अधिक मास एवं क्षय मास की गणना
अधिक मास एवं क्षय मास की गणना

अधिक मास एवं क्षय मास की गणना  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 20763 | जून 2007

प्रश्न: अधिक मास एवं क्षय मास की गणना कैसे होती है? ये कब-कब आते हैं और इसमें कौन से कर्म त्याज्य हैं और कौन से कर्म किए जा सकते हैं? मास, माह, महीना क्या है?

चांद्र, सौर, सावन, नाक्षत्र ये 4 प्रकार के मास होते हैं। वैसे 9 प्रकार के मासों व वर्ष का विचार प्रायः ज्योतिष के सिद्धांत ग्रंथों में मिलता है। किंतु चतुर्भिव्र्यवहारोऽत्र सूर्य सिद्धांत वचन के आधार पर चांद्र, सौर, सावन और नाक्षत्र मास का व्यवहार होता है।

एक राशि का जब सूर्य भोग कर लेता है, तो सौर मास होता है, अर्थात सूर्य की संक्रांति के बाद के संक्रमण के पूर्व संचरण समय तक सूर्य का मास सौर मास कहलाता है। दो अमावस्याओं के मध्य का काल, अर्थात शुक्ल प्रतिपदा से अमावस्या की समाप्ति काल तक चांद्र मास होता है, अर्थात 30 तिथियों के भोग काल को चांद्र मास कहते हैं।

एक नक्षत्र में चंद्रमा के योग की आवृŸिा से जब 27 नक्षत्रों का भोग चंद्रमा कर लेता है, तो चांद्र मास होता है। सूर्योदय से सूर्योदय पूर्व तक के समय को सावन दिन कहते हैं। इस प्रकार 30 उदयों का सावन मास होता है।

चांद्र मास चैत्रादिसंज्ञाश्चांद्राणां मासानां संप्रकीर्तिताः।

श्रौतस्मार्तक्रियाः सर्वाः कुर्याश्चांद्रमसर्तषु।।

चांद्रस्तु द्विविधो मासो दर्शातः पौर्णीमंतिमः।

देवार्थे पौर्णमास्यंतो दर्शातः पितृकर्मणि।।

एक पूर्णिमा से दूसरी पूर्णिमा तक, या फिर एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या तक चांद्र मास होता है। एक वर्ष में 12 चांद्र मास होते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन।

चांद्र मास 29 दिवस, 31 घटिका और 50.124 पलों का अर्थात 30 तिथियों का होता है। इस हिसाब से एक चांद्र वर्ष से 30ग12=360 तिथियां होती हैं।

सौर मास मेषादि सौरमासांस्ते भंवति रविसंक्रमात्।

मधुश्च माध्वश्चैव शुक्र शुचिरथो नभः।।

नभस्यश्चेष उर्जश्च सहश्चाथ सहस्यकः।

तपस्तपस्यः क्रमतः सौरमासाः प्रकीर्तिता।।

रवि मेषादि 12 राशियों से भ्रमण करता है। इन राशियों में जिस मास रवि की संक्रांति होती हैं उसी को सौर मास कहते हैं। एक वर्ष में 12 सौर मास होते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- मधु, माधव, शुक्र, शुचि, नभ, नभस्य, इष, ऊर्ज, सह, सहस्य, तप, तपस्या।

एक सौर वर्ष 365 दिन, 15 घटिका और 23 पलों का होता है। एक चांद्र वर्ष में कुल 371 तिथियां होती हैं। चांद्र वर्ष और सौर वर्ष में हर वर्ष 11 तिथियों का अंतर होता है। यह अंतर जब 30 तिथियों तक पहुंच जाए, तब एक चांद्र मास अधिक होता है, अर्थात उस साल 13 चांद्र मास होते हैं। मल मास अधिक मास

असंक्रांतिरमांतो यो मासश्चेत्सो अधिमासकः।

मलमासाहृयो श्रेयः प्रायश्चैदिसप्तसु।।

द्वांत्रिश˜िर्गतैर्मासैर्दिनैः षोडशभिस्तथा।

धटिकानां चतुष्कोण पतत्याधिकमासकः।।

चांद्र मास और मास दोनांे का मेल बिठाने के लिए जिस किसी अमांत मास में रवि संक्रांति नहीं होती, उस मास को अधिक मास या मल मास कहा जाता है। चैत्र से आश्विन तक जो 7 मास होते हैं, उन्हीं में से कोई अधिक मास होता है। कभी-कभी फाल्गुन भी अधिक मास हो सकता है।

लेकिन पौष और माघ कभी अधिक मास नहीं हो सकते। लगभग 32 मास और 16 दिन की कालावधि के बाद, अर्थात हर तीसरे साल अधिक मास हो सकता है। एक बार आया हुआ अधिक मास 19 साल के बाद फिर से आता है। मल मास ढूंढने की विधि शालिवाहन शक को 12 से गुणा कर गुणनफल को 19 से भाग दिया जाता है।

जो संख्या शेष बचे वह अगर 9 या 9 से कम हो, तो उस साल मल मास पड़ता है। इसी प्रकार से कौन सा मास मल मास होगा, यह पता लगाने के लिए यह देखना चाहिए कि शेष बची हुई संख्या 5 या 5 से ज्यादा है या नहीं। यदि हो, तो उस संख्या में से एक घटा दिया जाता है।

जो संख्या बचती है उसे चैत्र से गिन कर अधिक मास का पता लगाया जाता है। यह नियम स्थूल है। सूक्ष्म गणित करने के बाद ही पूर्णरूप से सही निर्णय लिया जा सकता है।

क्षय मास द्विसंक्रांतिः क्षयाख्यःस्यात् कदाचित् कार्तिकत्रये।

युग्माख्ये स तु तत्राब्दे ह्यधिमासद्वयं भवेत।।

जिस किसी अमांत मास में 2 रवि संक्रांतियां होती हैं उस मास को क्षय मास कहते हैं। कार्तिक, मार्गशीर्ष और पौष में से ही कोई क्षय मास होता है। इन तीनों मासों में रवि की गति तेज होती है। वृश्चिक, धनु और मकर राशियों को पार करने में रवि को चांद्र मास से भी कम समय लगता है। ऐसी स्थिति में एक चांद्र मास में 2 रवि संक्रांतियां हो सकती हैं। इसलिए वहां क्षय मास होता है। क्षय मास से पहले और बाद में एक एक मल मास होता है।

क्षय मास 141 साल के अंतराल पर आता है। किंतु कभी कभी 19 साल के बाद भी आ सकता है। हिंदू मासों के नामकरण पूर्णिमा के चांद्र नक्षत्र के आधार पर संबंधित चांद्र मास का नामकरण होता है। जैसे जिस मास की पूर्णिमा को चित्रा नक्षत्र आता है, उसका नाम चैत्र पड़ जाता है। इसी प्रकार विशाखा से वैशाख तथा ज्येष्ठा से जेठ आदि।

सौर मास की प्रवृŸिा सूर्य जिस समय किसी राशि में प्रवेश करता है, उस समय से होती है और जिस अमांत चांद्र मास में संक्रांति होती है, उसी चांद्र मास के आधार पर संबंधित संक्रांतिजन्य सौर मास का नामकरण होता है।

अतः मेष संक्रांतिजन्य सौर मास का नाम वैशाख हुआ। इसी प्रकार वृष का ज्येष्ठ (जेठ), मिथुन का आषाढ़, कर्क का श्रावण, सिंह का भाद्रपद, कन्या का आश्विन (क्वार) तुला का कार्तिक, वृश्चिक का मार्गशीर्ष (अगहन), धनु का पौष, मकर का माघ, कुंभ का फाल्गुन और मीन का चैत्र हुआ। हिंदू ज्योतिष में नक्षत्र सौर वर्ष का प्रारंभ मेष की संक्रांति से तथा क्रांति पातिक सौर वर्ष का वासंत क्रांतिपात (21 मार्च) से होता है।

इसी प्रकार चांद्र वर्ष का प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है। सूर्य की स्पष्ट कहें तो अथवा पृथ्वी की गति की विचित्रता के कारण ऐसा संभव हो जाता है। सूर्य कभी एक राशि पार करने में 29 दिनों से थोड़ा अधिक समय लेता है और कभी यह सीमा 31 दिनों से भी अधिक होती है। धनु के आधे भाग पर रहते समय सूर्य की गति तीव्रतम अर्थात 61ः10’’ विकला प्रति दिन रहती है।

धीरे-धीरे घटते हुए यही गति मिथुन के मध्य में न्यूनतम 57ः12’’ विकला हो जाती है। अधिकतम गति से सूर्य एक राशि को 29.22 सावन दिनों में ही पार कर लेता है, जबकि चांद्रमास का मध्यमान 29.53 दिन है। वास्तव में ग्रह तीव्रतम गति के समय अपनी कक्षा में पृथ्वी के निकटतम बिंदु (च्मतपहमम) पर होता है। और न्यूनतम गति के समय मंदोच्च (।चवहमम ) पृथ्वी से अपनी कक्षा के दूरतम बिंदु पर होता है।

सूर्य की बारह संक्रांतियां प्रायः 29.25 दिन से लेकर 31.5 दिन में होती हंै, जबकि चांद्र मास 29.53 माध्य सावन दिन का होता है। अधिक व क्षय मासों की गणना सदैव स्पष्ट अर्थात सही मानों से की जाती है। अतः अधिक मास तो क्रमशः 32.5 चांद्र मासों के बाद आता रहता है, लेकिन क्षय मास कभी कभी ही आता है।

सूर्य की गति के वृश्चिक, धनु व मकर राशियों में क्रमशः तीव्रतर से तीव्रतम होने के कारण क्षय मास जब भी होगा इनसे संबंधित मासों में अर्थात कार्तिक, मार्गशीर्ष या पौष में ही होगा। कब-कब आते हैं मल (अधि) एवं क्षय मास वास्तविक अधिक मास का निश्चय मूलतः दिनों या सूर्य के अंशों को ही गिनकर किया जाता है।

कुछ ग्रंथों में एक सरल विधि दी गई है, जिसके आधार पर पूर्वानुमान द्वारा लगाया जा सकता है कि कौन से वर्ष में, किस मास में अधिक मास पड़ने की संभावना है। इसके लिए माघी अमावस्या व अंग्रेजी (सायन) तारीख देखी जाती है। यदि अमावस्या 14 से 24 तारीख के बची पड़ती है, तो अगले वर्ष में अधिकमास होता है।

किस मास को अधिक मास माना जाएगा इसका भी विद्व ानों ने निर्धारण किया है। जब कभी कृष्ण पक्ष की पंचमी को सूर्य राशि बदलता है उसके अगले वर्ष में जिस मास में सूर्य पंचमी (कृष्ण पक्ष की) बदले उसके पहले का मास अधिक मास होगा।

उदाहरणस्वरूप दिनांक 15 जून 2006, आषाढ़ चतुर्थी को 9.45 पर सूर्य मिथुन राशि में प्रविष्ट हुआ। अतः सन् 2007 वि. संवत 2064 ज्येष्ठ मास अधिक मास होगा। अधिमास नाक्षात्रिक सौर वर्ष का मान दिनादि और चांद्र वर्ष का मान दिनादि 365,22,1,24 होता है। अतः चांद्र वर्ष की वार्षिक कमी इन दोनों का अंतर दिनादि 10,53,30,6 है।

अब त्रैराशिक क्रिया करने पर कि 1 वर्ष में तो इतने दिनादि की कमी आई तो कितने वर्षों में पूरे 1 चांद्र मास की अर्थात दिनादि 29,31,50,7 की कमी उŸार में आएगी कि वर्षादि 2,8,16,4 के काल एक अधि मास होगा। यह गणना मध्यम मान के अनुसार है। स्पष्ट मान से उक्त काल में कमी-बेशी हो जाती है।

अब उस परिस्थिति का अवलोकन करें, जिसके कारण अधिमास होता है। और मासों में कुछ मास चांद्र मास से बड़े और कुछ चांद्र मास से छोटे भी होते हैं। जो सौर मास चांद्र मास से बड़े होते हैं, उनमें कभी-कभी 2 अमावस्यांत पड़ जाते हैं।

एक सौर मास के आरंभ के साथ-साथ या उनके कुछ ही काल पीछे और दूसरा उस सौर मास की समाप्ति के पूर्व, अर्थात पहले अमावस्यांत तक पहली संक्रांति नहीं होती है। इस दशा में एक ओर चांद्र मास जोड़ा जाता है, जो अधिमास कहलाता है तथा उसका भी नाम पहली अमावस्या वाले चांद्र मास के समान ही रखा जाता है।

कहने का तात्पर्य यह है कि एक नाम के 2 चांद्र मास होते हैं। अधिमास हमेशा चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, भाद्रपद एवं आश्विन इन 7 माहों में से ही हुआ करते हैं। जैसे विक्रम संवत 1991 में सौर वैशाख (मेष) मास में 2 अमावस्यांत पड़े, एक उसके प्रारंभ के कुड घटियों के पश्चात और दूसरा उसकी समाप्ति के एक दिन पूर्व, अर्थात पहली अमावस्या तक तो पहली (मेष) की संक्रांति हो गई।

किंतु दूसरी अमावस्या तक दूसरी वृष संक्रांति नहीं हुई। अतः एक और चांद्र मास आया, जो अधिमास कहलाया तथा उसका नाम पहली अमावस्या वाले चांद्र मास के समान ही वैशाख पड़ा। अधिमास (मलमास) जानने की विधि किस वर्ष में अधिमास होगा, यह जानने के लिए मकरंद ग्रंथ में निम्न विधियां दी गई हैं -

शाक षडरसभूपकै (1666)

र्विरहितो नंदेंदु (19)

भिर्भाजितः शेषेऽग्नौ (3)

च मधुः शिवे (11)

तदपरो ज्येष्ठेऽम्बरे (10)

चाष्टके (8)

आषाढ़ो नृपते (16)

र्नभश्च शरकै (5)

विश्वे (13)

नभस्यस्तया बाहू (2)

चाश्निसंज्ञको मुनिवरै प्रोक्तोऽधिमासः क्रमात्।

शक संख्या में 1666 घटा कर 19 का भाग देने पर यदि 3 शेष हो, तो चैत्र, 11 शेष में वैशाख, 10 में जेठ, 8 में आषाढ़, 16 में सावन, 13, 5 में भाद्रपद और 2 शेष में आश्विन मास होता है। एक विधि यह भी बताई गई है अष्टाश्विनंदै (928) र्वियुत च शाकेनवेंदुभिभाजितशोषभड्कम्। खं(0) रुद्र (11) अष्टा (8) विषु (5) विश्व (13) यग्म (2) चैत्रादिŸा सप्त सदाधिमासः।। शक संख्या में 928 घटा कर शेष में 19 का भाग देने पर यदि शेष 9 हो, तो चैत्र, 0 में वैशाख, 11 में जेठ, 8 में आषाढ़, 5 में सावन, 13 में भादो, 2 में आश्विन, ये 7 मल मास होते हैं।

एक मत यह भी है- शाशिमुनिविधुवह्निर्मि (3171), श्रिता शककाले, द्विगुणमनु (1432) विहाना े नदं चदं ै (19) विभक्तः। यदि भवति शेषः सध्रुवोऽङकों विलोक्य गण कमुनिभिरुक्तं चात्र चैत्रादिमासः यदा बोडशके शेषे समासं च द्वितीयकम्। आषाढ़ मासकं कार्य ब्रह्मसिद्धांतभाषितम्।। शक संख्या में 3171 जोड़कर फिर 1432 घटाकर, 19 का भाग देने पर यदि शेष संख्या अधिमास की हो, तो उसे देखकर अधिक मास का आदेश करना चाहिए।

यहां ब्रह्म सिद्धांत के मत से 16 शेष में आषाढ़ का ग्रहण करना चाहिए। एक अन्य विधि यह भी है: मेघोभू, 1517 हीनशको- ड्कऽचंद्ररैः, (19) शेषोऽधिमासा मधुतश्च यप्त। रामो (3) महेशौ, (11) वसु, (8) खं, (0) नृपोड, (16) र्थो, (5) विश्वे, (13) भुजः, (2) कात्रिकपं/नष्टा।। शक संख्या में 1517 को घटाकर 19 से भाग देने पर 3 शेष में चैत्र, 19 में वैशाख, 8 में जेठ, 10 में आषाढ़, 16 में सावन, 13, 5 में भादो, 2 में आश्विन मल मास होते हैं।

कार्तिक से 5 मास अधिक नहीं होते हैं। यहां संवत् 2061 से आगे के अधिमास दिए जा रहे हैं: संवत् अधिमास संवत् अधिमास संवत् अधिमास 2061 श्रावण 2085 कार्तिक 2107 श्रावण 2064 ज्येष्ठ 2086 चैत्र 2110 आषाढ़ 2067 वैशाख 2088 भाद्रपद 2113 वैशाख 2069 भाद्रपद 2091 आषाढ़ 2115 भाद्रपद 2072 आषाढ़ 2094 ज्येष्ठ 2118 आषाढ़ 2075 ज्येष्ठ 2096 आश्विन 2121 ज्येष्ठ 2077 आश्विन 2099 भाद्रपद 2123 श्रावण 2080 श्रावण 2102 ज्येष्ठ 2126 श्रावण 2083 ज्येष्ठ 2104 फाल्गुन 2129 आषाढ़ वैशाख से 5 मास अधिक 8 या 11 या 19 वर्ष में होते हैं।

इसी प्रकार फाल्गुन, चैत्र, आश्विन और कार्तिक मास भी अधिक मास 141 वर्ष या 65 वर्ष या 19 वर्ष में होता है। अधिक मास की गणना अभीष्ट विक्रम संवत् में 24 जोड़ें तथा 160 का भाग दें। यदि 49, 68, 87, 106, 125 या 30 शेष बचे तो चैत्र, 76, 95, 114, 133, 152, 11 शेष बचने पर वैशाख, 46, 57, 65, 84, 103, 122, 141, 149, 0, 8, 19, 27, 38 शेष रहने पर ज्येष्ठ, 54, 73, 92, 111, 130, 157, 16, 35 शेष रहने पर आषाढ़, 46, 62, 70, 81, 82, 89, 100, 108, 119, 127, 138, 146, 5, 24 शेष बचने पर श्रावण, 51, 13, 32 शेष बचने पर भाद्रपद, 40, 59, 78, 97, 166, 135, 143, 145, 2, 21 शेष बचने पर आश्विन का अधिमास जानना चाहिए। इन अंकों से अन्यथा शेष बचने पर अधिक मास नहीं होता।

उदाहरण: वर्तमान वर्ष विक्रम संवत् 2061 में श्रावण अधिक मास है। उक्त सिद्धांत पर जांचें, तो 2061 $ 24 = 2085/160 = 13 लब्धि तथा 5 शेष बचा। पूर्वोŸार पद्धति में 5 शेष रहने पर श्रावण का ही अधिक मास दर्शाया गया है। क्षय मास सिद्धांतानुसार जिस चांद्र मास में सूर्य की दो संक्रांतियां पड़ जाएं, उसे क्षय मास कहते हैं। क्षय मास वाले वर्ष में 2 अधिक मासों का आना अवश्यंभावी है।

जैसे कुछ सौर मास चांद्र मासों से बड़े होते हैं, वैसे ही कुछ सौर मास चांद्र मासों से छोटे भी होते हैं। ऐसी दशा में कभी-कभी एक ही चांद्र मास में सूर्य की 2 संक्रांतियां हो जाती हैं- प्रथम चांद्र मास के आरंभ में और द्वितीय उसके अंत में। इसका कारण सूर्य की गति का तेज या कम हो जाना होता है।

सूर्य का मंदोच्च सिद्धांत दर्शाता है कि कार्तिक, मार्गशीर्ष तथा पौष, इन 3 मासों में ही 2 संक्रांतियों के पड़ने की संभावना बनती है। अतः यही 3 मास क्षय मास हो सकते हैं, अन्य कोई नहीं। प्रथम क्षय मास या द्वितीय क्षय मास 19 अथवा 141 वर्षाें के अंतराल पर संभव होता है। सौर मास मान चक्र दिनांदि मान मास 30, 54, 51, 3 वैशाख 31, 27, 41, 2 ज्येष्ठ अग्रहायण और पौष मास प्रायः क्षय मास होते हैं तथा कभी-कभी कार्तिक मास भी क्षय मास हो जाता है।

जब अग्रहायण और पौष क्षय मास होते हैं, जो ज्येष्ठ मास अधि होता है। क्षय मास के पूर्व भादो से 3 मास अधिक होते हैं। आश्विन-कार्तिक ही अधिकतर अधिमास होते हैं, किंतु कभी-कभी भादो मास भी अधिक होता है। जिस वर्ष कार्तिक का क्षय होता है, उस वर्ष ज्येष्ठ मास अधिक होता है। यहां ज्येष्ठ शब्द से भादो के ग्रहण करना चाहिए?

संसर्प मास एवं अहंस्पति मास जिस वर्ष क्षय मास हो, उस वर्ष 2 अधिमास अवश्य होते हैं- प्रथम क्षय मास से पूर्व तथा द्वितीय क्षय मासोपरांत। क्षय मास के पूर्व आने वाले अधिक मास को संसर्प मास कहते हैं। संसर्प मास में मुंडन, व्रतबंध (जनेऊ), विवाह, अग्न्याधान, यज्ञोत्सव एवं राज्याभिषेकादि वर्जित हैं। अन्य पूजा आदि कार्यों के लिए यह स्वीकार्य है।

क्षय मास के अनंतर पड़ने वाले अधिक मास को अहंस्पति मास कहते हैं। इस मास उक्त सभी कार्य में वर्जित हैं। क्षय मास में क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए आचार्य महेश्वर का कहना है कि किसी चांद्र मास में यदि सूर्य की 2 संक्रांतियां होती हैं तो एक मास का क्षय होता है। क्योंकि संक्रमण युक्त मास ही मास होता है, अतः 2 संक्रांतियां होने के कारण एक का लोप होता है।

यह दो संक्रमणयुक्त मास 30 दिन का होता है। इसमें शुभ यज्ञादि कार्य नहीं करने चाहिए। स्मृतिरत्नावली में कहा गया है कि एक ही चांद्र मास यदि 2 संक्रातियों से युक्त हो, तो दोनों मासों के श्राद्ध उसी में करने चाहिए, क्योंकि एक का क्षय इसमें वर्णित है। जिस वर्ष क्षय मास होता है, उस वर्ष अधिक लड़ाई, उत्पात, दुर्भिक्ष अथवा पीड़ा या छत्र भंग होता है।

जिस पक्ष में 2 तिथियों का क्षय होता है, उस पक्ष में लड़ाई, द्व ेष और पक्ष नष्ट होने पर राजा का नाश तथा मास क्षय होने पर भूमंडल संकटग्रस्त होता है। अधिमास (मलमास) में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए गंगाचार्य जी का कहना है कि अग्न्याधान, प्रतिष्ठा, यज्ञ, दान, व्रतादि, वेदव्रत, वृषोत्सर्ग, चूड़ा कर्म, व्रत बंध, देव तीर्थों में गमन विवाह, अभिषेक यान और घर के काम अर्थात गृहारंभादि कार्य अधिमास में नहीं करना चाहिए। सूर्योदय नामक गं्रथ में कहा है कि मास में विहित आवश्यक कार्य, मलमास में वार्षिक श्राद्ध, तीर्थ और गजच्छाया श्राद्ध, आधानाङगीभूत पितरों की क्रिया करनी चाहिए।

यदि किसी के मध्य में मल मास हो, तो एक मास का अधिक ही श्राद्ध होगा अर्थात जिस मास में यह होता है, उसकी द्विरावृŸिा होती है। यदि मल मास में ही किसी की मृत्यु हो, उससे जो बारहवां मास हो, उसमें प्रेत क्रिया पूरी करनी चाहिए और आभ्युदायिक तथा कृच्छ के साथ करना चाहिए। काम्य कार्य का आरंभ वृषोत्सर्ग, पर्वोत्सव, उपाकृति, मेखला, चैल, माङगल्य, अग्न्याघान, उद्यापन कर्म, वेदव्रत, महायान, अभिषेक वर्द्धमानक, इष्ट कर्म नहीं करना चाहिए। ऋषि वशिष्ठ जी का कहना है कि वापी, कुआं, तालाब आदि की खुदाई, यज्ञादि कार्य मल मास और संसर्प, अहंस्पति (क्षय) में नहीं करना चाहिए।

मनु स्मृति मंे कहा गया है कि तीर्थ श्राद्ध, दष्र्श श्राद्ध, प्रेता श्राद्ध, सपिंडीकरण, चंद्र-सूर्य ग्रहण स्नान अधिक मास में करना चाहिए। अधिमास (मल मास) फल चैत्र महीना अधिक होने पर कल्याण, आरोग्य और कामनाओं की पूर्ति होती है। वैशाख मास अधिक होने पर सुभिक्ष, सुंदर वर्ष होता है लेकिन ज्वर और अतिसार की संभावना होती है। ज्येष्ठ मास अधिक होने पर लोगों को कष्ट होता है लेकिन यज्ञ और अधिक दानादि होते हैं।

जब आषाढ़ मास 2 होते हैं तो पुण्य, यश, सुभिक्ष होता है तथा वर्ष अधिक सुखमय होता है। जिस वर्ष श्रावण मास मल मास हेाता है उस वर्ष समृद्धि और शूद्रों की वृद्धि होती है। भाद्रपद मास अधिक मास होने पर विद्रोह और युद्ध होता है।

आश्विन मास अधिक मास होता है तो दूसरे के शासन और चोरों से जनता दुखी, सुभिक्ष, कल्याण, आरोग्य, दक्षिण में दुर्भिक्ष, राजाओं का नाश और ब्राह्मणों की वृद्धि होती है। कार्तिक मास 2 होते हैं यह स्थिति तो शुभ है। जनता में खुशहाली रहती है, जगह-जगह यज्ञ होते हैं और ब्राह्मण् ाों की वृद्धि होती है। अग्रहायण मास मल मास होता है तो सुभिक्ष आता है और समस्त जनता स्वस्थ रहती है।

फाल्गुन मास अधिक होने पर सŸाा परिवर्तन होता है तथा सुभिक्ष और खुशहाली आती है। हिंदूगण गणना में 12 चांद्र मासों का एक चांद्र वर्ष होता है। इसके मान दिनादि 354, 22, 124 हैं। यही मुसलमानों का स्वीकृत वर्ष है। यह सौर वर्ष से 11 दिन कम होता है, अतः उनका प्रत्येक त्योहार प्रति सौर वर्ष 11 दिन पहले ही आ जाता है, जिसका परिणाम यह होता है कि लगभग 32 1/2 महीनों में उनके सभी पर्व एक महीने पूर्व पड़ने लगते हैं और लगभग 321/2 वर्षों में वे सभी ऋतुओं में घूम आते हैं। पर हिंदू शास्त्रकारों ने अपने चांद्र पर्व दिनों को उक्त ऋतु व्यतिक्रम से बचाने के लिए अधिमास की युक्ति सोच निकाली है।

इसमें पर्वों की ऋतु विषयक रक्षा हो जाती है। अधिक मास (मलमास) के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी व हिजरी संवतों का तुलनात्मक विवेचन चैत्रादि द्वादश मास युक्त भारतीय हिन्दी वर्ष चांद्रमास से बना है। वहीं दूसरी ओर हिजरी संवत में भी मुहर्रम आदि बारह मुस्लिम मास होते हैं। चंद्र दर्शन से माह आरंभ होता है। हिजरी संवत या मुस्लिम वर्ष में अधिक मास नहीं होता।

मुहर्रम की पहली तारीख से हिजरी संवत का आरंभ होता है तथा चंाद दिखने के दूसरे दिन से माह की पहली तारीख मानी जाती है। चांद्र तिथि की घट-बढ़ से कभी माह उन्तीस दिनों का तो कभी तीस दिनों का होता है। अधिक मास न होने की वजह से हिजरी संवत में प्रत्येक तृतीय वर्ष में फर्क आ जाता है। हिजरी संवत में अधिक मास न होने की वजह से ऋतुओं में सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता।

अतएव मुहर्रम कभी शरद ऋतु में तो कभी पावस के समय अथवा कभी ग्रीष्म ऋतु में ही पड़ जाता है। प्रत्येक तैंतीस मुस्लिम महीनों के उपरांत मुस्लिम वर्ष सौर वर्ष से एक माह आगे चला जाता है। मुस्लिम वर्ष का आधार चांद्र मास ही है।

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