मकर संक्रांति स रमेश शास्त्राी कर संक्रांति का पर्व संपूर्ण भारत वर्ष में बड़ी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। दक्षिण भारत में इसे पोंगल के पर्व के रूप में श्रद्धा एवं हर्षोल्लास से मनाया जाता है। जिस दिन सूर्य मकर राशि पर संक्रमण करता है उसी दिन को मकर संक्रांति कहते हैं। यह पर्व बड़ा पवित्र होता है। इसी दिन से देवताओं का दिन भी प्रारंभ होता है। ऐसी मान्यता है कि मनुष्यों के छः मास के बराबर देवताओं का एक दिन होता है और उसी के बराबर रात्रि भी होती है। जब सूर्य दक्षिणायन होते हैं। सूर्य का कर्क से धनु तक का काल दक्षिणायन माना जाता है। यह काल देवताओं का रात्रि काल माना जाता है। सूर्य की मकर राशि से मिथुन राशि तक की अवधि को उत्तरायण कहते हैं, जिसे देवताओं का दिन माना जाता है। मकर संक्रांति से देवताओं का दिन प्रारंभ होता है, जो आषाढ़ मास तक रहता है। इस अवधि काल में विवाह, चूड़ाकर्म सगाई आदि सभी मांगलिक कार्यों और देव प्रतिष्ठा, अनुष्ठाानादि धार्मिक कार्यों के साथ-साथ गृह प्रवेश, गृहारंभ आदि महत्वपूर्ण कार्या विशेष रूप से संपन्न किए जाते हैं। देश के पहाड़ी तथा विभिन्न मैदानी क्षेत्रों में मकर संक्रांति खिचड़ी संक्रांति के रूप में बहुत धूमधाम से मनाई जाती है। इस दिन लोग दोपहर में तिल मिश्रित खिचड़ी खाते हैं और एक दूसरे को तिल के लड्डू, रेवड़ी आदि भेंट करते हैं। राम चरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने मकरगत सूर्य के विषय में कहा है माघ मकरगत रवि जब होई तीरथपतहि आउ सब कोई। माघ मास में जब सूर्य मकर राशि पर होते हैं उस समय तीर्थराज प्रयाग में सभी लोग स्नान दानादि पुण्य कर्म करने के लिए आते हैं। प्रयाग में आज भी गंगा, यमुना, सरस्वती के तटों पर प्रति वर्ष माघ मेला लगता है, श्रद्धालु जन दूर-दूर से आकर इस पुण्य पर्व का लाभ प्राप्त करते हैं। कहा जाता है कि जब भीष्म पितामह महाभारत के युद्ध में वाणों की शय्या पर पड़े थे उस समय सूर्य दक्षिणायन थे, पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की और तब अपने प्राणों का त्याग किया और सीधे देव लोक को चले गए। म मकर संक्रांति के दिन माघ स्नान का प्रमुख पर्व भी होता है। इस दिन पवित्र नदियों सरोवरों में स्नान करने से पुण्य फल और भगवान नारायण के निमित्त पूजा, पाठ, दान, यज्ञ आदि करने से भगवत कृपा की प्राप्ति होती है। विशेष रूप से तिलों का दान करना महा पुण्य फलप्रद माना गया है। मकर संक्रांति का पर्व हमारी संस्कृति और सभ्यता का विशेष अंग है। यह पर्व आध्यात्मिक दृष्टि से हमारे लिए जितना महत्वपूर्ण है उतना ही भौतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यह पर्व हमें पवित्रता निर्मलता का संदेश तो देता ही है, त्याग और परोपकार की प्रेरणा भी देता है। जैसे बाहरी स्नान से शरीर निर्मल बनता है उसी प्रकार भीतरी स्नान से मन निर्मल बनता है। अतः तीर्थ में स्नान करते समय ईश्वर से यह प्रार्थना करें कि हमारे वाह्य शरीर की शुद्धि के साथ-साथ मन की आंतरिक शुद्धि भी बनी रहे, हमारी उन्नति हो और हम दूसरों की उन्नति में सहायक बनें।