शांति के लिए लोग अनेकानेक उपाय करते हैं। दान उनमें प्रमुख है। कुंडली में ग्रहों एवं भावों से इसका सीधा संबंध है। ज्योतिष शास्त्र में कुंडली के 12 भावों, 9 ग्रहों तथा 27 नक्षत्रों को मान्यता दी गई है। 12 को 9 से गुणा करने पर 108 होते हैं जिनका योग 9 होता है। 27 का योग करने पर योगफल 9 होता है। वैसे तो कुंडली के 12 भाव ही अपने आप में महत्वपूर्ण हैं और प्रारब्ध का प्रतिनिधित्व करते हैं परंतु इनमें प्रथम से नवम तक के भाव विशेष महत्व रखते हैं।
प्रथम भाव से मनुष्य का जन्म होता है। माता द्वारा भोजन-वस्त्र उपलब्ध हो जाता है तथा परिवार में खुशियां छा जाती हैं (दूसरा भाव)। दो-तीन वर्ष के होने पर पीछे भाई-बहन आ जाते हैं (तृतीय भाव)। जैसे-तैसे कुछ समय तक मकान-वाहन का सुख भोगता है (चतुर्थ भाव)। स्कूल में डाल दिया जाता है (पंचम भाव)। जहां गलत संगत हुई तो रोग, शत्रु, ऋण से प्रभावित हो जाता है (छठा भाव)। अगर किसी तरह से बच जाए, तो विवाह करा दिया जाता है (सप्तम भाव) जिसकी पूर्णाहुति तक उम्र का आखिरी पड़ाव (अष्टम भाव) आ जाता है।
इस अर्द्ध-चक्र में उसे धर्म, सत्संग, ज्ञान तथा ईश्वर द्वारा प्रदŸा मार्ग का भान ही नहीं होता। किसी कारण स े धमर्, ज्ञान आरै वरै ाग्य (नवम भाव) की तरफ झुकाव हो भी जाए, तो शरीर साथ नहीं देता। इस दृष्टि से प्राचीन आश्रम व्यवस्था बहुत उपयुक्त थी जहां धर्म, संस्कार, ज्ञान, ईश्वर, कर्म-भूमि हेतु ब्रह्मचर्य आश्रम (गुरुकुल) में शिक्षा दी जाती थी।
अगर कुंडली के हिसाब से देखें तो घड़ी के विपरीत क्रम में वर्तमान में मनुष्य जीवन चलता है जैसे प्रथम, द्वितीय, तृतीय आदि। यदि घड़ी की तरह ही चला जाए, तो कुंडली के बारहवें, ग्यारहवें, दसवें भाव की तरफ चला जाएगा और आश्रम व्यवस्था पुनः प्रतिपादित हो सकती है जहां मनुष्य सोच सकेगा कि मोक्ष कैसे होगा (बारहवां भाव), आयु किस प्रकार व्यतीत की जाए और इससे उसे क्या हासिल होगा (ग्यारहवां भाव) आदि। अच्छे-बुरे का ज्ञान होगा, तो अच्छे कर्म करने हेतु प्रेरित होगा (दसवां भाव)। धर्म, ज्ञान और ईश्वर के प्रति रुझान बढ़ेगा, तो बुरे कार्यों से बचेगा (नवम भाव)। दीर्घायु होने का जतन करेगा (अष्टम भाव)। असामयिक या अनावश्यक भोग को त्यागेगा (सप्तम भाव)।
निरोगी रहेगा, अच्छे-बुरे मित्रों की पहचान होगी तथा कुल तारक संतान होगी (पंचम भाव)। उसका गृहस्थ जीवन सुखमय होगा (चतुर्थ भाव) तथा उसके पराक्रम व साहस का लोहा पूरा परिवार मानेगा और शरीर भी स्वस्थ रहेगा। वास्तव में यह संभव नहीं है। लेकिन मनुष्य के दुखों का कारण भी यही है।
कभी उसकी उच्चाकांक्षाएं उसे पीड़ा पहुंचाती हैं तो कभी परिवार के सदस्यों की या उसकी अपनी बीमारी या फिर जमीन जायदाद को लेकर भाई बहनों से झगड़े के कारण वह पीड़ित होता है। कोई संतानहीनता के कारण दुखी होता है तो किसी के बच्चे उसे प्रताड़ित करते हैं। किसी के शत्रु उसे परेशान करते हैं तो कोई कर्ज में डूबे जीवन के बोझ को ढोता रहता है।
कोई मुकदमेबाजी से तो कोई व्यभिचार से दुखी होता है। इन दुखों के चलते वह लाखों रुपए फूंक देता है। ओझा गुणियों के चक्कर काटता रहता है लेकिन समस्याओं का कोई अंत नहीं होता। वर्तमान में इसका मुख्य कारण धार्मिक भावनाओं की कमी या आडंबर है। सभी धर्म-ध्वज लेकर चलने वाले ही हैं। यहां धार्मिक भावना का अर्थ दान से है।
कहने का अर्थ यह है कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी क्षमता के अनुसार योग्य पात्र को दान देना चाहिए। हर धर्म में दान का महत्व बताया गया है। हिंदुओं के महान धार्मिक ग्रंथ श्री शिव महापुराण में दान के बारे में इस प्रकार बताया गया है:- खेती पर 10 प्रतिशत नौकरी का 17 प्रतिशत (रिश्वत या ऊपर की कमाई नहीं) व्यापार के शुद्ध लाभ का 17 प्रतिशत मंदिर के महंत, मठ के मठाधीश, मंदिर के पुजारियों, कर्मकांडियों के लिए 25 प्रतिशत अचानक प्राप्त धन जैसे लाटरी, वसीयत, मुआवजे, गड़े हुए धन आदि का 50 प्रतिशत।
श्री शिव महापुराण की आज्ञा के अनुसार इसी तरह से दान करना जरूरी है। अगर इस प्रकार से दान नहीं किया जाता है, तो शिव अपना हिस्सा किसी न किसी रूप से निकाल ही लेते हैं जिसे साधारण मनुष्य समझ भी नहीं सकता। पति, पत्नी व पुत्र की बीमारी, विकलांगता, मुकदमेबाजी या अन्य किसी कारण से होने वाला खर्च शिव का ही है।
आपको ज्ञात होना चाहिए कि बड़े-बड़े अरबपतियों एवं उद्योगपतियों ने अपने-अपने दान-कोष बना रखे हैं, जिससे वे सभी सुखी हैं और उŸारोŸार उन्नति कर रहे हैं। अगर प्रत्येक मनुष्य श्री शिव महापुराण की आज्ञानुसार नियमित रूप से दान करे, तो उसे कभी भी धन का अभाव नहीं होगा, कोई भयंकर रोग नहीं होगा, अकाल मृत्यु नहीं होगी, पति-पत्नी में मधुर संबंध बने रहेंगे, कुल तारक संतान होगी, शत्रु तथा ग्रह पीड़ा का नाश होगा, समाज में प्रतिष्ठा मिलेगी तथा उसका जीवन सफल होगा।
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