ईशान कोण को खाली रखना वैदिक भी है और वैज्ञानिक भी
ईशान कोण को खाली रखना वैदिक भी है और वैज्ञानिक भी

ईशान कोण को खाली रखना वैदिक भी है और वैज्ञानिक भी  

तेजेंद्र पाल त्यागी
व्यूस : 5428 | जनवरी 2008

हमारे ऋषि मुनि महान वैज्ञानिक थे। उनका वैज्ञानिक ज्ञान हमारे वैज्ञानिक ज्ञान की तुलना में ब्रह्मांडीय अनुपात रखता था। उन्होंने संभ्रागन सूत्रधार, मायामतम, स्थापत्य वेद, मनसा आदि में जो कुछ कहा है वह सत्य है। आवश्यकता केवल उस सत्य को आज के परिप्रेक्ष्य में ढालने की है। पुराने जमाने में घरों में न शिवालय होते थे और न ही शौचालय। परंतु इसका यह मतलब तो नहीं कि उनकी आवश्यकता नहीं थी। आज प्रत्येक घर में मंदिर है और प्रत्येक कमरे में शौचालय। हम बचपन में पोस्टकार्ड पर लिखा करते थे तो क्या आज अपने बच्चे को ईमेल करने से मना कर दें। तात्पर्य यह कि प्राचीन मान्यताओं को आधुनिक कसौटी पर कसना होगा।

यहां हम केवल एक उदाहरण लेते हैं- ईशान कोण का खुला होना। इसी उदाहरण की हम वैज्ञानिक और वैदिक स्तर पर व्याख्या करेंगे। वैदिक मान्यताएं: वास्तु शास्त्र के अनुसार किसी भी भवन में उत्तर-पूर्व में खुली जगह होनी चाहिए। शायद यही कारण रहा हो कि हमें बताया गया कि उत्तर-पूर्व में प्रवेश द्वार सर्वोत्तम होता है। प्रवेश द्वार उत्तर में भी अच्छा माना जाता है और पूर्व में भी। वैदिक वास्तु के अनुसार उत्तर की दिशा को कुबेर देवता नियंत्रित करते हैं और पूर्व की दिशा को सूर्य देवता। वैदिक वास्तु में यह भी बताया गया है कि उत्तर और पूर्व के बीच की दिशा जिसे उत्तर-पूर्व दिशा कहते हैं, अत्यंत लाभकारी है। इस दिशा का वास्तु नाम ईशान कोण है। ईशान कोण का क्षेत्र 45 डिग्री का है। इस दिशा में उत्तर दिशा के गुण भी हैं और पूर्व दिशा के गुण भी। इस दिशा को नियंत्रित करने वाले शिव भगवान है।

दरअसल ईशान शिव के नाम का पर्यायवाची है। अतः ईशान कोण को पवित्र माना गया है और शायद इसी कारण हमें बताया गया कि मंदिर ईशान कोण में होना चाहिए और ईशान कोण को खुला भी रखना चाहिए। ईशान कोण को खुला रखने के लिए पुराने समय में प्रवेश द्वार की स्थापना बताई गई। अब इसी बात का वैज्ञानिक स्तर पर विश्लेषण करते हैं। वैज्ञानिक पक्ष: सूर्य से आने वाली और सफेद दिखने वाली रोशनी में सात रंगों की किरणें हैं, जिन्हें टप्ठळल्व्त् कहते हैं। मगर टप्ठळल्व्त् सूर्य के बृहद स्पेकट्रम का एक अत्यंत मामूली हिस्सा है। टप्ठळल्व्त् के दोनों तरफ नाना प्रकार की किरणें हैं। इन किरणों में टप्व्स्म्ज् से पहले न्स्ज्त्।.टप्व्स्म्ज् त्।ल् और त्म्क् के बाद प्छथ्त्।.त्म्क् त्।ल् है। प्छथ्त्।.त्म्क् त्।ल् हमारे लिए लाभदायक और न्स्ज्त्।.टप्व्स्म्ज् त्।ल् नुकसानदायक है। लिहाजा घर ऐसे बनाना चाहिए कि उसमें प्छथ्त्।.त्म्क् त्।ल् आ जाए और न्स्ज्त्।.टप्व्स्म्ज् त्।ल् रुक जाए। इस थ्पसजतंजपवद को ही वास्तु कहते हैं और यह प्राकृतिक स्तर पर किया जा सकता है।

न्स्ज्त्।.टप्व्स्म्ज् त्।ल् की थ्तमुनमदबल प्दतिं त्मक त्ंल की थ्तमुनमदबल से बहुत ज्यादा होती है। ज्यादा थ्तमुनमदबल की किरणें वातावरण में ैबंजजमत हो जाती हैं और पृथ्वी तक नहीं पहुंच पातीं। अतः प्रातःकाल में सूर्य की लाभकारी प्दतिं त्मक त्ंल हमें पूर्व से प्राप्त होती है। पृथ्वी अपनी धुरी पर 23)° झुकी हुई है, इसलिए हम पूर्व ना कहकर उत्तर-पूर्व फनंकतंदज कहते हैं। सारांश यह निकला कि उत्तर-पूर्व में यदि खुला स्थान होगा तो घर में अधिक लाभकारी प्दतिं त्मक त्ंल पहुंचेगी। भ्रांति निवारण: यह बात तो वैदिक वास्तु तथा वास्तु विज्ञान दोनों के अनुसार सही निकली कि उत्तर पूर्व में अधिक खुला स्थान होना चाहिए। मान लीजिए कि दो फ्लैट बिल्कुल एक जैसे हैं और उनमें से एक के ईशान कोण में एक प्रवेश द्वार है और दूसरे के ईशान कोण में दो खिड़कियां है। अवैज्ञानिक पंडित कहेगा कि ईशान कोण में प्रवेश द्वार सर्वोत्तम है। परंतु वैज्ञानिक पंडित कहेगा कि दो खिड़कियां एक प्रवेश द्वार से बेहतर हैं क्योंकि उनका क्षेत्रफल एक द्वार के क्षेत्रफल से अधिक है जिसकी वजह से अधिक प्दतिं त्मक त्ंले भवन में प्रवेश कर पाएंगी।

वैदिक वास्तु के सिद्धांत आज भी खरे हैं। बस आवश्यकता उनका आज के परिपेक्ष्य में विश्लेषण करने की है। लेखक (कर्नल तेजेंद्रपाल त्यागी, वीर चक्र) जिन्हें ;प्देजपजनजपवद व िम्दहपदममते ;प्दकपंद्ध वास्तु विज्ञान के ऊपर अपना सर्वोच्च पुरस्कार लखनऊ में सन् 2004 में प्रदान किया। इनके व इनकी पत्नी श्रीमती रमा त्यागी के द्वारा लिखी गई पुस्तक सरकारी और औपचारिक स्तर पर राजाराम मोहन लाइब्रेरी ने विभिन्न प्रदेशों की 126 लाइब्रेरीज को प्रेषित की है।

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