही बात है। इस पर्वत की प्रथम चढ़ाई के बाद खुले मैदान और उससे जुड़ी कितनी ही छोटी-बड़ी गुफाओं का दर्शन किया जा सकता है। पाल काल के बाद इस स्थल की महत्ता का ज्यादा प्रचार-प्रसार न होना दुखद है। बाद में इस्लाम धर्म के प्रभाव ने भी इसकी ख्याति को ज्यादा बढ़ाने का मौका नहीं दिया। आधुनिक काल में सर्वेक्षणकत्र्ता जी. डी. बेगलर ने 1882-83 ई में कौआडोल की यात्रा के बाद इसे इतिहास-पुरातत्व के अप्रतिम स्थल के रूप में रेखांकित किया। आगे जिले के दर्शनीय स्थलों में इसका नाम आया, पर सुविधाओं, खासकर पर्यटन महत्त्व पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। कौआडोल पर्वत की पूर्वी तलहटी के एक बड़े चैकोर भू-भाग पर आज भी 8 खड़े व 14 जमीन में पड़े पाषाण स्तंभ देखे जा सकते हैं। विवरण है कि प्राच्य काल में बंदावत प्रधान चेर राजा का महल यहीं था। बाद में यहां एक मंडप, अर्द्ध मंडप व महामंडप बनाया गया था। सन् 1902 में यहां 13 स्तंभ खड़े थे जिनकी दीवारें लाखोटी ईंट की बनीं थी पर धीरे-धीरे यहां के प्राचीन अवशेष काल के गाल में समाहित होते चले गए। यहां की विशाल बुद्ध मूर्ति के नीचे तथागत की नौ शैली के अलग-अलग मूत्र्ति फलक हैं जिनके ऊपर डेढ़ फीट लंबी लिपि उत्कीर्ण है। इस पूरे पर्वत के निरीक्षण से स्पष्ट होता है कि यहां की कला कृति इस तरह बनाई गयी कि आते-जाते राहगीर की नजर भी यहां पड़े। स्थानीय राजेंद्र सिंह बताते हैं कि बराबर पर्वत पर जिसने भी पाषाण कलाकारिता की, उसका मूल इसी क्षेत्र में है जहां आज भी कलाकारों का, खासकर पत्थर से जुड़े कारीगरों का, जमावड़ा है। गतवर्ष यहां के भ्रमण-दर्शन पर आए पटना के काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान के निदेशक डाॅ. विजय कुमार चैधरी ने इसे व्यापक संभावनाओं वाले पुरास्थल के रूप में रेखांकित किया। देश भर में तीन दर्जन से ज्यादा ऐसे पर्वत हैं जिनकी पाषाण कलाकारिता के कारण उन्हें पर्यटन स्थल का दर्जा दे दिया गया पर कौआडोल पर्यटन स्थल के रूप में सिर्फ नामित ही हो पाया है। आज भी यहां पर्यटन संदर्भ के विशेष आयाम का सर्वधा अभाव है। जरूरत है इसके चतुर्दिक विकास की। इससे यहां का कायाकल्प हो जाएगा, वहीं इसके प्रचार से प्रदेश की पुरातत्व बहार की गौरव-गरिमा दूर देशों तक स्वतः पुष्पित पल्लवित होती रहेगी।