आदर्श जीवन शैली आर. पी. सिंह जीवन जीना एवं स्वस्थ रहना एक स्वाभाविक मानवीय आवष्यकता के साथ एक कला भी है, जिसे श्।त्ज् व्थ् स्प्टप्छळष् भी कह सकते है। जीवन जीने की कला में वही पारंगत हो सकता है, जिसे स्वस्थ जीवन का अर्थ एवं महत्व मालूम हो। हम प्रतिदिन जीवन जीते है, खाते है, सोते है, काम करते है। यह एक प्रकार का तरीका हो सकता है। सही जीवन जीने एवं स्वस्थ रहने की सार्थकता तभी होगी जब हम अपनी दिनचर्या या जीवन शैली को आधुनिकता के दायरे से निकाल कर अनुषासित, नियंत्रिंत ढंग से जीवन जीने का संकल्प लें क्योंकि वत्र्तमान समय में जीवन जीने के ढंग एवं इच्छा मंे मनमाने आचरण का प्रभाव देखने को मिलता है। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि:- यः शास्त्र विधिमुत्सृज्यवर्तते कामकारतः। न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।। तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्य व्यवस्थितौ। ज्ञात्वा शास्त्र विधामोक्तं कर्म कर्तु मिहार्हसि।। यानि जो मनुष्य शास्त्र विधि को छोड़कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि प्राप्त करता है और न ही सुख-षांति तथा परमगति को प्राप्त करता है। उसी प्रकार आयुर्वेदषास्त्र कहता है धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्- धर्म अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति में श्रेष्ठ मूल कारण शरीर का निरोग होना ही है। ईष्वरीय नियम पालन से ही शरीर निरोग रह सकता है। महर्षि चरक के आयुर्वेदीय जीवन सिद्धान्त में आयु के साथ हित एवं अहित तथा सुख और दुःख- इन दो स्थितियों को देखा गया है। इनमें हित एवं सुख आयु का पर्याय स्वस्थ जीवन होता है तथा अहित एवं दुःख आयु का पर्याय, रोग-ग्रस्त जीवन होता है। इस दृष्टि से आयुर्वेद विज्ञान में चिकित्सा के दो उद्देष्य स्पष्ट किये गये है। 1. स्वास्थ्य की ऊर्जा वृद्धि करके दीर्घ जीवन । 2. रोगी के रोग का शमन करके प्रकृति स्थापन द्वारा दीर्ध जीवन। काल, अर्थ और कर्म व्याधियों के सर्वव्यापक कारण माने गये है। इनसे बचने के लिए ही आयुर्वेदज्ञों ने स्वस्थ्य वृत्त के विधान का उद्धेष्य किया है। स्वास्थ्य एवं आदर्ष दिनचर्या हेतु तथा विकारों की उत्पत्ति का प्रतिबन्धन करने के लिए चरक संहिताकार ने सूत्रस्थान पाँच में नित्य प्रयोजनीय विषय निम्न प्रकार से वर्णित किये है। -आहार-विहार-सद्वृत्त आदर्ष जीवन शैली के सूत्र स्वस्थ व निरोग रहने के लिए मनुष्य को सर्वप्रथम अपनी दिनचर्या को सुधारना होगा। ऋतुओं के अनुसार आचरण करते हुए जीवन व्यतीत करने से, निरोगी, स्वस्थ एवं सुन्दर जीवन की प्राप्ति हेतु ब्रह्ममुह्र्त से रात्रिषयन तक ईष्वरीय एवं प्राकृतिक नियमानुसार जीवन शैली को सुधार कर एवं अपनाकर ही ‘‘आदर्ष प्राकृतिक जीवन शैली ’’ व्यतीत की जा सकती है। उपर्युक्त नित्य क्रिया संपादन के पश्चात् व्यायाम प्रातः भ्रमण, स्नान आदि को भी अनिवार्य रूप से अपनी दिनचर्या में शामिल करें तथा स्वच्छ वस्त्र धारण करके ईश्वरोपासना तथा योगाभ्यास द्वारा अपने आभ्यंतर विकास के लिए प्रयासरत रहें। भोजन (आहार):- प्रत्येक मनुष्य का आहार उसके देष, काल, आयु, प्रकृति, कार्य के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है। आहार के संबंध में क्या खाऐं, कितना खाऐं,, कब खाऐं, क्यों खाऐं एवं कैसे खाऐं के बारे में शास्त्र सम्मत सिद्वातों का पालन करें। आयुर्वेदिक सिद्धान्त के अनुसार प्रकृतिविरूद्ध आहार वात, पित्त, कफ, इन दोषों और रस, रक्त आदि धातुओं तथा स्वेद-मूत्रादि मलों एवं उपधातुओं तथा स्रोतस-विशेष को दूषित करते हैं। यह दोष-वैषम्य रोग सम्प्राप्ति का प्रथम सोपान माना जाता है। इसलिए महर्षि चरक ने लाभ प्राप्त करने के लिये आठ प्रकार की आहार विधि निर्धारित की है। उस सबका अध्ययन और पालन करें और निम्नलिखित सामान्य नियमों को ध्यान में रखें। 1. भोजन करते समय शान्त एवं मौन रहना चाहिए। 2. भोजन से पूर्व हाथ-पैर की सफाई कर लेनी चाहिए। 3. भोजन करते समय ढीले वस्त्र धारण करना चाहिए। 4. शीघ्रता से एवं अधिक मात्रा से भोजन नहीं करना चाहिए। 5. ज्यादा गरम या ज्यादा ठन्डा भोजन नहीं करना चाहिए। 6. प्रकृति विरूद्ध, ऋतु विरूद्ध या शरीर विरूद्ध भोजन नहीं करना चाहिए। 7. भोजन पष्चात् मूत्र त्याग करना चाहिए। दिन चर्या के समान ही ऋतुचर्या तथा रात्रिचर्या भी महत्वपूर्ण है। साँय काल के समय भोजन, मैथुन, नींद, पढ़ना एवं मार्ग गमन नहीं करना चाहिए। रात्रि के प्रथम पहर में ही भोजन कर लेना चाहिए। शयन काल में वस्त्र ढीले एवं विस्तर स्वच्छ एवं आरामदायक होना चाहिए। सोने का कमरा स्वच्छ एवं हवादार होना चाहिऐ। सोने से पूर्व ईष्वर ध्यान अवष्य करना चाहिए। प्रकृति के साथ सम्बन्ध:- जो मनुष्य प्रकृति में रहता है, उसे प्रकृति के आठ रूप आरोग्य प्रदान करते है यथा जल, अग्नि, होता, सूर्य, चन्द्र, आकाष और पृथ्वी एवं वायु। दिनचर्या के दौरान इन आठ रूपों के सहयोग से मानव जीवन सदा स्वच्छ एवं स्वस्थ रहता है। कालिदास ने प्रकृति को षिव और प्रकृति के अष्ट रूपों को षिव की अष्ट मूर्तियाँ माना है। इन अष्टमूर्तियों का सीधा सम्बन्ध पृथ्वी के जीव जगत से है। हमारे पूर्वज प्रकृति के इन अष्टरूपों की आराधना एवं उपासना करते थे। स्वच्छ प्रकृति में ही स्वच्छ प्रवृति का विकास संभव है। जब प्रकृति के अष्ट रूप पूर्ववत स्वच्छ निर्मल और प्रसन्न होगें तो फिर हमें कोई रोग नहीं होगा और हम निरोग रहेगें। अतः हम कवि कालिदास के शब्दों में प्रकृति (षिव) के उनप्रत्यक्ष अष्टरूपों की स्तुति करते हैंै जिनसे सभी को आदर्ष निरोगता एवं स्वास्थय प्रदान हो। युक्ताहार - विहार का प्रभाव:- हमारी आदर्ष दिनचर्या या जीवनचर्या में धर्मानुरूप युक्ताहार-विहार का भी प्रभाव पड़ने से सद्गुणों एवं सद्विचारों में वृ़िद्ध होती है जो ‘आदर्ष जीवन-शैली’’ को सबलता प्रदान करती है। विदुरनीति में कहा गया है कि यत्न से आचार की रक्षा करनी चाहिऐ। ‘वृतं यत्नेनं संरक्षेतं’ । आदर्ष (प्राकृतिक) जीवन शैली का वैदिक स्त्रोत:- वैदिक ज्ञान स्रोत हमारे आचरण, संस्कार सत्कर्म, सदविचार को परिष्कृत करते है। जिनसे हमें जीवन जीने, जीने का मतलब समझने, स्वयं में सुधार करने तथा स्वयं को अध् िाकाधिक धर्म, कर्म, ईष्वर एवं इन्द्रिय नियंत्रण के करीव लाने का अवसर एवं ज्ञान देकर हमें आदर्ष बनाते है। ‘‘आदर्ष (प्राकृतिक) जीवन शैली का महत्व एवं प्रभाव ’’ आजकल सामान्यतः लोग छोटी मोटी बीमारियों से परेषान रहते है और उनके लिये उन्हे बार-बार चिकित्सकों की शरण लेनी पड़ती है। वास्तव में खान-पान आहार-बिहार व रहन-सहन की अनियमितता तथा असंयम के कारण ही रोग और ब्याध् िायों का जन्म होता है तथा हमारी दिन चर्या प्रभावित होती है। संयमित एवं नियमित जीवन से प्राणी स्वस्थ रहता है।