वाकसंयम व्रत
वाकसंयम व्रत

वाकसंयम व्रत  

व्यूस : 7072 | जून 2012
वाकसंयम व्रत पं. ब्रजकिशोर शर्मा ब्रजवासी वाक्संयम यानी वाणी का संयम व्रत भारतीय संस्कृति ही क्या वरन् संपूर्ण संस्कृतियों का पालन करने वाले प्रत्येक मानव मात्र का सर्वश्रेष्ठ व्रत है। वाणी एक अमोघ अस्त्र है, जिसके द्वारा विजय श्री का वरण एवं हित-साधन किया जा सकता है। दूसरी ओर नकारात्मक रूप में वाणी के द्वारा ही शत्रुओं का प्रादुर्भाव होता है तथा पतन के द्वार खुलते हैं। वाक् संसार के समस्त व्यवहारों की नियामिका शक्ति है। महाभूत आकाश इसका जनक है। इसीके माध्यम से वाक् इन्द्रियद्वारा ध्वनित शब्दतरंगें मस्तिष्क पर अपना प्रभाव छोड़ती हैं, जो कोमल और कठोर - दो प्रकार की होती हैं। इन तरंगों में अंतः संकल्प के सूक्ष्म तत्त्वों का समावेश होता है। इस कारण कोमल शब्द-तरंगें जहां मस्तिष्क में आह्लाद भरती हैं- चित्तप्रसादन करती हैं, वहीं कठोर शब्दतरंगें मस्तिष्क में उद्विग्नता भरती हैं और चित्त में विषाद एवं कटुता उत्पन्न कर उत्तेजना लाती हैं। इसलिए वाक्संयमव्रत का परिपालन ही श्रेयस्कर माना गया है। वाणी के संयम के आधार पर भगवान् की ओर सतत उन्मुख रहने की प्रवृत्ति ही वाक्संयमव्रत है। देह-इन्द्रिय समूह को विखर कहा जाता है। विखर में उत्पन्न होने के कारण वाणी को वैखरी कहा जाता है। परा, पश्यन्ती और मध्यमा- ये सभी वाणी के उत्कृष्ट रूप हैं। वाग्व्यवहार में वैखरी रूप है। शास्त्रों व महापुरुषों का भी यही मत है। प्रभु का सतत सान्निध्य प्राप्त करने के लिये मनुष्य पर्वों, व्रतों और उत्सवों का आयोजन करता है। व्रतोत्सव- शृंखला में वाक्संयमव्रत की विशेष महिमा है। वाक्संयमव्रत समस्त सिद्धियों का दाता है। आपके दो मीठे बोल किसी के जीवन में वसन्त का - सा वातावरण बना दें तो समझ लीजिये आपका हृदय पूजा के धूपदान की तरह स्नेह और परदुःखकातरता से परिपूर्ण होकर सर्वदा सौरभ प्रदान करता रहेगा। वाक्संयम से समाज में मैत्रीभाव का विकास होने के साथ-साथ लोककल्याण की भावना भी निरंतर बनी रहती है। परमात्मा ने शब्द को विधाविशेषमें ध्वनित करने की क्षमता प्राणिजगत में मात्र मानव को ही दी है। ब्रह्मविद्या-परिपूर्ण उपनिषत्काव्य श्रीमद्भगवद् गीता में परमात्मा श्रीकृष्ण ने बड़े सार्थक शब्दों में मन, वाणी और शारीरिक तपका निर्वचन किया है। उनके अनुसार मौन मानसिक तप है, वाड्.मय तप नहीं, परंतु मौन शब्द, न बोलने के अर्थ में ही लोक में प्रचलित है। गीता में कहा गया है कि जो किसी को उद्वेग न करनेवाला, प्रिय, हितकारक एवं यथार्थ वाक्य है तथा वेद-शास्त्रों के पठन का एवं परमेश्वर के नाम-जप का अभ्यास है, उसे वाणी संबंधी तप कहा जाता है। वाक्संयम व्रत में सत्य, प्रिय, मधुर, हित, मित और मांगाल्यवाणी का प्रयोगाभ्यास और निन्दा, विकथा, परिहास, सांसारिक विषयचर्चा, अश्लील एवं अनर्गल प्रलापका परित्याग होता है। प्राचीन ग्रंथ मुण्डकोपनिषद् एवं गीतादि प्राचीन ग्रंथ आदि वचन सत्य की महिमा का उद्घोष करते हैं। मनुस्मृति में भी कहा गया है ‘सत्य बोले, प्रिय बोले, सत्य भी अप्रिय न बोले और प्रिय भी असत्य न बोले; यही सनातनधर्म है।’ ‘मधुर वचन बोलने से सब जीव संतुष्ट होते हैं, इसीलिये मधुर वचन ही बोलने चाहिये, वचन में दरिद्रता क्या?’ प्रिय वचन बोलने वाले देव होते हैं और क्रूरभाषी पशु होते हैं। परमात्मा श्रीराम ने कहा है- ‘देवास्ते प्रियवक्तारः पशवः क्रूरवादिनः (वा. रा.) प्रियभाषी को नरदेह में ही देव कहा गया है- ‘ये प्रियाणि भाषयन्ति प्रयच्छन्ति च सत्कृतिम्। श्रीमन्तो वन्द्यचरणा देवास्ते नरविग्रहाः।।’ मधुर: मधुर, पेशल वचन को साम कहते हैं। पति-पत्नी मधुर वचन बोलें। भगवान् श्रीराम - ‘सर्वत्र मधुरा गिरा’ (वा. रा.) सर्वत्र मधुर बोलें- ऐसा कहते हैं । भगवान् श्रीकृष्ण ने गोपियों के अपने पास आते ही जो अमृत-भाषण किया, वह सबके लिये आदर्श है। जब भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि व्रज की अनुपम विभूतियां गोपियां मेरे बिलकुल पास आ गयी हैं, तब उन्होंने अपनी विनोदभरी वाकचातुरी से उन्हें मोहित करते हुए कहा- क्यों न हो भूत, भविष्य और वर्तमानकाल के जितने वक्ता हैं, उनमें वे ही तो सर्वश्रेष्ठ हैं। भगवान श्रीकृष्णने कहा- महाभाग्यवती गोपियों ! तुम्हारा स्वागत है। बतलाओ, तुम्हें प्रसन्न करने के लिये मैं कौन सा काम करूं? व्रज में तो सब कुशल-मंगल है न? कहो, इस समय यहां आने की क्या आवश्यकता पड़ गयी? हित: वनेचर युधिष्ठिर से कहता है- ‘हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः’ अर्थात् हितकर तथा मनको रूचिकर वचन दुर्लभ है (भारवि)। मित: संक्षिप्त, सारभरे बोल ही वाग्मीके लक्षण हैं- ‘मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता’ (भवभूति)। सत्यवचन और संयत व्यवहार ही मानव-समाज में अमृत घोलते हैं। ‘अतिवादांस्तितिक्षेत्’। बोलें कम, सुनें ज्यादा। ज्यादा बोलना ओछेपन का लक्षण है। किसे ज्ञान देना चाहते हैं, तुमसे ज्यादा ज्ञान लोगों के पास है। जोश में तो बिलकुल न बोला जाय। वाणी में मितव्ययी बनें। समाज में वाणी का प्रदूषण भयंकर है- प्रकृति ने स्वर दिया है- शोर नहीं। मांगल्य: सामवेद में कहा गया है - ‘ भद्रा उत प्रशस्तयः’ सुंदर वाणी कल्याणकारिणी होती है। सबसे मंगलकारी वचन बोलना चाहिये, अमंगलकारी नहीं। मदालसा अपने पुत्रों को सीख देती है - ‘न चामांगल्यवाग् भवेत्’ (मार्क. पु.)। उक्त वक्तव्य विधि के साथ महात्मा विदुर बिना पूछे बोलने वाले को मूढ, नराधम कहते हैं।- ‘अपृष्टो बहुभाषते मूढचित्तो नराधमः ।’ परंतु ज्ञानार्णव में कहा गया है कि धर्म के नाश में, क्रियाध्वंस में, सुसिद्धान्तनिरूपण में तथा सत्यस्वरूप- प्रकाशन में बिना पूछे भी बीच में बोलना प्रशस्त (वचोगुप्ति) है- महाभारत में देवगुरु बृहस्पति अति व्यावहारिक निर्देश देते हैं कि जो सभी को देखकर पहले ही बात करता है और सबसे मुस्कराकर ही बोलता है, उस पर सब लोग प्रसन्न रहते हैं। इस प्रकार वाकसंयमव्रत को अपने जीवन में उतारकर परम तत्त्व की प्राप्ति का दृढ़ प्रयत्न करना चाहिये। वाक्संयम व्रत का पालन तो आज से अभी से इसी क्षण से प्रारंभ करना ही मंगलकारी है तथा यह साधनों का भी साधन है। सदा-सर्वदा आपके वाणी रूपी उद्बोधन में तो दूसरों के प्रति यह भाव हमेशा बना ही रहना चाहिए। जिंदगी को जिंदगी सा उपहार दो, वीराने को मधुर-मधुर बहार दो। मत दो किसी को दर्दों भरी मुस्कान, देना है तो हर दुखी को प्यार दो।।



Ask a Question?

Some problems are too personal to share via a written consultation! No matter what kind of predicament it is that you face, the Talk to an Astrologer service at Future Point aims to get you out of all your misery at once.

SHARE YOUR PROBLEM, GET SOLUTIONS

  • Health

  • Family

  • Marriage

  • Career

  • Finance

  • Business


.