‘सूर्य’ जिसे हम ग्रह कहते हैं - एक तारा है जो पूरे ब्रह्माण्ड में सबसे अधिक तेजवान, प्रकाशवान तथा प्रभावशाली है। अन्य सभी ग्रह (पृथ्वी, चन्द्र, मंगल, बुद्ध, गुरु, शुक्र शनि आदि) इसी के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं। इस ब्रह्माण्ड में सूर्य स्थिर है तथा अन्य सभी ग्रह-उपग्रह सूर्य के चारों ओर अपनी-अपनी कक्षा में भ्रमण करते रहते हैं। पृथ्वी भी एक ग्रह है जो अपने उपग्रह ‘चंद्रमा’ के साथ-साथ सूर्य की परिक्रमा करती है तथा यह अपनी कीली (धुरी) पर पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर 1186 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से घूमते हुए अपना एक चक्र लगभग 24 घंटे में पूरा कर लेती है।
चूंकि अभी तक पृथ्वी पर ही जीवन विकसित है अतः हम पृथ्वी को स्थिर मान लेते हैं जिसके फलस्वरूप सूर्य सहित अन्य सभी ग्रह पूर्व से पश्चिम की ओर क्या ग्रह्रह्रह प्रभ्भ्व डालते हैं ? पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए परिलक्षित होते हैं। समस्त मुख्य ग्रह अपना एक विशिष्ट रंग धारण किये हुए हैं यथा सफेद, लाल, हरा, पीला, सुनहरा, धुंधला, काला आदि तथा ये सभी ग्रह सूर्य से प्राप्त प्रकाश को अपने-अपने रंगों में परावर्तित कर निरंतर पृथ्वी पर भेजकर समस्त प्राणी जगत पर अपना प्रभाव डालते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे हम जिस भी रंग के लेंस की ऐनक पहनते हैं हमें उसी रंग का दिखाई देता है। किसी भी ग्रह की एक समान आकृति व गति नहीं होती है। अतः विभिन्न ग्रहों का अपनी-अपनी आकृति, दूरी, गति, कोण आदि के आधार पर समय-समय पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है।
समस्त ग्रह सूर्य की किरणों को अपने-अपने रंगों में परावर्तित कर ठीक उसी प्रकार से प्राणी जगत पर प्रभाव डालते हैं जैसे जल चिकित्सा विशेषज्ञ एक ही प्रकार के जल को विभिन्न रंगों की बोतलों में भरकर सूर्य की धूप में रख देते हैं तथा सूर्य की किरणें विभिन्न रंगों की बोतलों में से आर-पार जाकर जल पर अलग-अलग प्रभाव डालती हैं तथा वे जल चिकित्साध्कारी उस जल से विभिन्न रोगों की चिकित्सा करते हैं। जल-चिकित्सा तथा रंग-चिकित्सा एक ही श्रेणी में आती है। सूर्य की किरणें सभी मुख्य ग्रहों से परावर्तित होकर विभिन्न रंगों में अनवरत रूप से पृथ्वी पर आती रहती है।
जब बच्चा जन्म के समय मां के संपर्क से प्रकृति के संपर्क में आता है तो समस्त ग्रह अपनी-अपनी तीव्रता के आधार पर बच्चे के शरीर को विभिन्न भागों में विभाजित कर अपना-अपना आधिपत्य जमा लेते हैं। जब-जब भी किसी ग्रह की दशा/अन्तर्दशा आदि आती है तो मानव के शरीर में उस ग्रह से सम्बंधित भाग क्रियाशील हो जाता है तथा जातक उस ग्रह के कारकत्व से सम्बंधित व्यवहार करने लगता है। किसी भी जातक के व्यवहार को हम तीन प्रकार से जान सकते है-
1. जन्म-कुंडली में ग्रहों की स्थिति,
2. सम्बंधित ग्रह की दशा-अन्तर्दशा आदि, तथा
3. ग्रह की गोचरस्थ स्थिति। चंद्रमा चूंकि अन्य ग्रहों की अपेक्षा पृथ्वी के सबसे अधिक निकट है अतः पृथ्वी तथा उस पर रह रहे प्राणी जगत पर चंद्रमा का प्रभाव दिन-प्रतिदिन देखा जा सकता है जैसे:
1. सागर में ज्वार-भाटा प्रायः पूर्णिमा के आस-पास ही आता है।
2. समस्त प्राकृतिक आपदाएं यथा- भूकंप, तूफान, सुनामी आदि प्रायः पूर्णिमा के आस-पास ही आती हैं।
3. पागलखाने में पागल व्यक्ति पूर्णिमा के आस-पास ही अधिक उपद्रव करते हैं इसीलिये उनकी सुरक्षा की विशेष व्यवस्था की जाती है। अमावस्या के आस-पास वे लगभग शांत रहते हैं।
4. यह भी प्रामाणिक तथ्य है कि जातकों में आत्म-ह्त्या की प्रवृत्ति प्रायः पूर्णिमा के आस-पास ही पायी जाती है।
5. किसान शुक्ल पक्ष में ही खेतों में बुवाई करना अधिक पसंद करते हैं क्योंकि कृष्ण पक्ष की तुलना में शुक्ल पक्ष में बोए गए पौधे/फसल आदि अध् िाक विकसित होते हैं।
6. पुरुषों की दाढ़ी के बाल कृष्ण पक्ष की तुलना में शुक्ल पक्ष में डेढ़ गुना अधिक गति से बढ़ते हैं।
7. मछलियाँ प्रायः शुक्ल पक्ष में ही अंडे देती हैं।
8. यदि मानव कृष्ण पक्ष की तुलना में शुक्ल पक्ष में किसी कार्य का प्रारंभ करे तो उसे उस कार्य में अधिक सफलता मिलती है।
9. मिर्गी के दौरे प्रायः पूर्णिमा के आस-पास ही आते हैं।
10. मानसिक रूप से अविकसित व्यक्ति प्रायः अमावस्या/पूर्णिमा के आस-पास अधिक कष्ट पाते हैं। इसी प्रकार से हमारे अनुभव में आया है कि यदि मंगल किसी जातक की कुंडली में अष्टम भाव में है अथवा मंगल की प्रत्यंतर दशा चल रही है तो जब-जब भी मंगल जातक की कुंडली में लग्न/चन्द्र लग्न से चतुर्थ, अष्टम अथवा द्वादश भाव में गोचर करेगा तो जातक को किसी न किसी प्रकार की दुर्घटना का शिकार होना पड़ सकता है तथा उसके शरीर से थोड़ा बहुत रक्त निकलने की संभावना हो सकती है।
इस तरह से हम मंगल के साथ-साथ अन्य ग्रहों के प्रभाव को भी विभिन्न भावों पर देख सकते हैं। यथा जब-जब भी चंद्रमा चन्द्र लग्न से चतुर्थ, अष्टम अथवा द्वादश होता है तो जातक अनायास ही मानसिक अस्वस्थता की अवस्था में चला जाता है। शनि की प्रत्यंतर दशा में जातक के अन्दर अक्सर आलस्य अथवा कार्य को टालने की प्रवृत्ति देखी गयी है। बुध की प्रत्यंतर दशा अथवा बुध के चन्द्र लग्न से चतुर्थ, अष्टम अथवा द्वादश होने पर जातक के अन्दर अति वाचालता, वाणी दोष, गले में इन्फेक्शन अथवा चर्म रोग आदि प्रायः देखे जा सकते हैं। गुरु यद्यपि शुभ ग्रह है तथापि यदि वह चन्द्र लग्न से चतुर्थ, अष्टम अथवा द्वादश हो तो जातक के लगभग प्रत्येक कार्य में रुकावट, अड़चनें अथवा कार्य की सफलता में किसी न किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न करता है।
इसी प्रकार सूर्य के भी इन स्थितियों में होने से जातक के अन्दर अलगाव अथवा हुक्म चलाने की प्रवृत्ति प्रायः पायी जाती है। इससे यह सिद्ध होता है कि चन्द्र की भांति अन्य ग्रह भी इस जीव जगत पर अपना पूर्ण प्रभाव डालते हैं तथा ग्रहों की स्थिति का ज्ञान प्राप्त करके किसी भी जातक के भूत, वर्तमान तथा भविष्य से सम्बंधित घटनाओं की समुचित जानकारी प्राप्त की जा सकती है।