योगासन शरीर, मन और आत्मा तीनों को ही धो-मांझकर चमकाने का काम करते हैं। इनके नियमित अभ्यास करने से शरीर के बाह्य और आंतरिक विकार नष्ट हो जाते हैं। खाया-पीया शरीर में लगता है और रोग कोसों दूर रहते हैं। योगासन से व्यक्ति चाहे तो ‘अमरत्व’ तक को भी हासिल कर सकता है।
‘योग’ का शाब्दिक अर्थ ही ‘जोड़ना’ होता है। मन से और शरीर से जो कार्य किया जाता है, उसे ही ‘योग’ कहा जाता है। योग आनंदमय जीवन जीने की एक कला भी है। महर्षि पतंजलि द्व ारा रचित ‘योग सूत्र’ योग दर्शन का मूल ग्रंथ है। शरीर को किसी एक मुद्रा या स्थिति में रखते हुए सुख प्राप्त करना आसन है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए आसन बहुत जरूरी हैं।
यौगिक आसन अन्य शारीरिक व्यायामों की अपेक्षा पूरी तरह से वैज्ञानिक हैं। इनको भारतीय महर्षियों ने मानव जाति की शारीरिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए हजारों वर्षों तक अन्वेषण और प्रयोग करके निकाला है। यौगिक आसनों का उपयोग रोगों को दूर करने के लिए ही किया जाता है, जो अचूक होता है। नौ वर्ष से कम उम्र वाले बच्चों को इन आसनों का अभ्यास नहीं कराना चाहिए।
आसनों से असाध्य और पुराने से पुराने रोग भी दूर होने में देर नहीं लगती है। व्यक्ति आसनों का अभ्यास कर अमरत्व तक भी प्राप्त कर सकता है, क्योंकि आसनों के प्रभाव से शरीर का मल या जहर, जो मौत का कारण होता है, दूर हो जाता है फलस्वरूप शरीर निर्मल एवं अलौकिक बन जाता है।
आज के समय में आसनों के महत्व और उनकी उपयोगिता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। आज करोड़ों लोग इनका अभ्यास कर ठीक हो रहे हैं। ऐसे ही कुछ उपयोगी आसनों के बारे में यहां जानकारी दी जा रही है। पाद हस्तासन सबसे पहले सीधे खड़े हो जाइए, इसके बाद धीरे-धीरे हाथ नीचे करके दोनों हाथों की अंगुलियों से दोनों पांव के अंगूठे पकड़ लीजिए। यह पाद हस्तासन हुआ।
यह आसन करते समय विशेष ध्यान इस बात पर देना चाहिए कि पांव सीधे रखें, घुटने टेढ़े न हों और हाथ भी जहां तक हो, वहां तक सीध् ो रहें। इस आसन को करते समय पेट को अंदर की ओर अच्छी तरह खींचना चाहिए। पेट जितना अध् िाक खींचा जाएगा, उतना ही अध् िाक लाभ इससे होता है।
पांव एवं स्नायुओं पर अच्छा खिंचाव आता है तथा पीठ-कमर आदि की नसें अच्छी तरह खिंच जाती हैं, इसीलिए कमर की बीमारी इस असान के करने से नहीं होती हैं तथा पेट पर भी उसका उत्तम परिणाम होता है। यकृत और प्लीहा निर्दोष हो जाते हैं, पेट का स्थान और आंतों के भाग भी शुद्ध होने में भी बड़ी सहायता मिलती है।
पश्चिमोत्तानासन जमीन पर बैठकर पावों को आगे फैला लीजिए, इसके बाद दोनों हाथों से दोनों पांवों के अंगूठे पकड़ लीजिए। सिर दोनों घुटनों के बीच में रखिए। पूर्व लिखित आसन के अनुसार ही हाथों और पांवों के हेर-फेर से तथा नाक को घुटनों पर अथवा घुटनों के आगे लगाने से इसके चार प्रकार होते हैं, उनको पूर्व लिखित विधि के अनुसार ही करना चाहिए, इससे पहला आसन खड़ा होकर किया जाता है, जबकि यह बैठकर किया जाता है। इतना ही दोनों में भेद है।
बाकी दोनों आसनों की विधि और लाभ एक समान हैं। स्त्रियां गर्भवती होने की अवस्था में तीन मास के पश्चात इस आसन को न करें, पुरुषों के लिए कोई रुकावट नहीं है, पन्द्रह मिनट तक प्रतिदिन यह आसन करने से पेट के विकार दूर होते हैं।
जानु शिरासन एक पैर की एड़ी को गुदा और अंड कोष के बीच में जमाकर दूसरा पांव सीधा आगे रखिए, परंतु ध्यान रहे कि जिस पैर की एड़ी गुदा और अंडकोष के बीच में रही है, उस पैर के पांव के तले से दूसरी जंघा पर अच्छी प्रकार दबाव आ जाए, तत्पश्चात दोनों हा. थों से उस फैले पांव को पकड़कर उसी पांव के घुटने पर सिर अथवा नाक लगाकर बैठिए, यह आसन 5 मिनट से आधा घंटे तक किया जा सकता है।
इस आसन को करते समय नाभि से पेट को पीठ की ओर अंदर खींचने से बहुत लाभ होता है, परंतु ऐसा करने पर प्राण को स्थिर रखना पड़ता है, इस कारण यह आसन बहुत देर करना कठिन हो जाता है, तो भी नाभि सहित पेट को अंदर खींचकर और साथ ही साथ गुदा और शिश्न के आस-पास की सब नस नाड़ियां मन के द्वारा ऊपर खींचकर यह आसन करने पर वीर्य स्थिरता आदि के संबंध में अनेक लाभ होते हैं।
जो इस प्रकार आकर्षण विधि के साथ यह आसन नहीं कर सकते, वे बिना आकर्षण भी कर सकते हैं। आकर्षण विधि से वीर्य रक्षा होती है और आकर्षण विधि के बिना निम्नलिखित लाभ हो सकते हैं-
1. प्लीहा और यकृत के दोष दूर होते हैं।
2. जीर्णज्वर दूर हो कर उसमें पाण्डु आदि होने वाले रोग हट जाते हैं।
3. कास, श्वास और प्राथमिक अवस्था का क्षय भी हटता है।
आंतों के दोष दूर होने के कारण पाचन शक्ति बढ़ जाती है, भूख अच्छी लगने लगती है। भूख लगने पर गाय या बकरी का दूध पीना, सात्विक भोजन तथा उत्तम घी का सेवन करना अत्यंत आवश्यक है। चटपटे पदार्थ मसालेदार भोजन तथा अन्य रूखी चीजें नहीं खानी चाहिए। योग्य फल, कंद-मूल का सेवन करने से बहुत लाभ होता है।
बहुत लोग भूख लगने पर अयोग्य पदार्थों का सेवन करके फिर अपना स्वास्थ्य बिगाड़ लेते हैं। जिन रोगों में मल-मूत्र का स्तंभन होता है, आंतों में उष्णता बढ़ जाती है और वायु का प्रकोप होता है, ऐसे मर्ज के रोगियों को यह आसन पूर्वोक्त पथ्य के साथ करने पर लाभ पहुंचाता है। पेट का दर्द, नाभि-स्थान का शूल अथवा जो सिर-दर्द पेट बिगड़ने से होता है, वह इस आसन के अभ्यास से दूर हो जाता है।
यह आसन एक बार दायें पांव से और दूसरी बार बायें पांव से अवश्य करना चाहिए। इसमें भूल नहीं होनी चाहिए। दायें और बायें अंगों के साथ इसका अभ्यास सम-प्रमाण में होना आवश्यक है, जितनी बार और जितने समय एक अंग से अभ्यास किया है, उतनी ही बार और उतने ही समय दूसरे अंग से करना चाहिए।
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