पदार्थों में, भोगों में, व्यक्तियों में, वस्तुओं में, घटनाओं में जो राग है, मन का खिंचाव है, प्रियता है, वही दोषी है। मनकी चंचलता इतनी दोषी नहीं है। वह भी दोषी तो है, परंतु लोगों ने केवल चंचलता को ही दोषी मान रखा है। वास्तव में दोषी है राग, आसक्ति और प्रियता। साधक के लिए इन बातों को जानने की बड़ी आवश्यकता है कि प्रियता ही वास्तव में जन्म-मरण देने वाली है। ऊँच-नीच योनियों में जन्म होने का हेतु गुणों का संग है। आसक्ति और प्रियता की तरफ तो ख्याल ही नहीं है, पर चंचलता की तरफ ख्याल होता है। विशेष लक्ष्य इस बात का रखना है कि वास्तव में प्रियता बांधनेवाली चीज है। मन की चंचलता उतनी बांधने वाली नहीं है। चंचलता तो नींद आने पर मिट जाती है, परंतु राग उसमें रहता है। राग (प्रियता) को लेकर वह सोता है। इस बात का बड़ा भारी आश्चर्य है कि मनुष्य राग को नहीं छोड़ता। आपको रुपये बहुत अच्छे लगते हैं। आप मान-बड़ाई प्राप्त करने के लिए दस-बीस लाख रुपये खर्च भी कर देंगे, परंतु रुपयों में जो राग है, वह आप खर्च नहीं कर सकते।
रुपयों ने क्या बिगाड़ा है? रुपयों में जो राग है, प्रियता है, उसको निकालने की जरूरत है। इस तरफ लोगों का ध्यान ही नहीं है, लक्ष्य भी नहीं है। इसलिये आप इस पर ध्यान दें। यह तो राग है, इसकी महत्ता भीतर जमी हुई है। वर्षों से सत्संग करते हैं, विचार भी करते हैं, परंतु उन पुरुषों का भी ध्यान नहीं जाता कि इतने अनर्थ का कारण क्या है? व्यवहार में, परमार्थ में, खान-पान, लेन-देन में सब जगह राग बहुत बड़ी बाधा है। यह हट जाय तो आपका व्यवहार भी बड़ा सुगम और सरल हो जाय। परमार्थ और व्यवहार में भी उन्नति हो जाय। विशेष बात यह है कि आसक्ति और राग खराब हैं। ऐसी सत्संग की बातें सुन लोगे, याद कर लोगे, पर राग के त्याग के बिना उन्नति नहीं होगी। तो प्रश्न यह होना चाहिए कि राग और प्रियता का नाश कैसे हो? भगवान ने गीता में इस राग को पांच जगह बताया है। ‘‘इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।’’ स्वयं में, बुद्धि में, मन में, इन्द्रियों में और पदार्थों में- इन पांच जगहों पर राग बैठा है।
पांच जगह में भी गहरी रीति से देखा जाय तो मालूम होगा कि ‘‘स्वयं’’ में जो राग है, वही शेष चार में स्थित है। अगर ‘‘स्वयं’’ का राग मिट जाय तो आप निहाल हो जाओगे। चित्त चाहे चंचल है, परंतु राग के स्थान पर भगवान में प्रेम हो जाय तो राग का खाता ही उठ जायेगा। भगवान में आकर्षण होते ही राग खत्म हो जायेगा। भगवान् से प्रेम हो, इसकी बड़ी महिमा है, इसकी महिमा ज्ञान और मोक्ष से भी अधिक कहें तो अतिशयोक्ति नहीं। इस प्रेम की बड़ी अलौकिक लौ महिमा है। इससे बढ़कर कोई तत्व है ही नहीं। ज्ञान से भी प्रेम बढ़कर है। उस प्रेम के समान दूसरा कुछ नहीं है। भगवान् में प्रेम हो जाय तो सब ठीक हो जाय। वह प्रेम कैसे हो? संसार से राग हटने से भगवान् में प्रेम हो जाय। राग कैसे हटे? भगवान् में प्रेम होने से दोनों ही बातें हैं - राग हटाते जाओ और भगवान् से प्रेम बढ़ाते जाओ। पहले क्या करें? भगवान में प्रेम बढ़ाओ। जैसे रामायण का पाठ होता है। अगर मन लगाकर और अर्थ को समझकर पाठ किया जाय तो मन बहुत शुद्ध होता है।
राग मिटता है। भगवान् की कथा प्रेम से सुनने से भीतर का राग स्वतः ही मिटता है और प्रेम जागृत होता है। उसमें एक बड़ा विलक्षण रस भरा हुआ है। पाठ का साधारण अभ्यास होने से तो आदमी उकता सकता है, परंतु जहां रस मिलने लगता है, वहां आदमी उकताता नहीं। इसमें एक विलक्षण रस भरा है- प्रेम। आप पाठ करके देखो। उसमें मन लगाओ। भक्तों के चरित्र पढ़ो उससे बड़ा लाभ होता है, क्योंकि वह हृदय में प्रवेश करता है। जब प्रेम प्रवेश करेगा तो राग मिटेगा, कामना मिटेगी। उनके मिटने से निहाल हो जाओगे। यह विचारपूर्वक भी मिटता है, पर विचार से भी विशेष काम देता है प्रेम। प्रेम कैसे हो? जो संत, ईश्वर भक्त जीवन मुक्त हो गये। उनकी कथाएं गा सदा मन को शुद्ध करने के लिये।। मन की शुद्धि की आवश्यकता बहुत ज्यादा है। मन की चंचलता की अपेक्षा अशुद्धि मिटाने की बहुत ज्यादा जरूरत है। मन शुद्ध हो जायेगा तो चंचलता मिटना बहुत सुगम हो जायेगा। निर्मल होने पर मन को चाहे कहीं पर लगा दो।
कपट, छल, छिद्र भगवान् को सुहाते नहीं। परंतु इनसे आप डरते ही नहीं। झूठ बोलने से, कपट करने से, धोखा देने से इनसे तो बाज आते ही नहीं। इनको तो जान-जानकर करते हो तो मन कैसे लगे? बीमारी तो आप अपनी तरफ से बढ़ा रहे हो। इसमें जितनी आसक्ति है, प्रियता है, वह बहुत खतरनाक है, विचार करके देखो। आसक्ति बहुत गहरी बैठी हुई है। भीतर पदार्थों का महत्व बहुत बैठा हुआ है। यह बड़ी भारी बाधक है। इसे दूर करने के लिये सत्संग और सत् शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिये, जिससे बहुत आश्चर्यजनक लाभ होता है। मन कैसे स्थिर हो? मन को स्थिर करने के लिए बहुत सरल युक्ति है। आप मन से भगवान का नाम लें और मन से ही गणना रखें। राम-राम-राम ऐसे राम का नाम लें। एक राम, दो राम, तीन राम, चार राम, पांच राम। न तो एक-दो तीन बोलें, न अंगुलियों पर रखें, न माला पर रखें। मन से ही तो नाम लें और मन से ही गणना करें। करके देखो मन लगे बिना यह होगा नहीं और होगा तो मन लग ही जाएगा।
एकदम सरल युक्ति है- मन से ही तो नाम लो, मन से ही गिनती करो और फिर तीसरी बार देखो तो उसको लिखा हुआ देखो। ‘‘राम’’ ऐसा सुनहरा चमकता हुआ नाम लिखा हुआ दिखे। ऐसा करने से मन कहीं जाएगा नहीं और जाएगा तो यह क्रिया होगी नहीं। इतनी पक्की बात है। कोई भाई करके देख लो। सुगमता से मन लग जाएगा। कठिनाई पड़ेगी तो यह क्रम छूट जाएगा। न नाम ले सकोगे, न गणना कर सकोगे, न देख सकोगे। इसलिए मन की आंखों से देखो, मन के कानांे से सुनो, मन की जुबान बोलो। इससे मन स्थिर हो जाएगा। दूसरा उपाय यह है कि जुबान से आप एक नाम लो और मन से दूसरा। जैसे मुंह से नाम जपो- हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। ऐसा करते रहो। भीतर राम-राम-राम कहकर मन लगाते रहो। देखो मन लगता है या नहीं। ऐसा संभव है तभी बताता हूं। कठिन इसलिये है कि मन आपके काबू में नहीं है मन लगाओ, इससे मन लग जाएगा।
तीसरा उपाय है अगर मन लगाना है तो मन से कीर्तन करो। मन से ही रागिनी में गाओ। मन लग जाएगा। जुबान से मत बोलो। कंठ से कीर्तन मत करो। मन से ही कीर्तन करो और मन की रागिनी से भगवान का नाम जपो। पहले राग को मिटाना बहुत आवश्यक है और राग मिटता है सेवा करने से। उत्पन्न और नष्ट होने वाली वस्तुओं के द्वारा किसी तरह से सेवा हो जाय, यह भाव रखना चाहिये। पारमार्थिक मार्ग में, अविनाशी में, भगवान् की कथा में अगर राग हो जाय तो प्रेम हो जाएगा। भगवान में, भगवान के नाम में, गुणों में, लीला में आसक्ति हो जाय तो बड़ा लाभ होता है। अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके सेवा करें तो भी राग मिट जाता है। नारायण ! नारायण ! नारायण !!!