कालसर्प योग के प्रकार
कालसर्प योग के प्रकार

कालसर्प योग के प्रकार  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 5899 | जून 2007

पुराणों में उल्लेख है कि समुद्र मंथन के बाद अमृत पान के लिए खड़े देवताओं की पंक्ति में राहु नामक राक्षस ने भी प्रवेश कर अमृत पान कर लिया जिसके फलस्वरूप उसके सिर को धड़ से अलग कर देने के बावजूद वह दो भागों में जीवित रहा। उसका सिर वाला भाग राहु और धड़ वाला केतु कहलाता है।

ज्योतिष शास्त्र में राहु को सर्प की संज्ञा दी गई है तथा केतु उसकी पंूछ है। अन्य ग्रंथों में सर्प का ही काल के रूप में वर्णन किया गया है।

यथा मुखपुच्छ विभक्ताङ्ग।

भुजङ्गमाकार मुपदिशत्यन्यो।।

और सर्प दंशो विषंनास्ति काल दृष्टो न संशयः।।

परिभाषा विद्वानों के अनुसार कुंडली में सभी 7 ग्रह राहु और केतु के मध्य स्थित हों, तो काल सर्प योग बनता है। कुछ अन्य विद्वान प्राचीन ग्रंथों में इसका नामतः उल्लेख नहीं होने के कारण इसे विशेष महत्व नहीं देते। परंतु इस योग के परिणामों को देखते हुए इसे आज मान्यता प्राप्त है और इसके परिहार हेतु आधिदैविक, आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक उपाय किए जाते हैं।

अतः जनसाधारण को इस योग के कुपरिणामों से सावधान करने हेतु इसकी विवेचना आवश्यक है। कुंडली में 9वें से छठे भावों के बीच होने वाला काल सर्प योग मुक्त तथा छठे से 12वें भावों के बीच होने वाला ग्रस्त योग कहलाता है।

उदाहरण के लिए निम्न कुंडलियों का अवलोकन करें। राहु एवं केतु का विचरण अन्य ग्रहों के विपरीत हमेशा वक्र गति से होता है अर्थात लग्न भाव में राहु एवं सप्तम भाव में केतु स्थित हो और अन्य सभी ग्रह छठे से 12वें भावों के बीच स्थित हों, तो वे सभी ग्रह राहु के मुख में चले आते हैं। अतः इस योग को ‘ग्रस्त’ काल सर्प योग कहा जाता है।

इसके विपरीत सभी ग्रह भाव 1 से 7 के बीच स्थित हों, तो वे राहु के मुख की ओर नहीं होते अतः यह ‘मुक्त’ काल सर्प योग कहलाता है। किसी किसी कुंडली में देखने में आता है कि कोई ग्रह राहु और केतु के बाहर स्थित है। ऐसी स्थिति में इसे आंशिक काल सर्प योग कहते हैं और इसके परिहार हेतु ग्रह शांति कराना आवश्यक होता है।

विद्वानों एवं ग्रंथों के अनुसार कालसर्प योग मुख्यतः 12 प्रकार के हैं, जिनका विवरण इस प्रकार है। अनंत कालसर्प योग: लग्न से सप्तम भाव तक राहु एवं केतु अथवा केतु एवं राहु के मध्य सभी 7 ग्रह स्थित हों तो अनंत नामक काल सर्प योग निर्मित होता है।

इस योग से ग्रस्त जातक का व्यक्तित्व एवं वैवाहिक जीवन कमजोर होता है। उसे जीवन में निरंतर संघर्ष करना पड़ता है कुलिक काल सर्प योग: द्वितीय से अष्टम भाव तक राहु-केतु या केतु-राहु के मध्य सभी ग्रह स्थित हों तो कुलिक काल सर्प योग बनता है।

इस योग से ग्रस्त जातक को धन संबंधी परेशानियों, अपयश, मानसिक कष्ट आदि का सामना करना पड़ता है। वासुकी काल सर्प योग: तृतीय से नवम भाव तक राहु-केतु या केतु-राहु के मध्य सभी ग्रह स्थित हों, तो वासुकी काल सर्प योग होता है।

इस योग से ग्रस्त जातक को भाई एवं पिता की ओर से परेशानी मिलती है और पराक्रम में कमी, अपयश, भाग्यहीनता आदि का सामना करना पड़ता है।

शंखपाल काल सर्प योग: चतुर्थ से दशम भाव के मध्य राहु-केतु या केतु-राहु के मध्य अन्य सातों ग्रह स्थित हों, तो शंखपाल नामक काल सर्प योग बनता है। इसके कारण मातृसुख में कमी होती है और व्यापार व्यवसाय में अवरोध, पद एवं प्रतिष्ठा में कमी तथा तनावपूर्ण जीवन की स्थितियां निर्मित होती हैं।

पù काल सर्प योग: पंचम तथा एकादश भाव के मध्य राहु-केतु या केतु-राहु के बीच सभी ग्रह स्थित होने से पù नामक काल सर्प योग बनता है। इससे ग्रस्त जातक को विद्याध्ययन, संतति सुख तथा स्नेह संबंधों में कमी, लाभ में रुकावट आदि का सामना करना पड़ता है। महापù काल सर्प योग: छठे से 12 वें भाव के मध्य राहु-केतु या केतु-राहु के बीच सभी ग्रहों की स्थिति से महापù नामक काल सर्प योग बनता है।

इस योग के कारण जातक को रोग, कर्ज एवं गुप्त शत्रुओं से परेशानी का सामना करना पड़ता है तथा उसमें चरित्र संबंधी दोष भी पाए जाते हैं। तक्षक काल सर्प योग: सप्तम से प्रथम भाव के मध्य राहु एवं केतु या केतु एवं राहु के बीच सभी ग्रह स्थित हों, तो तक्षक नामक काल सर्प योग बनता है। इस योग के कारण जातक का वैवाहिक जीवन दुखमय रहता है, उसे साझेदारी में हानि होती है तथा जीवनसाथी से अलगाव रहता है।

कर्कोटक काल सर्प योग: अष्टम से धन (द्वितीय) भाव के मध्य राहु-केतु या केतु-राहु के बीच सभी ग्रहों की स्थिति से कर्कोटक नामक कालसर्प योग निर्मित होता है। इससे ग्रस्त जातक अल्पायु होता है, उसके दुर्घटनाग्रस्त होने की संभावना रहती है, वह अस्वस्थ रहता है, धन की हानि होती है एवं उसकी वाणी दोषपूण्र् ा होती है।

शंखचूड़ काल सर्प योग: नवम एवं तृतीय भावों के बीच राहु-केतु अथवा केतु-राहु के बीच अन्य सातों ग्रह स्थित हों, तो शंखचूड़ नामक काल सर्प योग बनता है। इस कुयोग के कारण भाग्योदय में अवरोध, नौकरी व पदप्राप्ति में रुकावट, व्यापार में हानि, अदालत से दंड आदि की स्थितियां निर्मित होती हैं।

घातक काल सर्प योग: दशम तथा चतुर्थ भावों के मध्य यदि राहु-केतु या केतु-राहु के बीच सभी ग्रह स्थित हों, तो घातक काल सर्प योग का निर्माण होता है। यह योग व्यापार में घाटे, प्रतिष्ठा में कमी, अधिकारियों से अनबन, सुखी जीवन में बाधा का द्योतक है। विषधर काल सर्प योग: ग्यारहवें से पांचवें भावों के बीच राहु-केतु या केतु-राहु के मध्य सभी ग्रह बैठे हों, तो विषधर काल सर्प योग बनता है।

इस कुयोग के कारण ज्ञानार्जन में रुकावट, परीक्षा मे ं असफलता, सतं ान सुख में कमी और अनपेक्षित हानि आदि का सामना करना पड़ता है।

शेषनाग काल सर्प येाग: द्वादश भाव से छठे भाव के मध्य राहु-केतु या केतु-राहु के बीच अन्य सभी ग्रहों की स्थिति से शेषनाग नामक काल सर्प योग बनता है। इसके कारण जातक अपने घर या देश से दूर रहकर संघर्षपूर्ण जीवन जीने को विवश होता है, उसे आंखों की तथा अन्य बीमारियां होती हैं और शत्रु के कारण परेशानी का सामना करना पड़ता है।

इन 12 प्रकार के काल सर्प योगों के अतिरिक्त अलग-अलग राशियों में प्रत्येक भाव में राहु-केतु या केतु-राहु की स्थिति के अनुसार कुल 12ग्12=144 उप काल सर्प योग बनते हैं जिनके परिणाम भाव एवं राशि विशेष के संयोग के अनुसार होते हैं।

कालसर्प योग के परिहार हेतु उपाय काल सर्प योग के कुपरिणामों से निजात पाने के लिए यथासमय आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक उपाय किए जाने चाहिए। कुछ मुख्य उपाय इस प्रकार हैं।

1. वैदिक विधान द्वारा तीर्थ क्षेत्र में काल सर्प शांति कर्म, पूजन, हवन आदि किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा कराएं। शांति कर्म सिर्फ 1 बार करा लेने से पूर्ण एवं स्थायी लाभ नहीं मिलता। अतः विद्वानों के अनुसार पूर्व आयु 15 से 30 वर्ष एवं उŸार आयु 30 से 45 वर्ष के समयावधि में शांति कर्म कराना आवश्यक है। शिवोपासना निरंतर करते रहनी चाहिए जिसके अंतर्गत रुद्राभिषेक, उपवास, शिवमंदिर में दर्शन पूजन एवं दान मुख्य हैं। 

2. सर्प निवृŸिा (नागपंचमी या किसी अन्य दिन पकड़े हुए सर्प को मुक्त करवाना) अथवा धातु (चांदी या तांबे) के नाग नागिन के जोड़े के पूजन के बाद उसे जल में प्रवाहित करना चाहिए। काल सर्प योग की अंगूठी धारण करें एवं नागपाश यंत्र को अभिमंत्रित करवाकर उसका नित्य पूजन, दर्शन करें। राहु और केतु की शांति हेतु जपानुष्ठान करें एवं दोनों ग्रहों की वस्तुओं का दान करें। दान द्रव्य राहु - लौह (स्टील) पात्र, काले तिल या उड़द, नीला कपड़ा, दक्षिणा एवं राहु रत्न (गोमेद)। केतु - कांसे का बर्तन, सप्तधान्य, नारियल, धूम्र रंग का कपड़ा एवं केतु रत्न लहसुनिया। नागपंचमी (श्रावण शुक्ल पंचमी) का व्रत और पूजन करें तथा नवनाग स्तोत्र का पाठ नित्य करते रहें।

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