1. विषय प्रवेश प्राचीन समय से ही व्यवसाय को सर्वोत्तम जीविकोर्पाजन का साधन माना जाता रहा है क्योंकि इसमें अधीनता का भाव नहीं होता। इस तथ्य का अनुमोदन तीसरी शताब्दी में रचित ग्रंथ पचतन्त्रं के मित्रभेदः तन्त्रं में इस प्रकार किया गया हैः ”भिक्षा में मान कम होता है, नौकरी में राजा उचित तनख्वाह नहीं देता, कृषि में कठिन परिश्रम है, शिक्षा में सदैव मृदु व्यवहार रखना पड़ता है, साहूकारी में व्यक्ति स्वयं गरीब होता जाता है क्योंकि उधार दिया पैसा आसानी से वापिस नहीं आता और व्यवसाय से उत्तम अन्य कोई भी कार्य नहीं है।“ इसी कारणवश प्रत्येक व्यक्ति में व्यवसायी बनने की प्रबल इच्छा होती है। आर्ष साहित्य में व्यवसायी बनने के योगों का वर्णन एकत्र रूप से नहीं है। इसीलिए ज्योतिषियों के समकक्ष इस प्रकार के प्रश्नों के समाधान की एक चुनौती होती है। कुंडली में व्यवसायी बनने के योगों में एक बहुत महत्वपूर्ण योग हैः लग्न-लग्नेश और षष्ठम-षष्ठेश का तुलनात्मक अध्ययन। इसी का यहां तुलनात्मक अध्ययन किया जा रहा है।
2. लग्न-लग्नेश सभी ज्योतिषीय शास्त्रों में लग्न को जन्मकुंडली का आधार माना है। लग्न की महत्ता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि यह भाव केंद्र एवं त्रिकोण दोनों का प्रतिनिधित्व करता है और लग्नेश बहुत से योगों में सम्मिलित होता है। विभिन्न शास्त्रों में लग्न के कारकत्व इस प्रकार वर्णित हैंः
बृहत्पाराशरहोराशास्त्रः शरीर, स्वरूप, वर्ण, बलाबल, सुख, दुःख, स्वभाव आदि।
उत्तर कालामृतः शरीर, सुख-दुःख, जन्म- स्थान, यश, बल, गौरव, मान, मर्यादा, त्वचा, नींद, स्वभाव, गौरव, नम्रता, आकृति, अभिमान, आयु, शान्ति आदि।
जातक तत्त्वमः शरीर, वर्ण, आकृति, लक्षण, सुख, दुःख, आयुष्य, सन्तति, सम्पदा, गुण, धर्म आदि
जातकाभरणमः रूप, वर्ण, चिह्न, जाति, सुख-दुःख और साहस आदि।
मानसागरीः रूप, वर्ण, चिह्न, जाति, सुख-दुःख, साहस, आयु, शरीर, नींद आदि।
जातक पारिजातः शरीर, रंग, आकृति, शरीर लक्षण, यश, गुण, पद्वी, सुख-दुःख, प्रवास, तेजस्विता, बल, निर्बलता आदि।
3. षष्ठम-षष्ठेश षष्ठम भाव, अर्थ त्रिकोण (प्प्ए टप्ए ग्) का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है और षष्ठम भाव को नौकरी या अधीनता का भाव भी माना जाता है। विभिन्न शास्त्रों में षष्ठम भाव के कारकत्व इस प्रकार वर्णित हैंः
बृहत्पाराशरहोराशास्त्र: आशंका, आतंक, डर, शत्रु, चोट आदि।
उत्तर कालामृतः दास, पाँव की बेड़ी, परिश्रम, रोग, विघ्न, लड़ाई, उग्र कर्म, ऋण, मानसिक व्यथा, बदनामी, शत्रुता, रोग, बदनामी आदि।
जातक तत्त्वमः शत्रु, चोर, चोरी, चिंता, आशंका, क्रूरता, विघ्न, क्लेश और रोग आदि।
जातकाभरणमः शत्रु, क्रूर कार्य, रोग, चिंता, आशंका आदि।
मानसागरीः शत्रु, कुकर्म, रोग, शंका, भय, चतुष्पद, युद्ध आदि।
जातक पारिजातः रोग, शत्रु, विपत्ति, चोट आदि।
4. प्रमेय (भ्लचवजीमेपे) निध्र्ाारण व्यवसायी बनने में अनेकों प्रवृत्तियों और योगों का योगदान होता है परन्तु इस लेख में लग्न-लग्नेश और षष्ठम-षष्ठेश के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर निर्मित निम्न प्रमेय का निरीक्षण कर उसका प्रतिपादन करेंगे: ”व्यवसायियों की कुंडली में लग्न-लग्नेश को षष्ठम-षष्ठेश से अधिक बली होना चाहिए।“ मानसागरी के अनुसार भाव निम्न स्थितियों में बली होता हैः
भाव में शुभ ग्रह बैठें हों।
भाव पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो।
भाव में भावेश बैठा हो या भाव को दृष्ट करता हो।
भाव पर शुभ भावेशों की दृष्टि हो।
भाव से प्, प्प्, प्ट, ट, टप्प्, प्ग्, ग् (प्प्प्, टप्, टप्प्प्, ग्प्, ग्प्प् को छोड़कर) भावों में शुभ ग्रह हों, भावेश हो, पाप ग्रह की स्थिति या दृष्टि न हो। जातक पारिजात के अनुसार भावेश स्थिति से भाव वृद्धि के नियम निम्न हैंः
अगर भावेश लग्न से केंद्र/त्रिकोण में हो।
अगर भावेश शुभ दृष्ट हो।
अगर भावेश उच्चादि वर्गों में गया हो व बली हो।
5. नियमों का प्रतिपादन 5.1 व्यवसायी उदाहरण 1 लग्न कुंडली 19.4.1957, 19.53, आडेन बेरेक,यमन जन्मकुंडली के षष्ठम भाव पर कोई शुभाशुभ प्रभाव नहीं है और षष्ठेश गुरु वक्री होकर शनि एवं मंगल द्वारा दृष्ट हैं। लग्न पर लग्नेश शुक्र की दृष्टि है, लग्न पाँच ग्रहों से प्रभावित है और लग्नेश शुक्र लग्न से केंद्र में हैं। लग्न-लग्नेश पर कुछ पीड़ा भी है परन्तु षष्ठम-षष्ठेश की अपेक्षा लग्न-लग्नेश स्पष्ट रूप से अधिक बली हैं।
निष्कर्षतः यह जातक स्वतंत्र व्यवसाय की ओर प्रेरित रहेगा। यह कुंडली एक प्रतिष्ठित व्यवसायी की है।
उदाहरण 2 लग्न कुंडली 30.9.1974, 02.07, नई दिल्ली शनि एवं मंगल की दृष्टि से षष्ठम भाव पीड़ित है और षष्ठेश गुरु वक्री एवं वर्गोत्तम होकर अशुभ स्थानगत हैं। लग्न पर कोई शुभाशुभ प्रभाव नहीं है, लग्नेश चन्द्र अशुभ स्थानगत हैं परन्तु गुरु की युति से बल मिल रहा है और नवांश में वृषभ राशि में उच्चस्थ हैं। अर्थात, षष्ठम-षष्ठेश की अपेक्षा लग्न-लग्नेश अधिक बली हैं जिससे जातक स्वतंत्र व्यवसाय की ओर ही प्रेरित रहा। यह कुंडली एक व्यवसायी की है
जिसके व्यवसाय का आर्थिक स्तर औसत है।
उदाहरण 3 लग्न कुंडली 9.9.1958, 12.30, सोनीपत, हरियाणा लग्न में स्थिर राशि है जो पांचवंे नवांश में होने से वर्गोत्तम है। लग्न पर लग्नेश की दृष्टि है। लग्नेश एवं षष्ठेश दोनों मंगल हैं। षष्ठम पर केवल गुरु की दृष्टि है जो स्वयं शत्रु राशिस्थ हैं और द्वादशस्थ होकर निर्बल हैं। निष्कर्षतः षष्ठम की अपेक्षा लग्न अधिक बली है जिससे जातक स्वतंत्र व्यवसाय की ओर प्रेरित रहेगा। यह कुंडली एक सम्पन्न दुकानदार की है।
उदाहरण 4 लग्न कुंडली 11.5.1953, 13.40, पालमपुर, हि.प लग्न पर नवमेश मंगल की और षष्ठम पर राहु/केतु के अतिरिक्त पंचमेश/अष्टमेश गुरु की दृष्टि है अर्थात, ग्रह और भावेश के अनुसार एक मिश्रित सा प्रभाव है। लग्नेश सूर्य दो शुभ ग्रहों के साथ नवम में उच्चस्थ हैं और शुभ कर्तरी होकर षष्ठेश से अधिक बली हैं जो द्वितीय में वक्री होकर पंचमेश/अष्टमेश गुरु से दृष्ट हैं। निष्कर्षतः जातक स्वतंत्र व्यवसाय की ओर प्रेरित हुआ। यह कुंडली एक जौहरी की है।
उदाहरण 5 लग्न कुंडली 19.4.1981, 10.30, इटावा, उ.प जन्मकुंडली के लग्नेश और षष्ठेश मंगल ही हैं। षष्ठम भाव पर मंगल-दृष्ट शुक्र की दृष्टि है जो सप्तमेश/द्वादशेश हैं। लग्न पर पक्ष बली एवं उच्चस्थ नवमेश चन्द्र की दृष्टि है। लग्न पर शनि की भी दृष्टि है परन्तु कुल मिलाकर लग्न ही बली है। निष्कर्षतः यह जातक स्वतंत्र व्यवसाय की ओर प्रेरित रहा और कुछ दो वर्ष नौकरी करने के पश्चात् से एक बहुत छोटी सॉफ्टवेर कम्पनी चलाते हैं जिसमें बहुत उतार-चढाव रहते हैं।
5.2 नौकरी-पेशा जातक उदाहरण - 6 लग्न कुंडली 29.2.1969, 20.00, नई दिल्ली जन्मकुंडली के लग्न और षष्ठम अपने-अपने भावेशों के प्रभाव से बली हैं। षष्ठेश सूर्य के षष्ठमस्थ होने से षष्ठम-षष्ठेश अधिक बली हैं क्योंकि लग्नेश गुरु शत्र राशिस्थ होकर शत्रु बुध से युत हैं। जातिका के पति का व्यवसाय है परन्तु जातिका पहले लेखाधिकारी थी और पिछले लगभग एक दशक से अध्यापिका है।
उदाहरण 7 लग्न कुंडली 24.3.1978, 10.34, इटावा, उ.प्र. जन्मकुंडली के षष्ठम भाव पर गुरु, वर्गोत्तम मंगल और योगकारक वक्री शनि की दृष्टि है। लग्न पर केवल योगकारक वक्री शनि की दृष्टि है। अर्थात, षष्ठम भाव स्पष्ट रूप से लग्न से अधिक बली है। लग्नेश और षष्ठेश दोनों शुक्र हैं जो एकादश में उच्चस्थ हैं। जातक नौकरी में ही रहेगा हालांकि लग्नेश के बली होने से बार-बार स्वतंत्र व्यवसाय करने की इच्छा भी आती रहेगी। जातक एक सॉफ्टवेयर कम्पनी में कार्यरत हैं।
उदाहरण 8 लग्न कुंडली 13.11.1959, 19.53, नई दिल्ली जन्मकुंडली के षष्ठम में वर्गोत्तम चन्द्र की स्थिति और षष्ठम पर भावेश मंगल की दृष्टि से भाव बली है हालांकि नीचस्थ सूर्य का प्रभाव भी है। लग्न में दो शुभ ग्रहों की स्थिति है परन्तु बुध अष्टमेश भी है और भावेश लग्न से द्वादशस्थ है अर्थात, लग्न-लग्नेश की अपेक्षा षष्ठम-षष्ठेश स्पष्ट रूप से अधिक बली है। जातक नौकरीपेशा थे और थल सेना से सेवानिवृत्त हुए।
उदाहरण 9 लग्न कुंडली 19.7.1976, 10.03, किर्सेहिर, तुकी षष्ठम भाव लग्न की अपेक्षा अधिक बली है क्योंकि उस पर षष्ठेश शनि की दृष्टि है। लग्न पर गुरु की दृष्टि और मंगल की स्थिति से मिश्रित प्रभाव है। षष्ठेश शनि शत्रु राशि में हैं और लग्नेश शत्रु के साथ, हालांकि नवांश में दोनों ही उच्चस्थ हैं परन्तु षष्ठेश की द्वितीय में स्थिति स्पष्ट रूप से लग्नेश की अष्टम स्थिति से बेहतर है। जातिका उच्च सरकारी पद पर कार्यरत है।
उदाहरण 10 लग्न कुंडली 7.8.1973, 02.00, नई दिल्ली षष्ठम भाव पर षष्ठेश मंगल की दृष्टि है और षष्ठेश मंगल एकादश में स्वराशिस्थ हैं। लग्न पर राहु/केतु और शनि का प्रभाव है और लग्नेश पर सूर्य, मंगल एवं वक्री गुरु का। निष्कर्षतः जातक नौकरी की ओर ही प्रेरित रहेगा। जातक एक अमेरिकी कॉलेज में सहायक प्रोफेसर है।
6. निष्कर्ष उपरोक्त उदाहरणों के अतिरिक्त 25 व्यवसायियों और 25 नौकरीपेशा जातकों की कुंडलियों के लग्न और षष्ठम भाव का तुलनात्मक अध्ययन किया गया जिसका निम्न परिणाम प्राप्त हुआः
व्यवसायियों में 24 (96ः) कुंडलियों में षष्ठम-षष्ठेश की अपेक्षा लग्न-लग्नेश अधिक बली थे।
नौकरीपेशा जातकों में 23 (92ः) कुंडलियों में लग्न-लग्नेश की अपेक्षा षष्ठम-षष्ठेश अधिक बली थे। आपके समक्ष ऐसी कुंडलियाँ भी आएंगी जिसमें जातक नौकरीपेशा तो हैं परन्तु अपनी नौकरी में स्वतंत्र वातावरण प्राप्त करते हैं, स्वतंत्र निर्णय ले सकते हैं और उन्हें किसी प्रकार का डर/अधीनता का भाव नहीं होता। ऐसे जातकों की कुंडलियों में लग्न-लग्नेश और षष्ठम-षष्ठेश पर मिश्रित प्रभाव ही मिलेंगे।
प्रकार एक गृहिणी की कुंडली में अधीनता या स्वतंत्रता का भाव उसकी कार्य शैली से प्रदर्शित होता है। निष्कर्ष: लग्न-लग्नेश और षष्ठम-षष्ठेश का तुलनात्मक अध्ययन व्यवसायी और नौकरी-पेशा होने की प्रवृत्ति निर्धारण का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है परन्तु केवल इसी एक घटक के आधार पर अंतिम निर्णय नहीं लिया जाना चाहिए।