भागवतम के अनुसार भोग-विलास का फल इन्द्रियों को तृप्त करना नहीं है, उसका प्रयोजन है केवल जीवन निर्वाह। जीवन का फल भी तत्त्व जिज्ञासा है, बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना उसका फल नहीं है। शास्त्रीय ज्ञान के विपरीत, वर्तमान युग में मनुष्य आर्थिक समृद्धि को ही जीवन का सार और कर्मों का फल मानता है। फलस्वरूप, वैध-अवैध साधनों द्वारा धन संग्रह करने के लिए लालायित एवं प्रयासरत रहता है। इसका एक उदाहरण यह भी है कि ज्योतिषियों के समक्ष अनेकों जातक केवल यह जानने के लिए आते हैं कि हम आगामी जीवन में धन कमाएंगे या नहीं और एक भी जातक अपनी आध्यात्मिक उन्नति के बारे में नहीं पूछता। ज्योतिषीय दृष्टिकोण से कुंडली में द्वितीय भाव एवं एकादश भाव क्रमशः धन भाव और लाभ भाव कहलाते हैं।
त्रिकोण स्थान (पंचम एवं नवम भाव) लक्ष्मी स्थान कहलाते हैं। जन्म कुंडली में लग्न, लक्ष्मी स्थानों, धन और लाभ भावों के स्वामियों के बीच संबंध स्थापित होने पर धन योग निर्मित होते हैं। इसके अलावा कुछ विशिष्ट ग्रहों के बीच संबंध भी धन योग निर्मित करते हैं। कुंडली में जितने अधिक धन योग होंगे, जातक की उतनी ही अधिक आर्थिक उन्नति की संभावना होती है। धन योगों की पुष्टि नवांश और होरा कुंडली से भी करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त, शुभ भावों में निर्मित योग बाधा रहित अधिक धनप्रद होते हैं। इस लेख को धन योगों तक ही सीमित रखा गया है। राजयोगों और पंच महापुरुष योगों आदि का वर्णन नहीं किया जा रहा है।
सामान्य धन योग निम्न भाव/भावेशों के परस्पर संबंधों से धन योग निर्मित होते हैं:
1) लग्नेश और द्वितीयेश
2) लग्नेश और पंचमेश
3) लग्नेश और नवमेश
4) लग्नेश और एकादशेश
5) द्वितीयेश और पंचमेश
6) द्वितीयेश और नवमेश
7) द्वितीयेश और एकादशेश
8) पंचमेश और नवमेश
9) पंचमेश और एकादशेश
10) नवमेश और एकादशेश गप) चन्द्र और मंगल की युति (किसी भी भाव में)
11) 2 और 11 भावों में शुभ ग्रह स्थित हों अथवा 2 और 11 को स्वामी दो या दो से ज्यादा ग्रहों से संबंध बनाते हों गपपप) अर्थ त्रिकोण (2, 6, 11) के स्वामी कुंडली के शुभ भावों के स्वामियों के साथ संबंध बनाते हों।
विशेष धन योग पराशर जी के अनुसार:
1) निम्न सात योगों में जन्मा जातक निश्चित ही धनवान होता है:
a. सूर्य लग्न में स्वराशिस्थ हो + मंगल और गुरु से युत दृष्ट हो।
b. चन्द्र लग्न में स्वराशिस्थ हो + बुध या गुरु से युत दृष्ट हो।
c. मंगल लग्न में स्वराशिस्थ हो + बुध शुक्र और शनि से युत दृष्ट हो
d. बुध लग्न में स्वराशिस्थ हो + शनि और गुरु से युत दृष्ट हो।
e. गुरु लग्न में स्वराशिस्थ हो + बुध और मंगल से युत दृष्ट हो।
f. शुक्र लग्न में स्वराशिस्थ हो+ शनि और बुध से युत दृष्ट हो।
g. शनि लग्न में स्वराशिस्थ हो + मंगल या गुरु से युत दृष्ट हो।
2) निम्न योगों में जन्मा जातक निश्चित ही धनवान होता है
a. यदि पंचम भाव में शुक्र स्वराशिस्थ हो और एकादश भाव में मंगल स्वराशिस्थ हों।
b. पंचम में मंगल स्वराशिस्थ हो और एकादश भाव में (वृषभ या मेष राशि) शुक्र हो तो भी महाधनी।
c. यदि पंचम में बुध स्वराशिस्थ हो और एकादश भाव (धनु या मीन राशि) में चन्द्र, मंगल, गुरु हो तो महाधनवान होता है (नोट: चन्द्र-मंगल युति भी धन के लिए अच्छी है)।
d. यदि पंचम में गुरु स्वराशिस्थ हो और एकादश भाव में (मिथुन या कन्या राशि) बुध हो तो धनवान।
e. यदि पंचम में सूर्य स्वराशिस्थ हो, एकादश (कुम्भ राशि) में शनि, चन्द्र और गुरु तो महा धनवान।
f. पंचम में चन्द्र स्वराशिस्थ हो और एकादश भाव में शनि तो भी बहुत धनवान।
g. यदि पंचम में शनि स्वराशिस्थ हो और एकादश भाव में (कर्क या सिंह राशि) चन्द्र और सूर्य हो तो महा धनी।
पंचमेश एवं नवमेश दोनों विशेष धनप्रद होते हंै। इन दोनों से युक्त ग्रह अपनी दशा में धनप्रद होते हैं। इन योगों में ग्रहों की क्रूरता और सौम्यता के अनुसार सुमार्ग या कुमार्ग से धन का लाभ एवं बल के अनुसार अल्प या अधिक धन समझना चाहिए। नवमेश से संपत्ति ज्ञान का अनूठा प्रकार उत्तर कालामृत के अनुसार धन योगों का निर्धारण करने के लिए इंदु लग्न (नवमेश से संपत्ति ज्ञान का अनूठा प्रकार) का प्रयोग भी किया जाना चाहिए। इंदु लग्न निर्धारण के लिए प्रत्येक ग्रह की निश्चित कलाएं/रश्मि हैं ः सूर्य से शनि को क्रमशः 30, 16, 6, 8, 10, 12, 1 कलाएं मिलती हैं। लग्न से नवमेश एवं चन्द्र से नवमेश की कलाओं को जोड़कर, उस योग को 12 से विभक्त किया जाता है। जो शेष बचता है उसे जन्मकुंडली में चन्द्र स्थिति से गिनकर आने वाले भाव में इंदु लग्न को स्थापित किया जाता है। इंदु लग्न जिस भाव में स्थित होती है उस भाव को इंदु लग्न और उस भाव के स्वामी को इंदु लग्नेश कहते हैं। यदि इंदु लग्न राशि शुभ ग्रह युक्त हो और अशुभ ग्रह के प्रभाव से हीन हो या उच्च ग्रह युक्त हो या इंदु लग्नेश द्वारा दृष्ट हो तो मनुष्य बहुत धनी होता है। पाप ग्रहों के प्रभाव से भी जातक सामान्य धनी होता है। इसी प्रकार इंदु लग्न से केंद्र/त्रिकोण के ग्रह भी अपनी दशा में जातक के लिए धन प्रद होते हैं।
अन्य धन योग सर्वार्थ चिंतामणि के अनुसार:
1) यदि कुंडली में सूर्य से केंद्र (1, 4, 7, 10) में चन्द्रमा हो तो धन-बुद्धि अल्प होती है, यदि पणफर (2, 5, 8, 11) में हो तो धनादि मध्यम और यदि अपोक्लिम (3, 6, 9, 12) में चन्द्र हो तो धनादि उत्तम होता है।
2) यदि कुंडली में चंद्रमा पूर्ण हो और चन्द्र स्थिति सप्तम से लग्न भाव (दृश्य चक्र) में हो तो जातक राजा होता है।
3) यदि कुंडली में लग्न से उपचय (3, 6, 10, 11) में समस्त शुभ ग्रह हों तो जातक अधिक धनी, यदि दो शुभ ग्रह हों तो मध्यम धनी और यदि एक शुभ ग्रह हो तो अल्प धनी होता है।
जातक पारिजात के अनुसार निम्न योगों एवं दशा में जातक धनी होता है:
1) लग्नेश लग्न में, धनेश धन में और लाभेश लाभ में हो।
2) द्वितीयेश एवं एकादशेश की युति लाभ में।
3) द्वितीयेश एवं एकादशेश स्वक्षेत्री उच्चादि हों।
4) द्वितीयेश एवं एकादशेश परस्पर मित्र हों और लग्न में हों।
5) द्वितीयेश, एकादशेश एवं लग्नेश लग्न में हों।
6) लग्नेश बली होकर द्वितीय में हो तो धनदायक है।
7) द्वितीय भाव में स्थित शुभ फलप्रद ग्रह, द्वितीय भाव को देखने वाला शुभ ग्रह और द्वितीयेश, ये तीनों ग्रह अपनी दशा-अन्तर्दशा में उन वस्तुओं से लाभ कराते हैं जिनके ये कारक होते हैं।
फलदीपिका के अनुसार दो भावेशों के परिवर्तन से 28 महायोग निर्मित होते हैं और जो जातक महायोग में उत्पन्न होता है उस पर लक्ष्मी जी की कृपा होती है:
1) लग्नेश का धनेश/द्वितीयेश, सुखेश/चतुर्थेश, पंचमेश, सप्तमेश, भाग्येश/नवमेश, राज्येश/दशमेश या लाभेश/एकादशेश से परिवर्तन से निर्मित सात योग।
2) द्वितीयेश का चतुर्थेश, पंचमेश, सप्तमेश, नवमेश, दशमेश या लाभेश से परिवर्तन से निर्मित छः योग।
3) सुखेश का पंचमेश, सप्तमेश, नवमेश, दशमेश या लाभेश से परिवर्तन से निर्मित पांच योग।
4) पंचमेश का सप्तमेश, नवमेश, दशमेश या लाभेश से परिवर्तन से निर्मित चार योग।
5) सप्तमेश का नवमेश, दशमेश या लाभेश से परिवर्तन से निर्मित तीन योग।
6) नवमेश का दशमेश या लाभेश से परिवर्तन से निर्मित दो योग।
7) दशमेश और लाभेश का परिवर्तन।
फलदीपिका में उपरोक्त योगों के अतिरिक्त:
1) अमला योग में जन्मे जातक को भूमि का स्वामी, धनी, नीतिज्ञ और यशस्वी बताया है। यदि लग्न या चन्द्रमा से दशम में शुभ ग्रह हो तो अमला योग होता है।
2) लक्ष्मी योग में जन्मे जातक को तेजस्वी और लक्ष्मी जी का कृपा पात्र बताया है। यदि नवमेश और शुक्र दोनों अपने घर में या उच्चराशिस्थ होकर लग्न से केंद्र/त्रिकोण में हों तो लक्ष्मी योग होता है।
3) श्रीनाथ योग में जन्मे जातक को लक्ष्मीवान, सुन्दर, सुखी और सरस वचन बोलने वाला बताया है। यदि बुध, शुक्र और नवमेश उच्च राशि, स्वराशि या मित्र राशि में स्थित होकर लग्न से केंद्र/त्रिकोण में हों तो श्रीनाथ योग होता है।
इस लेख के अंत में कबीर दास जी की पंक्तियाँ याद आती हैं: साईं इतना दीजिये, जामे कुटुम समाय। मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय।। हे परमात्मा, मुझे इतना ही देना जिसमें बस मेरे परिवार का गुजारा चल जाये, मैं भी भूखा न रहूँ और आने वाले साधुजनों के लिए भी पर्याप्त हो। संभवतः इस श्लोक के पीछे भागवतम का ज्ञान हो जिसमें जीवन का उद्देश्य ऋण से उऋण होना कहा गया है जो तत्त्व जिज्ञासा के मार्ग पर चल कर ही संभव है। धनादि तो केवल जीवन निर्वाह मात्र के लिए हैं।