काल सर्प योग एवं सर्प का संबंध
काल सर्प योग एवं सर्प का संबंध

काल सर्प योग एवं सर्प का संबंध  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 10436 | जून 2007

सर्प का भारतीय संस्कृति से अनन्य संबंध है। एक बार महर्षि सुश्रुत ने भगवान धन्वन्तरि से पूछा - ‘हे भगवन! सर्पों की संख्या और उसके भेद बताएं।’ वैद्यराज धन्वन्तरि ने कहा ‘तक्षकादि सांप असंख्य हैं। ये सर्प अंतरिक्ष एवं पाताल लोक के वासी हैं, पर पृथ्वी पर पाए जाने वाले नामधारी सर्पों के भेद अस्सी प्रकार के हैं। भारतीय वाङ्मय में विषधर सर्पों की पूजा होती है।

हिंदू मान्यताओं के अनुसार सर्प को मारना उचित नहीं समझा जाता बल्कि उनके मंदिर बनाए जाते हैं। ज्योतिष शास्त्र में नागपंचमी, भाद्र कृष्ण अष्टमी तथा भाद्र शुक्ल नवमी को सर्पों की विशेष पूजा का प्रावधान है।

पुराणों में शेषनाग का वर्णन है जिस पर विष्णु भगवान शयन करते हैं। वह भी एक सर्प है। सर्पों को देव योनि का प्राणी माना जाता है। नए भवन के निर्माण के समय नींव में सर्प की पूजा कर चांदी का सर्प छोड़ा जाता है। वेद के अनेक मंत्र सर्प से संबंधित हैं।

शौनक ऋषि के अनुसार जब किसी व्यक्ति की धन पर अत्यधिक आसक्ति हो जाती है तो मृत्यु के बाद वह नाग बनकर उस धन पर जाकर बैठ जाता है। बहुत से लोग सांपों की पूजा करते हैं। नाग की हत्या का पाप जन्म जन्मांतर तक पीछा नहीं छोड़ता। काल सर्प योग पूर्व जन्म में किए गए सर्प वध के कारण भी बनता है।

नाग वध का शाप पुत्र संतति में बाधक होता है। इसलिए कई लोगों के सर्प शाप के कारण संतान नहीं होती है ! ऐसे बांझपन का उपचार डाक्टरों के पास भी नहीं होता। भारत में अनेक प्रदेशों में नाग वध शाप को दूर करने के लिए नव नाग का विधिवत् पूजन करके एक हाथ लंबी चितावर की लकड़ी का दहन किया जाता है और उस भस्म के तुल्य स्वर्ण धातु दान किया जाता है।

जंगलों में सर्प की बांबी का पूजन करने का भी विधान है। शास्त्रों में सर्प को काल का पर्याय भी कहा गया है। काल आदि, मध्य, अंत एवं विनाश से रहित है। मनुष्य का जीवन और मरण काल के अधीन है। काल सर्वथा गतिशील है। यह कभी किसी की प्रतीक्षा नहीं करता है। काल प्राणियों को मृत्यु के पास ले जाता है। इसी तरह सर्प भी मृत्यु की ओर ही ले जाता है। काल सर्प योग संभवतः समय की गति से जुड़ा हुआ ऐसा ही एक योग है।

मानव का सर्प से संबंध: श्री मद्भगवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- स ं ग ा त स ं ज ा य त े क ा म: कामात्क्रोधोऽभिजायते। क्रोधाद्भवति संमोहः सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशत् प्रणश्यति। विषय में तारतम्य होने पर विषय प्राप्ति की इच्छा होती है। विषय उपलब्ध न होने पर या इसमें बाधा आने पर क्रोध होता है। क्रोध के कारण मन भ्रमित होता है और फिर मनुष्यत्व और विवेक समाप्त हो जाता है। तीव्र वासना के फलस्वरूप जब व्यक्ति मनुष्यत्व खो बैठता है तब उसे सर्पयोनि की प्राप्ति होती है।

अर्थात वह जीवात्मा सर्पयोनि को प्राप्त हो जाती है और सांप बन जाती है। महाभारत में इस संबंध में स्पष्ट उदाहरण देखने को मिलता है। ब्रह्मदेव से सप्तर्षि पैदा हुए। उनमें मरीचि ऋषि के पुत्र कश्यप ऋषि थे। कश्यप की दो पत्नियां थीं। एक का नाम कद्रु तथा दूसरी का विनीता था। कद्रु को संतान के रूप में सर्प और विनीता को गरुड़ के रूप में पुत्र प्राप्त हुआ। इस प्रकार मुनष्य और नागयोनि का निकटतम और घनिष्ठ संबंध है। सत्ताईस नक्षत्रों में से रोहिणी एवं मार्गशीर्ष नक्षत्रों की योनियां भी सर्प योनियां ही मानी गई हैं।

इसलिए शास्त्रीय दृष्टि से मानव और सर्प योनि की उत्पत्ति में समानता नजर आती है। योग शास्त्र के अनुसार मानव शरीर में रची-बसी कुंडलिनी शक्ति के जागरण से ही देह की साध्यता होती है। इस विषय का विश्लेषण प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर जी महाराज ने अपनी ज्ञानेश्वरी में काफी विस्तार से किया है। मूलाधार चक्र में रीढ़ के पास प्रारंभ में कुंडलिनी का आवास है, जो सर्प की भांति कुंडली मारे बैठी है। कुंडलिनी के जागरण से ही मनुष्य को ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति होती है। यह कुंडलिनी- जागृति का मूल सिद्धांत है।

मनुष्य को प्राप्त होने वाला मनुष्यत्व कुंडलिनी की ही देन है। मानव की वैज्ञानिक पूर्णता इस कुंडलिनी के जानने से ही होती है। इस तरह कुंडलिनी एवं सर्प दोनों एक ही हैं। यह बात ध्यान में रखकर ही हमारे पूर्वजों ने सर्प क्रिया का विधान बनाया है। सर्प की हत्या स्वयं करना या किसी दूसरे से करवाना पाप कर्म माना गया है।

इस पाप के कारण वंश विच्छेद होता है, जिससे मुक्ति पाने के लिए नागबलि का विधान बताया गया है। वासुकि नाग के सिर पर पृथ्वी है यह बात पुराणों में बताई गई है। यह वासुकि ही कुंडलिनी है। प्रभु श्रीराम को 14 वर्ष तक वनवास में साथ देने वाले लक्ष्मण जी शेषनाग के अवतार थे। शेषनाग की सहायता के बिना राम-सीता का वनवास अधूरा एवं असुरक्षित ही होता। रावण संहार के कार्य में लक्ष्मण जी का योगदान भुलाया नहीं जा सकता।

मथुरा के श्रीकृष्ण को गोकुल प्रवास के दौरान ऊपर तूफानी बारिश एवं नीचे उफनती यमुना से छतरी बनकर सुरक्षा प्रदान करने वाले शेषनाग की कथा भी भुलाई नहीं जा सकती। संपूर्ण विश्व के संचालक श्रीविष्ण् ाु स्वयं शेषनाग पर ही आसीन हैं और शेषनाग छत्र बनकर उन्हें छाया प्रदान करते हैं। भुजंग शयन की यह कथा आज भी घर-घर में सुनी जा सकती है। देवों के देव महादेव भगवान शिव हैं। ज्ञान और मोक्ष का फल देने का काम उनके ही अधीन है।

संपूर्ण तंत्र विद्या पर भगवान शिव का ही अधिकार है। भगवान शिव शंकर का शरीर नागों से लिपटा हुआ है। नाग के बिना शिवलिंग की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जैन संप्रदाय के 23 वें तीर्थंकर, जिनकी दिव्य चेतना और प्रेरणा आज भी अस्तित्व में है, शीघ्र प्रसन्न होने वाले भगवान श्री पाश्र्वनाथ जी का नाम नाग कुमार धरणेंद्र के साथ ही लिया जाता है।

उनके पूजन के साथ ही धरणेंद्र की पूजा भी की जाती है। फणधारी नाग का सिर छत्र ही पाश्र्वनाथ की पहचान है। दूसरे अर्थ में कालस्वरूप है। नाग के मस्तक का संबंध राहु के साथ जुड़ा हुआ है। राहु और केतु के सूक्ष्म स्वरूप और सूक्ष्म विश्व के साथ उनका गहरा संबंध है। जब सभी ग्रह राहु और केतु के जाल में फंस जाते हैं तब काल सर्प योग बनता है। काल अर्थात राहु एवं सर्प अर्थात केतु। नाग संपत्ति का प्रतीक है।

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