क्या कहता है चातुर्मास मंथन श्रावण मास में हुए समुद्र-मंथन में मंदराचल पर्वत को मथानी तथा वासुकि सर्प का मंथन के रस्से के रूप में प्रयोग किया गया था। भगवान विष्णु ने स्वयं कूर्मावतार लेकर इस पर्वत का भार वहन किया था। वास्तव में समुद्र मंथन के संदर्भ में एक प्रश्न मस्तिष्क में उभरता है कि जब ईश्वर अंतर्यामी है तथा उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं है, और वे समुद्र मंथन के पश्चात प्राप्त हुई सभी वस्तुएं बिना किसी प्रयास के ही आसानी से उपलब्ध करा सकते हैं तो फिर समुद्र मंथन की आवश्यकता क्यों पड़ी? इसी संदर्भ में देखिये समुद्र मंथन से प्राप्त प्रत्येक रत्न का यथार्थ भूमि पर वास्तविक अर्थ। हिंदु पंचाग के अनुसार श्रावण मास वर्ष का पांचवा महीना होता है। इस माह को आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत शुभ माना जाता है। इस माह से ही चातुर्मास का आरंभ होता है। चातुर्मास का शाब्दिक अर्थ है चार माह। यह आषाढ़ शुक्ल एकादशी से आरंभ होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक होता है। आषाढ़ शुक्ल एकादशी को देवशयनी एकादशी के नाम से आध्यात्मिक दृष्टि से वर्ष के सबसे पवित्र मास माने जाते हैं। हिंदु धर्म में चातुर्मास का एक-एक दिन बहुत पवित्र माना जाता है तथा इस अवधि में तप, शास्त्राध्ययन एवं सत्संग आदि करने का विशेष महत्व होता है। वास्तव में ये चार मास वर्षा ऋतु काल होते हैं। प्राचीन काल में साधु महात्मा जो कि एक स्थान से दूसरे स्थान पर विचरण करते रहते थे वर्षा तथा कार्तिक शुक्ल एकादशी को देवोत्थान एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। अतः चातुर्मास की चार माह की समयावधि देवशयनी एकादशी से आरंभ होकर देवोत्थान एकादशी तक होती है। इस वर्ष चातुर्मास 30 जून से आरंभ होकर 24 नवंबर को समाप्त होगा। श्रावण, भाद्रपद, आश्विन एवं कार्तिक मास चातुर्मास के अंतर्गत आते हैं तथा के कारण इन दिनों एक ही स्थान पर रहकर जप एवं तप करते थे तथा इस दौरान इन साधु महात्माओं के ज्ञान एवं सत्संग तथा इनके प्रवचन आदि का गृहस्थ लोग लाभ उठाते थे। इस दौरान कोई भी शुभ मांगलिक कार्य करना वर्जित होता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि यह समय गृहस्थों को अधिक से अधिक जप एवं तप एवं विद्वान पुरुषों के प्रवचन सुनकर व्यतीत करना चाहिये क्योंकि चातुर्मास समाप्ति के पश्चात साधु महात्मा एवं विद्वान पुरुष पुनः आगे भ्रमण के लिये निकल जाते हैं। इस दौरान विवाहादि मांगलिक कार्य न करके जप तप करने का वैज्ञानिक कारण भी है। वर्षा ऋतु में कम खाना ही स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है क्योंकि वर्षा ऋतु में नमी के कारण खाने में हानिकारक बैक्टिरिया बहुत जल्दी विकसित होते हैं। इस दौरान पानी दूषित होने की संभावना भी अधिक होती है। अतः इसी कारण से इस दौरान कोई बड़ा आयोजन एवं भोज आदि किये जाने की शास्त्रों में अनुमति नही है तथा शास्त्रों में इसे ध्यान, जप, तप, साधना एवं सत्संग का समय निर्धारित किया गया है। इस काल में संतुलित भोजन करके तप, व्रत एवं ध्यान योग द्वारा आन्तरिक रोग प्रतिरोधक क्षमता एवं आत्मबल को बढ़ाने की सलाह शास्त्रों में दी गई है। चातुर्मास में क्या नहीं खाना चाहिये श्रावण मास में हरी पत्तेदार सब्जियां नहीं खानी चाहिये क्योंकि वर्षा ऋतु में कीड़े-मकोड़े सतह पर आ जाते हैं तथा पौधों के पत्तों को सबसे अधिक दूषित करते हैं। अतः श्रावण मास में हरी पत्तेदार सब्जियों का सेवन निषेध है। भाद्रपद - मास में दही नहीं खाना चाहिए क्योंकि इस मास में पित्त व अम्ल प्रधान वस्तुएं नहीं खानी चाहिये। आश्विन मास में दूध का सेवन वर्जित है क्योंकि गाय एवं भैंस द्वारा दूषित हरा चारा तथा दूषित पानी पीने से उनके दूध की शुद्धता पर भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। अतः इस मास में दूध का सेवन नहीं करना चाहिये। शास्त्रों के अनुसार कार्तिक मास में लगा और समस्त देवता एवं राक्षस गण गहन व्याकुलता का अनुभव करने लगे तो देवाधिदेव महादेव ने उस हलाहल का समस्त विश्व के जीवमात्र के कल्याण हेतु पान किया। इस हलाहल को भगवान शंकर ने अपने कंठ से नीचे कंठ में ही धारण किया। वस्तुतः देवाधिदेव महादेव स्वयं विश्व रूप है अतः उनके द्वारा हलाहल को उदरस्थ करने से प्राणी मात्र को ही पीड़ा होती। इस प्रकार विश्व के जीवों की सीमित सामथ्र्य एवं शक्ति को देखते हुए उन्होंने इस हलाहल को केवल कंठ में ही धारण किया जिसके प्रभाव से उनका कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाये। इसी कारण चातुर्मास के प्रथम मास श्रावण मास में भगवान शिव की आराधना की जाती है। हलाहल विष के पान के पश्चात इसके दग्ध प्रभाव को कम करने तथा इससे होने वाली पीड़ा को कम करने के लिए देवताओं ने भगवान शंकर को गंगाजल अर्पित किया था। इसी कारण चातुर्मास के प्रथम मास श्रावण मास में भगवान शंकर को गंगाजल अर्पित करने का विशेष महत्व है। इसी उद्देश्य से कांवरिया हरिद्वार, ऋषिकेश आदि से गंगाजल लाकर उससे श्रावण मास में भगवान शंकर का अभिषेक करते हैं। चातुर्मास के दूसरे माह भाद्रपद में गणेश चतुर्थी तथा कृष्ण जन्माष्टमी मनाई जाती है। गणेश चतुर्थी के 10 दिवस पश्चात् अनन्त चतुर्दशी के दिन गणेश विसर्जन किया जाता है। इस प्रकार भाद्रपद माह में गणेश की आराधना एवं भगवान विष्णु के पूर्णकलावतार भगवान कृष्ण की आराधना की जाती है। इस माह में भगवान गणेश जो कि बुद्धि के देवता दाल के सेवन का निषेध किया गया है क्योंकि वे मुख्यतः कफ को बढ़ाती है। इस मास में मौसम परिवर्तित होता है तथा जठराग्नि मंद होने के कारण ऐसे पदार्थों का खाना निषेध किया गया है। श्रावण मास में ही समुद्र मंथन संपन्न हुआ था। समुद्र मंथन में सर्वप्रथम 14 प्रकार के रत्न प्रकट हुये थे। इनमें से 13 रतनों के समुचित वितरण के पश्चात् हलाहल विष भगवान शंकर को जग के कल्याण के लिये स्वयं पीना पड़ा था। जब हलाहल से निकलने वाली अग्नि से सारा विश्व दग्ध जैसा अनुभव करने लगा और समस्त देवता एवं राक्षस गण गहन व्याकुलता का अनुभव करने लगे तो देवाधिदेव महादेव ने उस हलाहल का समस्त विश्व के जीवमात्र के कल्याण हेतु पान किया। इस हलाहल को भगवान शंकर ने अपने कंठ से नीचे कंठ में ही धारण किया। वस्तुतः देवाधिदेव महादेव स्वयं विश्व रूप है अतः उनके द्वारा हलाहल को उदरस्थ करने से प्राणी मात्र को ही पीड़ा होती। इस प्रकार विश्व के जीवों की सीमित सामथ्र्य एवं शक्ति को देखते हुए उन्होंने इस हलाहल को केवल कंठ में ही धारण किया जिसके प्रभाव से उनका कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाये। इसी कारण चातुर्मास के प्रथम मास श्रावण मास में भगवान शिव की आराधना की जाती है। हलाहल विष के पान के पश्चात इसके दग्ध प्रभाव को कम करने तथा इससे होने वाली पीड़ा को कम करने के लिए देवताओं ने भगवान शंकर को गंगाजल अर्पित किया था। इसी कारण चातुर्मास के प्रथम मास श्रावण मास में भगवान शंकर को गंगाजल अर्पित करने का विशेष महत्व है। इसी उद्देश्य से कांवरिया हरिद्वार, ऋषिकेश आदि से गंगाजल लाकर उससे श्रावण मास में भगवान शंकर का अभिषेक करते हैं। चातुर्मास के दूसरे माह भाद्रपद में गणेश चतुर्थी तथा कृष्ण जन्माष्टमी मनाई जाती है। गणेश चतुर्थी के 10 दिवस पश्चात् अनन्त चतुर्दशी के दिन गणेश विसर्जन किया जाता है। इस प्रकार भाद्रपद माह में गणेश की आराधना एवं भगवान विष्णु के पूर्णकलावतार भगवान कृष्ण की आराधना की जाती है। इस माह में भगवान गणेश जो कि बुद्धि के देवता लगा और समस्त देवता एवं राक्षस गण गहन व्याकुलता का अनुभव करने लगे तो देवाधिदेव महादेव ने उस हलाहल का समस्त विश्व के जीवमात्र के कल्याण हेतु पान किया। इस हलाहल को भगवान शंकर ने अपने कंठ से नीचे कंठ में ही धारण किया। वस्तुतः देवाधिदेव महादेव स्वयं विश्व रूप है अतः उनके द्वारा हलाहल को उदरस्थ करने से प्राणी मात्र को ही पीड़ा होती। इस प्रकार विश्व के जीवों की सीमित सामथ्र्य एवं शक्ति को देखते हुए उन्होंने इस हलाहल को केवल कंठ में ही धारण किया जिसके प्रभाव से उनका कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाये। इसी कारण चातुर्मास के प्रथम मास श्रावण मास में भगवान शिव की आराधना की जाती है। हलाहल विष के पान के पश्चात इसके दग्ध प्रभाव को कम करने तथा इससे होने वाली पीड़ा को कम करने के लिए देवताओं ने भगवान शंकर को गंगाजल अर्पित किया था। इसी कारण चातुर्मास के प्रथम मास श्रावण मास में भगवान शंकर को गंगाजल अर्पित करने का विशेष महत्व है। इसी उद्देश्य से कांवरिया हरिद्वार, ऋषिकेश आदि से गंगाजल लाकर उससे श्रावण मास में भगवान शंकर का अभिषेक करते हैं। चातुर्मास के दूसरे माह भाद्रपद में गणेश चतुर्थी तथा कृष्ण जन्माष्टमी मनाई जाती है। गणेश चतुर्थी के 10 दिवस पश्चात् अनन्त चतुर्दशी के दिन गणेश विसर्जन किया जाता है। इस प्रकार भाद्रपद माह में गणेश की आराधना एवं भगवान विष्णु के पूर्णकलावतार भगवान कृष्ण की आराधना की जाती है। इस माह में भगवान गणेश जो कि बुद्धि के देवता राक्षसों को जला कर कष्ट दे रही थी, वहीं उस अग्नि के प्रभाव से देवताओं पर जल की वर्षा हो रही थी और उन्हे अत्यधिक सुखद स्थिति का अनुभव हो रहा था। इसका तात्पर्य है कि मनुष्य को सदा सर्वदा प्रभु की भक्ति एवं उसकी इच्छा को ही सर्वोपरि मानकर अपना कार्य करते रहना चाहिये तथा अपने समस्त कर्म प्रभु के चरणों में समर्पित करते हुए जीवन में आगे बढ़ना चाहिय। आरंभ में अपनी इच्छानुसार फल न मिलने से कष्ट हो सकता है परंतु इसका अंतिम परिणाम हमेशा आशातीत शुभ फल देता है। समुद्र-मंथन के दौरान निकलने वाला भंयकर प्रलयकारी हलाहल विष प्रत्येक अच्छे कार्य में आने वाली बाधाओं एवं रूकावटों की ओर इंगित करता है। उद्देश्य जितना बड़ा होगा, रूकावटें भी उतनी ही प्रबल होंगी। परंतु जो इन रूकावटों को सामना करते हुए अपने उद्देश्य की ओर निरंतर अग्रसर होते रहेंगे उनकी रूकावटें भगवान शंकर की कृपा से स्वतः ही दूर हो जाएंगी। इसी कारण समस्त बाधाओं, रूकावटों, शारीरिक व्याधियों एवं अन्य समस्त कष्टों के एक मात्र निवारक भगवान शंकर हैं। इन सभी का समाधान प्रभु शंकर के शांत स्वरूप में है। अतः चातुर्मास का प्रथम माह श्रावण मास भगवान शंकर को अर्पित किया गया है। समुद्र मंथन में सर्वप्रथम कामधेनु प्रकट हुई। गौ, हवन एवं अग्निहोत्र में प्रयुक्त होने वाली महत्वपूर्ण एवं आवश्यक वस्तुएं दूध, दही, घी, गोबर एवं गोमूत्र उपलब्ध कराती है। इन सब वस्तुओं के अभाव में हवन एवं अग्निहोत्र कार्य सफल नहीं होता है। हवन एवं अग्नि होत्र से समस्त कामनाओं की पूर्ति की जा सकती है। अतः गाय को कामधेनु की संज्ञा दी जाती है जो कि हवन एवं अग्नि होत्र को पवित्र बनाती है। इसके पश्चात् श्वेत अश्व उच्चैःश्रव प्रकट हुआ जो कि चंद्रमा की कांति के समान श्वेत था। उच्चै श्रव वस्तुतः अत्यंत शांत एवं उद्वेग रहित मन का प्रतीक है जिसके माध्यम से सभी प्रकार की लौकिक एवं पारमार्थिक उपलब्धियां संभव है। इस अश्व का रूप एवं कांति साधना के पथ पर चलने वालों को उपलब्ध होने वाली प्रारंभिक पवित्रता एवं शक्ति का प्रतीक है। इसका अर्थ इन शक्तियों के कारण मिलने वाली आरंभिक गुण होगा उतनी ही अधिक अद्वैत की भावना होगी। अतः अद्वैत की भावना का सीधा संबंध सत्वगुण व देवताओं से है। राक्षसों की माता दिति थी। दिति का अर्थ है द्वैत भाव। अर्थात निरंतर अच्छे एवं बुरे के द्वंद में उलझे रहना। जो मनुष्य जीवात्मा एवं परमात्मा में भेद करते हुये स्वयं को सर्वोपरि मानकर भौतिक इच्छाओं और कामनाओं की पूर्ति हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं उनमें द्वैत भावना अधिक होती हैं जो कि रजस एवं तमस वृत्तियों की प्रधानता से होती है। साधक को अपनी इन दोनों ही विचारधाराओं को ईश्वर के समक्ष पूर्ण रूप से न केवल अपनी अच्छाइयों व बुराइयों के साथ समर्पित करना चाहिये, वरन् संपूर्ण विश्व को भी उसकी अच्छाइयों एवं बुराइयों के साथ स्वीकार करना चाहिये तथा इसके पश्चात आत्ममंथन करना चाहिये जिससे कि ईश्वर इस मंथन में उसी प्रकार सहायता कर सके जिस प्रकार समुद्र मंथन में राक्षसों एवं देवताओं का सहयोग किया था। यथार्थ में तो शुभाशुभ दोनों ही उसी परमात्म तत्व के अभिन्न अंग है। जैसे धूप के साथ छांव, गुण के साथ अवगुण तथा विकास के साथ ह्रास, सृजन के साथ संहार। ये एक ही तत्व के दो पक्ष हैं और उस परमात्म तत्व की अनुभूति के लिये दोनों पक्षों की संतुलनकारी शक्ति अनिवार्य है क्योंकि दूसरे पक्ष की अनुभूति, प्रथम पक्ष के बिना संभव हो ही नहीं सकती। इसके पश्चात् ऐरावत हाथी का प्रादुर्भाव हुआ। यह निष्कलंक पवित्रता, शुद्ध ज्ञान एवं उपलब्धियों का प्रतीक है। इन उपलब्धियों की केवल सत्वगुण में रमे व्यक्ति ही प्राप्त समुद्र मंथन केवल पौराणिक कथा ही नहीं है वरन यह जीवन दर्शन के गूढ़ रहस्यों की ओर इंगित करती है। चातुर्मास देवशयनी एकादशी से आरंभ होकर देवोत्थान एकादशी तक चलता है। यहां देवशयनी एकादशी व्यक्ति की लौकिक उपलब्धियों की दिशा में एक विराम का प्रतीक है। लोकप्रियता एवं प्रशंसा है। यदि साधक इसके प्रभाव में आ जाता है तो घोड़े की-सी तेजी से अपने लक्ष्य से दूर भी हो सकता है। ऋषि कश्यप देवताओं एवं राक्षसों दोनों के पिता थे। परंतु उनकी माताएं अलग थीं। देवताओं की माता अदिति थी। अदिति का अर्थ है अंद्वैत की भावना जिसका अर्थ है संसार की समस्त वस्तुओं को सम दृष्टि से देखना अर्थात लाभ-हानि, सुख-दुख तथा यश-अपयश व अच्छी-बुरी सभी स्थितियों में समान रहना। मनुष्य में जितना अधिक सत्व करते हैं। देवताओं में सत्व गुण की प्रधानता होती है। अतः इसे देवराज इंद्र को अर्पित किया गया जिनमें सत्व एवं रजस गुण की प्रधानता है। हाथी स्थूलकाय प्राणी है। इसका स्थूल शरीर मनुष्य के शुद्ध अहं तत्व का प्रतीक है। शुद्ध अहं की अनुभूति के लिए बुद्धि का साहचर्य होना आवश्यक है। वस्तुतः हाथी सभी प्राणियों में सर्वाधिक बुद्धिमान एवं शांत जीव माना जाता है। अतः हाथी बुद्धि एवं अहं का समन्वय है। हाथी की आंखे उसके शरीर की तुलना में बहुत छोटी होती है जो कि सूक्ष्म दृष्टिकोण की ओर इंगित करती है। इसका तात्पर्य है कि शुद्ध बुद्धि एवं शुद्ध अहं तत्व का प्रयोग करके स्थूल संसार में स्थित गहन एवं गूढ़ रहस्यों की उपलब्धि की जा सकती है। इसके पश्चात कौस्तुभ मणि प्रकट हुई जिसका अर्थ है शुद्ध चेतना। शुद्ध चेतना स्वयं ईश्वर का रूप ही होती है। इसी कारण प्रभु उसे अपने हृदय पर धारण करते हैं। इसके पश्चात आठों प्रकार की लक्ष्मी के समाहित रूप का प्रादुर्भाव हुआ जो कि सर्व विद्या, सुख, संपत्ति, वैभव तथा समस्त मूल्यवान निधियों का प्रतिनिधित्व करती है। लक्ष्मी का अपूर्व सौंदर्य एवं रूप देखकर वहां उपस्थित लगभग सभी लोगों के मन में लक्ष्मी को अपनाने की लालसा जागी। परंतु भगवान विष्णु इससे पूर्णतः निर्लिप्त थे। लक्ष्मी ने स्वयं अपने हाथ में माला ली और अपने लिए उपयुक्त वर की खोज करने लगी। लक्ष्मी ने मन ही मन कहा ‘यहां पर उपस्थित लोगों में से कुछ लोग उच्च श्रेणी के तपस्वी है। परंतु उन्हें स्वयं के क्रोध एवं अहंकार पर नियंत्रण नहीं है जैसे कि महर्षि दुर्वासा। उधर शुक्राचार्य जो कि बहुत विद्वान थे मोह से युक्त थे। भगवान ब्रह्मा बहुत महान एवं विद्वान है परंतु उनका स्वयं की कामनाओं एवं वासनाओं पर नियंत्रण नहीं जबकि देवताओं के राजा इंद्र जिनको सुख एवं ऐश्वर्य की कमी नहीं थी परंतु वह तो भगवत कृपा का परिणाम मात्र थे। भगवान परशुराम स्वयं के कर्म को पूर्ण तन्मयता से करते हैं परंतु उनमें अहं का भाव अधिक है। कुछ में त्याग की भावना बहुत है जैसे कि राजा शिवि परंतु पूर्ण त्याग की भावना ही तो सब कुछ नहीं है। भगवान शंकर योगियों की तरह रहते हैं। इस प्रकार वहां उपस्थित लोगों में से लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को ही स्वयं के लिए उपयुक्त वर पाया और उनका ही पति के रूप में चयन किया जो कि सर्वगुण संपन्न एवं इस संसार के पालक हैं। वास्तव में देखा जाए तो जो व्यक्ति इच्छाआंे एवं कामनाओं से परे है वही सबसे अधिक धनवान है। भौतिक सुखों की प्राप्ति हेतु दिन-रात प्रयत्नशील रहने वाले मनुष्य सही अर्थों में धनवान नहीं कहे जा सकते हैं। वे तो अपनी उपलब्धियों का आनंद भी अत्यधिक व्यस्तता के कारण पूर्णतः ले ही नहीं पाते हैं। चूंकि लक्ष्मी स्वयं एक सशक्त साधन है तथा उस साधन का वही विचक्षण प्रयोक्ता पूर्ण रूप से, व्यापक लिप्सारहित उपयोग कर सकता है जो कि अत्यधिक बुद्धिमान एवं सर्वगुण संपन्न हो। ये सब गुण देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु में देखकर उनका वरण किया। उसके पश्चात् भगवान धन्वन्तरी का प्रादुर्भाव हुआ जो कि हाथ में अमृत कलश लिए हुये थे। इन भगवान धनवन्तरी को ही आयुर्वेद का जनक माना जाता है। इसका तात्पर्य है कि आत्ममंथन एवं साधना से मिलने वाला सुख अमृत के समान होता है जो स्वर्गीय सुख, यश, वैभव एवं आरोग्यता प्रदान करता है। इस प्रकार शास्त्रों में समुद्र मंथन के द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि आत्ममंथन एवं साधना द्वारा आत्मबोध रूपी अमृत प्राप्त किया जाता है जो सुख, यश एवं आरोग्यता प्रदान करता है। इसमें यह भी प्रतिपादित किया गया है कि साधकों को सफलता तभी मिलती है जब वे सुख-दुख, लाभ-हानि, यश-अपयश, अच्छा-बुरा आदि को सभी प्रभु इच्छा मानकर दोनों ही स्थितियों में सामान्य रहे तथा अपना कर्म करते रहें। सच्चे साधकों के मार्ग में आने वाली सभी परेशानियां प्रभु की कृपा से ही दूर होती है एवं मनुष्यों में सद्गुणों का विकास होता है जिससे कि उनकी उन्नति के मार्ग प्रशस्त होते हैं। इस प्रकार समुद्र मंथन केवल पौराणिक कथा ही नहीं है वरन यह जीवन दर्शन के गूढ़ रहस्यों की ओर इंगित करती है। चातुर्मास देवशयनी एकादशी से आरंभ होकर देवोत्थान एकादशी तक चलता है। यहां देवशयनी एकादशी व्यक्ति की लौकिक उपलब्धियों की दिशा में एक विराम का प्रतीक है। इसका अर्थ है मनुष्य को भौतिक उपलब्धियों के लिए चेष्टा करने से पूर्व अपनी संपूर्ण शक्ति आत्ममंथन में लगाकर सही दिशा निर्धारण करना चाहिये एवं उसी के आधार पर भविष्य की योजना मानसिक स्तर पर, त्रुटिरहित पूर्णता के साथ बनानी चाहिए। वस्तुतः आत्ममंथन के समय में न्यूनतम भोजन ही अपेक्षित होता है तथा यही सहज उपवास की स्थिति भी होती है।