हस्त सामुद्रिक शास्त्र की प्रासंगिकता डाॅ. भगवान सहाय श्रीवास्तव प्रकृति विधान व परमात्मा द्वारा मनुष्य की हथेली में जो चिह्न अंकित हैं, उनका अध्ययन करना, उनकी भाषा समझना, उनके रहस्यों का उद्घाटन व प्रमाणित करना ही सामुद्रिक शास्त्र है। हथेलियों के आकार, रंग व उनकी रचना, मुख्य व गौण रेखाओं के पूरे प्रवाह व उनकी रचना, अन्य चिह्नों के रंग, आकार व स्थान, अंगूठों तथा उंगलियों के आकार, उनके जोड़ों, पोरों, व पर्वतों की रचना आदि समस्त विषयों का गहन अध्ययन तथा सही विश्लेषण कर फल कथन करना ही हस्त सामुद्रिक का कार्य है। ज्योतिष शास्त्र की भांति सामुद्रिक शास्त्र का उद्भव भी 5000 वर्ष पूर्व भारत में ही हुआ था। पराशर, व्यास, सूर्य, भारद्वाज, भृगु, कश्यप, बृहस्पति, कात्यायन आदि महर्षियों ने इस विद्या की खोज की। इस शास्त्र का उल्लेख वेदों और स्कंद पुराण, बाल्मीकि रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों के साथ-साथ जैन तथा बौद्ध ग्रंथों में भी मिलता है। इसका प्रचार प्रसार सर्वप्रथम ऋषि समुद्र ने किया इसलिए उन्हीं के नाम पर इसका नाम सामुद्रिक शास्त्र रखा गया। भारत से यह विद्या चीन, यूनान, रोम व इज्राइल पहुंची तथा आगे चलकर पूरे यूरोप में फैल गई। कहते हैं ई. पू. 423 में यूनानी विद्वान अनेक्सागोरस यह शास्त्र पढ़ाया करते थे। इतिहास में उल्लेख है कि हीपांजस को हर्गल की वेदी पर सुनहरे अक्षरों में लिखी सामुद्रिक की एक पुस्तक मिली जो उसने सिकंदर महान को भेंट की थी। प्लेटो, अरिस्टाॅटल, मेगनस, अगस्टस, पैराक्लीज तथा यूनान के अन्य दार्शनिकों ने भी इसकी महत्ता स्वीकार की थी। इसके बाद यह ज्ञान लुप्त हो गया। उन्नीसवीं सदी में यह शास्त्र फिर अपनी पूरी शक्ति के साथ जीवित हो उठा। तब से यूरोपीय विद्वान भी इस क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं। वर्तमान में इस विद्या ने एक वैज्ञानिक रूप प्राप्त किया है। इसे पाश्चात्य विद्वानों की देन कहना ही उचित होगा। मनुष्य का मस्तिष्क जीवन व जगत के जिन घात प्रतिघातों को ग्रहण करता है। उनका ठीक-ठीक रेखांकन मस्तिष्क और हथेलियों को जोड़ने वाले मज्जा तंतुओं द्वारा हथेलियों पर होता जाता है। जन्म के साथ ही बालक का मस्तिष्क क्रियाशील होने लगता है, उसके शरीर में स्वस्थ रक्त का संचार होने लगता है। फलतः उसके अवयव गतिवान हो उठते हैं। उसी क्षण से मस्तिष्क की जीवनी शक्ति के अनुरूप हथेली पर रेखाओं का उदय होने लगता है। शताब्दियों पूर्व अस्स्टिाॅटल ने भी कहा था कि मानव शरीर में हथेली का प्रमुख स्थान है। प्रत्येक व्यक्ति की रेखाओं का भिन्न-भिन्न होना तथा बीमारी में उनका अदृश्य हो जाना भी इस शास्त्र की वैज्ञानिकता सिद्ध करता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि हस्त रेखाएं स्थिर हैं, कभी बदलती नहीं। परंतु वैज्ञानिक खोजों से स्पष्ट हो चुका है कि रेखाएं परिवर्तनशील होती हैं। चूंकि मानव का मस्तिष्क विकासमान है अतः विकास की रेखाओं पर प्रभाव स्वभाविक है। छोटे-छोटे बच्चों की रेखाएं अत्यंत अस्थिर होती हैं। ज्यों- ज्यों मानसिक प्रवृत्तियों में स्थिरता आती है त्यों-त्यों रेखाओं में भी स्थिरता का आभास होने लगता है। सामुद्रिक में ज्योतिष के गणित की तरह निश्चितता नहीं होती है। मस्तिष्क में प्रवृत्तियों की तीव्रता के अनुसार रेखाओं का रूप भी बदलता है कुछ विद्वानों का मत है कि सात वर्षों में हथेली की रेखाओं में पूर्ण परिवर्तन आ जाता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि परिस्थितियों को बदलने वाली रेखाओं में कुछ महीनों में ही परिवर्तन स्पष्ट देखा जा सकता है। पूरी हथेली में केवल हृदय, मस्तिष्क व जीवन रेखाएं अपरिवर्तित रहती हैं क्योंकि व्यक्ति के कुछ तत्व जन्मजात व पैतृक होते हैं। लेकिन भाग्य सहित सूर्य, बुध, राहु, मंगल, चंद्र आदि रेखाएं बदलती रहती हैं। सारांश में हस्त रेखा शास्त्र हमारे गुण दोषों का परिचय तो देती ही हैं, भविष्य में होने वाली घटनाओं से भी अवगत कराता है। इसके अतिरिक्त यह प्रारब्ध के खतरों तथा स्वभावगत दोषों को कम और गुणों में वृद्धि करने में हमारी मदद कर सकता है। हस्त रेखा शास्त्र के संबंध में एक सामुद्रिक शास्त्री ने कहा है कि यह ज्ञान हमें प्रयत्नों से धैर्य, परेशानी में सांत्वना, शांति व विनम्रता देता है तथा दैनिक जीवन की हर स्थिति परिस्थिति में निश्चित, निर्भय, संयमी और विवेकशील बनाता है। रेखाएं मनुष्य को प्रकृति की एक महान देन हैं। ये आत्म ज्ञान और आत्मानुभूति का सबसे आसान व सबसे विश्वसनीय साधन हैं। ये आत्मशक्ति, साहस व अनुशासन के साथ जीना सिखाती हैं। ये हस्त रेखाएं स्वयं बोलती हैं, प्रश्न करती हैं, किसी खतरे के प्रति सचेत करती हैं और समस्याओं से जूझने की प्रेरणा देती हैं। तात्पर्य यह कि मनुष्य के जीवन के बनने बिगड़ने में रेखाओं हथेली में विद्यमान पर्वतों, पोरों, चिह्नों आदि की भूमिका अहम होती है। इन सबका ज्ञान हमें हस्त सामुद्रिक शास्त्र से मिलता है। अतः आज के इस वैज्ञानिक युग में भी इसका अपना अलग महत्व और प्रासंगिकता है।