काल सर्प योग एक परीक्षित सफल प्रयोग काल सर्प योग के संबंध में जनमानस में अनेक प्रकार के भय और भ्रांतियां हैं। यहां हम काल सर्प योग वाले जातकों के लिए एक परीक्षित सफल प्रयोग दे रहे हैं। काल सर्प योग से ग्रस्त जातक तीर्थंकर पाश्र्वनाथ का चित्र सामने रख कर (चित्र दिया जा रहा है) ‘अवसग्गहरं स्तोत्र’ का 21 दिनों तक प्रतिदिन 21 बार पूरी आस्था से पाठ करें तथा इन दिनों संबंधित मंत्र की एक माला भी पूरी आस्था से फेरें, तो उन्हें आश्चर्यजनक शभ्ु ा परिणाम प्राप्त होंगे। स्तोत्र यहां उल्लिखित है। अवसग्ग-हरं पासं पासं वंदामि कम्म-घण मुक्कं। विसहर-विस-निन्नासं मंगल-कल्लाण- आवासं।। 1 ।। मैं घातिया कर्मों से रहित उपसर्गहारी तीर्थंकर पाश्र्वनाथ की वंदना करता हूं। वे भगवान विषधर के विष का शमन करने वाले हैं तथा मंगल एवं कल्याण के निवास हैं। विसहर-फुलिंग - मंतं कंठे धारेइ जो सया मणुओ। तस्स गह-रोग -मारी दुट्ठ-जरा जंति उवसामं।। 2।। विषहरण शक्ति से स्फुलिंग के समान दीप्तिमान इस स्तोत्र को जो मनुष्य नित्य कंठ में धारण करता है, कंठस्थ रखता है, कंठ द्वारा उच्चारण करता है, उसकी ग्रह-पीड़ा, रोग, महामारी तथा बार्धक्य से उत्पन्न दुष्ट व्याधियां शांत हो जाती हैं। चिट्ठउ दूरे मंतो तुज्झ-पणामो वि बहुफलो होइ। नर-तिरिएसु वि जीवा पावंति न दुक्ख दोहग्गं।। 3।। हे भगवन ! मंत्रोपचार तो दूर की बात है, उसे छोड़ दें तो भी आपको श्रद्धा भक्ति से किया गया एक प्रणाम भी बहु फलदायी होता है। नर और तिर्यंगति में उत्पन्न जीव आपकी भक्ति से दुख तथा दुर्गति नहीं पाते। तुह सम्मते लद्धे चिंतामणि- कप्पपाय वब्भहिए। पावंति अविग्घेणं जीवा अयरामरं ठाणं ।। 4 ।। चिंतामणि और कल्प-पादप के समान सम्यकत्व को प्राप्त आपको साक्षात् आत्मसात कर जीव निर्विघ्न अजर अमर स्थान प्राप्त कर लेते हैं। इअ संथुओ महायस ! भत्तिब्भर निब्भरेण हियएण। ता देव ! दिज्ज बोहिं भवे-भवे पास जिणचंद ।। 5 ।। हे महान् यशस्विन् ! भक्ति की अतिशयता से भरित हृदय से मैं आपकी स्तुति करता हूं। हे पाश्र्वजिनचंद्र, मुझे बोधि लाभ हो, ऐसी प्रार्थना है। जाप्य मंत्र: ¬ ह्रीं श्रीं अर्हं नमिउफण पास विसहर वसह जिण पफुलिंग ह्रीं श्रीं नमः।। हमारी सारी बाधाओं का मुख्य कारण स्थान देवता, कुल देवता तथा पितरों का प्रसन्न न होना ही होता है। अतः इन्हें प्रतिदिन जलाघ्र्य देकर इनकी शांति का उपक्रम भी अवश्य करना चाहिए। पर ध्यान रखें, कोई भी क्रिया जब मात्र रूढ़ि के रूप में की जाती है, तो उसका कोई फल नहीं मिलता। जलाघ्र्य के साथ अपने दोषों को स्वीकार करते हुए सच्चे मन से प्रार्थना करें। जलाघ्र्य-मंत्र स्थान देवता तृप्यताम्। कुलदेवता तृप्यताम्। पितरः तृप्यन्ताम्।