ज्योतिष की आर्ष पद्धति
ज्योतिष की आर्ष पद्धति

ज्योतिष की आर्ष पद्धति  

उमा जैन
व्यूस : 6926 | अप्रैल 2004

वैदिक ग्रंथों तथा वेदांग ज्योतिष का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि भारत में नक्षत्र ज्ञान अपने उत्कर्ष पर रहा है। इसी कारण नक्षत्र ज्ञान तथा नक्षत्र विद्या का अर्थ ‘ज्योतिष’ माना जाने लगा। ज्योतिष का प्रचलित अर्थ हुआ वह षास्त्र जिसमें ज्योति का अध्ययन हो। वास्तव में ज्योतिष नक्षत्र आधारित विज्ञान ही है। ज्योतिष के तीनों स्कंधों-गणित, फलित तथा संंिहता पर नक्षत्रों का वर्चस्व है। वैदिक काल में काल निर्णय नक्षत्रों के माध्यम से किया जाता था। वर्तमान में फलित ज्योतिष में किसी जातक का षुभाषुभ ज्ञात करने के लिए ग्रहों की महादषाओं, अंतर तथा प्रत्यंतर दषाओं का अध्ययन किया जाता है। अनेक प्रकार की दषाओं में नक्षत्र दषा पद्धति प्रधान मानी जाती है। बहुप्रचलित एवं स्वीकृत विंषोतरी दषा, अष्टोत्तरी दषा, काल चक्र दषा, योगिनी दषा आदि दषाएं नक्षत्र पर आधारित ही हैं।

मुहूर्त प्रकरणों में अनेक कार्यों के षुभाषुभ परिणाम तथा मुहूर्त का आधार नक्षत्रों पर ही आधारित है। विवाह मेलापक की पद्धति चाहे उत्तर भारतीय हो, या दक्षिण भारतीय, दोनों ही में नक्षत्र आधारित मेलापक का वर्चस्व है। उत्तर भारत में प्रचलित विवाह मेलापक के 36 गुणों में से 21 गुणों के निणर्य का आधार नक्षत्र ही है। व्रत एवं उपवास का निर्णय नक्षत्र पर निर्भर करता है। त्रैलोक्य दीपक, सर्वतोभद्र चक्र का आधार नक्षत्र है। वेदों में नक्षत्रों का वर्णन हुआ है। परंतु सब स्थलों पर नक्षत्र षब्द का अर्थ आजकल के प्रचलित अर्थ में ही हुआ हो, ऐसा नहीं है। ऋग्वेद सहिंता तथा अथर्ववेद संहिता में नक्षत्र षब्द का अर्थ तारों के संदर्भ में भी हुआ है।

ऋक्संहिता में (7।5।35) चंद्रमा के मार्ग में आने वाले तारों तथा नक्षत्रों के लिए एक ही षब्द का उपयोग हुआ है। परंतु तैत्तरीय संहिता में नक्षत्रों एवं तारों में अंतर किया गया है। तैत्तरीय संहिता के अनुसार ‘नक्षत्राणि रुप तारका अस्थीनि’, अर्थात नक्षत्र रुप तथा तारें अस्थियंा है। तैत्तरीय ब्राह्मण 1।5।2 में नक्षत्रों को परिभाषित करते हुए बताया गया है कि ‘ समुद्र के समान विस्तार वाले आकाष को जिन तारक नौकाओं के माध्यम से हम पार करते हैं, वे तारे हैं। इन तारों के आधार पर जो यज्ञ प्रयोग किये जाते हैं, उनके लोक क्षत नहीं होते। इसी से उन्हें नक्षत्र कहते हैं।

नक्षत्र दिव्य ज्योति देवताओं के मंदिर हैं। जिस प्रकार पृथ्वी पर घर, निवास, अथवा किसी स्थल की पहचान के लिए विषिष्ट चित्र आदि की सहायता ली जाती है, उसी प्रकार अष्व मुख आदि चित्रों की सहायता से अष्विनी आदि देवताओं के षुद्ध नक्षत्रों की पहचान हो जाती है। इस लिए नक्षत्रों का नाम चित्र भी है। तैत्तरीय ब्राह्मण में नक्षत्र षब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी गयी है: प्रबाहुर्वा अग्रे क्षत्राण्यातेपुः। तेषामिन्द्रः क्षत्राण्यादत ।। न वा इमानि क्षत्राण्यभूवन्निति । तन्नक्षत्राणंा नक्षत्रत्वम् ।। अर्थात जो क्षत नहीं है, वही नक्षत्र है। निरुक्त में नक्षत्र षब्द के लिए कहा गया है ‘ नक्षत्राणि नक्षतेर्गतिकर्मण।’ तैत्तरीय ब्राह्मण में 1।5।2 में कहा गया है कि ‘ इस लोक के पुण्यात्मा उस लोक में नक्षत्र हो जाते हंै। नक्षत्र देवताओं के ग्रह हैं। जो यह जानता है, वह ग्रही होता है। यह जो पृथ्वी का चित्र है, वह ही नक्षत्र है।


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अतः अषुभ नाम वाले नक्षत्रों में कोई कार्य न तो प्रारंभ करना चाहिए और न ही समाप्त करना चाहिए। अषुभ नाम वाले नक्षत्रों में कार्य करना पापकारक दिनों में कार्य करने के समान दोषपूर्ण है। आज भी मुहूर्त ग्रंथों में अषुभ नाम वाले नक्षत्रों में कार्य करने का निषेध है। ऋग्वेद ज्योतिष में कहा गया है: नक्षत्रदेवता एता एताभिर्यज्ञकर्मणि । यजमानस्य षास्त्रज्ञेर्नाम नक्षत्रजं स्मृतम् ।। अर्थात षास्त्रों के वचनानुसार यज्ञ कर्म में नक्षत्रों के देवताओं के द्वारा यजमान का नक्षत्र नाम रखा जाना चाहिए। तैत्तरीय श्रुति में नक्षत्रों से संबंधित विषयों का विस्तृत तथा विपुल वर्णन हुआ है। इस श्रुति में सब नक्षत्रों के नाम तथा उनके देवताओं के नाम भी बताये गये हैं। नक्षत्रों के नामों की व्युत्पति बतायी गई है। तैत्तरीय संहिता के अनुवाक 4।4।10 में सभी नक्षत्रों के नाम दिये गये हैं। तैत्तरीय ब्राह्मण में तीन स्थलों पर सब नक्षत्रों के नाम तथा उनके देवताओं के नाम बताये गये हैं। नक्षत्रों की व्युत्पति के विषय में तैत्तरीय ब्राह्मण 1 । 1। 2 में तथा 1।5।2 में विस्तृत उल्लेख दिया गया है।

इसी ब्राह्मण के 1।5।2।2 में नक्षत्रीय प्रजापति की कल्पना की गयी है। इसके अनुसार नक्षत्र प्रजापति में हस्त नक्षत्र उसका हाथ, चित्रा नक्षत्र उसका सिर, स्वाती हृदय, विषाखा के दो तारे दोनों जंघाएं तथा अनुराधा खड़े रहने का स्थान है। नक्षत्रों की स्थिति की यह परिभाषा वास्तव में नक्षत्रों में समाहित तारों के विषय में ज्ञान कराने का माध्यम है। इससे यह जाना जा सकता हैे कि किस नक्षत्र पुंज में कितने तारे विद्यमान हैं। वेदों में 27 नक्षत्रों के अतिरिक्त भी कुछ अन्य तारों का उल्लेख मिलता है। स. 1।24।10 में ‘ अमी यक्षा निहितास उच्चा नक्तन्ददृषे कुहचिद्दिवेयु’ के माध्यम से कहा गया है कि आकाष के उच्च क्षेत्रों में स्थित ऋक्ष रात में दिखाई देते हैं और दिन में कहीं अन्यत्र चले जाते है। प्राचीन काल में सप्तर्षियों का उल्लेख ऋक्ष के रुप में किया गया है। सस्ंकृत में ऋक्ष का अर्थ भालू भी होता है।

ज्योतिष ग्रंथों तथा षास्त्रों में तारों के विषिष्ट समूंह को नक्षत्र कहा गया है। नक्षत्र की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि ‘ न क्षरतीति नक्षत्रः’, अर्थात जिसका क्षरण न होता हो, वह नक्षत्र है। अथर्ववेद 19।7 की ऋचा ‘ चित्राणि साकंकृकृ; में 28 नक्षत्रों का उल्लेख है। तैत्तरीय श्रुति में दो स्थानों पर अभिजित नक्षत्र का नाम आया है। यजुर्वेद के एक मंत्र में 27 नक्षत्रों का उल्लेख है। इन उल्लेखों से भ्रम उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि नक्षत्र 27 माने जाएं अथवा 28। आज भी फलित ज्योतिष में 27 नक्षत्र माने जाते है,ं परंतु मुहूर्त आदि विषयों में, अभिजित सहित, 28 नक्षत्र ग्रहण करने का संप्रदाय भी प्रचलित है। सामान्यतः सूक्ष्म नक्षत्र का मान क्रंाति वृत्त का 27 वां भाग, अर्थात 800 कला है।

आधुनिक युग में भी यह मान स्वीकृत है। परंतु प्राचीन काल में एक और पद्धति प्रचलित थी। उसमें कुछ नक्षत्रों को अर्धभोग कुछ को सम भोग, अर्थात एक भोग तथा कुछ को अध्यर्ध अर्थात ड़ेढ़ भोग का माना जाता था। ब्रह्मगुप्त तथा भास्कराचार्य ने महर्षि गर्ग के संदर्भ से इसका उल्लेख करते हुए कहा है कि गर्गादादिक ऋषियों ने फलादेष के लिए यह पद्धति अपनायी थी। इस पद्धति के अनुसार भरणी, आद्र्रा, अष्लेषा, स्वाती, ज्येष्ठा, षतभिषा, ये 6 नक्षत्र अर्ध भोग तथा रोहिणी, पुनर्वसु, तीनों उत्तरा तथा विषाखा, ये 6 नक्षत्र अध्यर्ध भोग तथा षेष नक्षत्र सम भोग माने गये हैं।


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गर्ग ने भोग का मान 800 कला तथा ब्रह्मगुप्त ने चंद्र मध्य दिन गति अर्थात 790 कला 35 विकला माना है। इसी लिए ब्रह्म सिद्धांत में अभिजित नक्षत्र ले कर चक्र कला की पूर्ति के लिए उसका मान 4 अंष 14 कला 15 विकला दिया है। (21600- 27ग 790/ 35 त्र 4 अंष 14 कला 15 विकला)। नारद ने इस पद्धति के अनुसार अर्ध भोग नक्षत्रों का कालात्मक मान 15 मुहूर्त, अर्थात 30 घटी, सम भोग वाले नक्षत्रों का मान 30 मुहूर्त तथा अध्यर्ध नक्षत्रों का कलात्मक मान 45 मुहूर्त लिखा है। यदि नक्षत्रों के मध्य मान से गणना की जाए, तो यह गणित ठीक आता है। नक्षत्रों के सम, मध्य तथा अध्यर्ध मान आज भी प्रचलित हैं।

राजनैतिक तथा व्यापारिक भविष्यवाणियों में सूर्य संक्रांति का विषेष महत्व होता है। सूर्य संक्रांति जिस नक्षत्र में हो, उसी के आधार पर 15, 30, या 45 घटी की संक्राति मानी जाती है। इसी के आधार पर सुभि़क्ष, अथवा दुर्भिक्ष का निर्णय होता है। इसका मूल यही पद्धति है। ऐसा प्रतीत होता है कि नक्षत्रों के तारों का अंतर समान न होने के कारण ही नक्षत्रों के भोग काल में अंतर की धारणा प्रचलित हुई होगी। उनमे से कुछ नक्षत्रों के नाम उनके षुभाषुभ फल के अनुसार ही पड़ गये। उदाहरण के लिये ज्येष्ठ, अथवा वरिष्ठ को मारने वाली ज्येष्ठघ्नी, जिसमें सैकड़ों चिकित्सकों की सहायता ली जाए, वह षतभिषक, या षतभिषा, जिसका फल रुदन हो वह रेवती आदि। यह फल वषिष्ठ संहिता के आधार पर है, जिस में कहा गया है:

षतभिषजि भैषज्यं कारयेत्. पौषणधिण्ये मासैकं रोगपीड़नम्’ भारतीय पुराणों तथा धर्म गं्रथों में स्थान स्थान पर दी गयी कथाएं उस समय की खगोलीय स्थिति का वर्णन है, इसे एक बार नहीं कई बार सिद्ध किया जा चुका है। महाभारत में वर्णित ययाति, अर्जुन आदि के सदेह स्वर्ग गमन के प्रंसंग इसी प्रकार के हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में रोहिणी, मृग तथा मृग व्याध की कथा, रोहिणी प्रजापति की कथा इन तथ्यों की पुष्टि करती है। भारत में नक्षत्र ज्योतिष के अत्याधिक प्रचार तथा प्रसार से प्रायः ही यह माना जाता है कि भारतीय ज्योतिष में राषियों का प्रभाव वराह मिहिर के समय से आया।

प्रायः ही इस मत की पुष्टि के लिए महाभारत का उदाहरण दिया जाता है, क्योंकि महाभारत में ज्योतिष की चर्चा अनेक स्थानों पर है। युगों का उल्लेख महाभारत में है। वर्ष के बारह मास, अधिमास, दक्षिणायण ,उत्तरायण का वर्णन भी महाभारत में मिलता है। ग्रहण का उल्लेख मिलता है। ग्रहण पूर्णिमा - अमावस्या को होता है, इसका भी वर्णन मिलता है। यदि नहीं मिलता तो सप्ताह के दिनों का उल्लेख नहीं मिलता। योग, करण, राषियों के नाम नहीं मिलते। तिथियों तथा पर्व की गणना सूर्य एवं चंद्र की स्थिति के अनुसार की जाने के प्रमाण मिलते हैं।

इस आधार को ले कर विद्वानों का मत है कि वराह मिहिर ने यवनो के प्रभाव से भारतीय ज्योतिष में राषियों का समावेष किया। उक्त वक्तव्य के प्रमाण में बृहज्जातक अध्याय 1 के ष्लोक 8 का सदंर्भ लिया जाता है, जिसमें राषियों के यवन नामों का उल्लेख है। हमारे मतानुसार यह मंतव्य निराधार है। संस्कृत के आदि कवि वाल्मिकी की रचना ‘ रामायण’ का काल महाभारत पूर्व का है। वाल्मिकी रामायण बाल कांड सर्ग 18 के ष्लोक 8-10 में भगवान श्री राम के जन्म समय की ग्रह स्थिति का वर्णन करते हुए स्पष्ट रूप से कर्क लग्न के विषय में कहा है ‘ग्रहेषु कर्कटके लग्ने’।

अतः निर्विवादित रुप से भारत में प्राचीन काल से ही राषियों का प्रचलन सिद्ध होता है। राषियों से नक्षत्रों के मान सूक्ष्म हैं। अतः आर्ष ऋषियों ने नक्षत्रों पर आधारित ज्योतिष को राषि ज्योतिष से अधिक महत्वपूर्ण माना। यही तथ्य पुराणों तथा संहिताओं में परिलक्षित होता है।


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