कांवड़ यात्रा - विराट धार्मिक आयोजन रेखा कल्पदेव अनेक तरह के रूप रंग और आकार वाली सजी कांवड़ों को उठाकर लंबी यात्रा करना जीवट का काम तो है ही लेकिन उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है इस परम पवित्र आयोजन से संबंधित नियम आदि का कठोरता और निष्ठापूर्वक पालन जो शिव भक्त को अपने इष्ट देव और जलाभिषेक करते समय उनके साथ भावना की दृष्टि से लगभग एकाकार कर देता है। आप जानते ही हैं, यह यात्रा विराट कुंभ मेले के समान ही अनंत धारा की तरह होती हैं। कावड़ का मूल शब्द है ‘‘कांवर’’ जिसमें शिव भक्त अपने कंधे पर पवित्र जल का कलश लेकर पैदल यात्रा करते हुए इष्ट शिवलिंगों तक पहुंचते हैं। पितृभक्त श्रवण कुमार को प्रथम कांवड़ चढ़ाने वाला माना जाता है। कांवड़ यात्रा निकालने के पीछे एक तथ्य यह भी है कि भगवान आशुतोष देवी गंगा को ज्येष्ठ दशहरे के दिन इस पृथ्वी पर थे। गंगा उनकी जटाओं में विराजमान हुईं। इसलिए भगवान शंकर को गंगा अत्यंत प्रिय हैं। गंगाजल के अभिषेक से वह अत्यंत प्रसन्न होते हैं। इसी के साथ दुग्ध, बेलपत्र और धतूरा अर्पित करने से भगवान आशुतोष भक्त पर प्रसन्न होते हैं और उस पर कृपा करते हुए मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं। श्रद्धालु शिव भक्त श्रावण मास में सोमवार के दिन व्रत रखते हैं और भगवान भोलेशंकर की आराधना करते हुए उनके अनेकानेक प्रिय पदार्थ उन्हें अर्पित करते हैं। भारत में तो श्रावण मास में शिवभक्ति का विराट रूप और आस्था का अनंत प्रवाह कांवड़ यात्रा के रूप में दृष्टिगोचर होता है। हिंदू धर्म में माना जाता है कि भगवान शिव इस पूरे जगत का संचालन करते हैं और संहार भी। यही कारण है कि धर्म शास्त्रों में श्रावण मास में भगवान शिव की आराधना का शेष मासों की तुलना में अधिक महत्व है। शास्त्रों में श्रावण मास के महत्व को बताने वाले अनेक धार्मिक प्रसंग हैं। इनमें अमरनाथ तीर्थ में भगवान शंकर द्वारा माता पार्वती को सुनाई गई अमरत्व की कहानी का सबसे अधिक धार्मिक महत्व है। पौराणिक मान्यता है कि भगवान शंकर ने अमरत्व का रहस्य बताने के लिए कहानी माता पार्वती को एकांत में सुनाई। कहानी सुनने के दौरान माता पार्वती को नींद आ गई। किंतु उस कहानी को उस स्थान पर मौजूद शुक यानि तोते ने सुन लिया। कहानी सुनकर शुक अमर हो गया। इसी शुक ने भगवान शंकर के कोप से बचकर बाद में शुकदेव जी के रूप में जन्म लिया। इसके बाद शुकदेव जी ने यह अमर कथा नैमिषारण्य क्षेत्र में भक्तों को सुनाई। मान्यता है कि यहीं पर भगवान शंकर ने ब्रह्मा और विष्णु के सामने शाप दिया कि आने वाले युग में अमर कथा को सुनने वाले अमर नहीं होंगे। किंतु यह कथा सुनकर पूर्व जन्म और इस जन्म में किए पाप और दोषों से मुक्त हो जाएंगे। उन भक्तों को शिवलोक मिलेगा। खास तौर पर सावन के माह में इस अमर कथा का पाठ करने या सुनने वाला जन्म-मरण के बंधन से छूट जाएगा। दूसरी पौराणिक मान्यता के अनुसार मरकंडू ऋषि के पुत्र मारकण्डेय ने लंबी उम्र के लिए शिव की प्रसन्नता के लिए श्रावण मास में कठिन तप किया जिसके प्रभाव से मृत्यु के देवता यमराज भी पराजित हो गए। यही कारण है कि श्रावण मास में शिव आराधना का विशेष महत्व है। इस मास में शंकर जी की यथोपचार पूजा, अमर कथा का पाठ करने या सुनने पर लौकिक कष्टों से मुक्ति मिलती है जिनमें पारिवारिक कलह, अशांति, आर्थिक हानि और कालसर्प योग से आने वाली बाधा शामिल है। इस प्रकार श्रावण मास में शिव पूजा से ग्रह बाधाओं और परेशानियों का अंत होता है। शिवजी एक मात्र ऐसे देवता हैं जिन्हें लिंग रूप में पूजा जाता है। शिव ही वे देवता है जिन्होंने कभी कोई अवतार नहीं लिया। शिव कालों के काल है यानी साक्षात महाकाल हैं। वे जीवन और मृत्यु के चक्र से परे हैं इसलिए समस्त देवताओं में एकमात्र वे परब्रह्म है इसलिए केवल वे ही निराकार लिंग के रूप में पूजे जाते हैं। इस रूप में समस्त ब्रह्मांड का पूजन हो जाता है क्योंकि वे ही समस्त जगत के मूल कारण है। शिव का पूजन लिंग रूप में ज्यादा फलदायक माना गया है। कांवड़ यात्रा के समय इन बातों का रखें ध्यान हमारे देश में प्राचीन काल से कांवड़ यात्राएं निकाली जा रही है। कुछ लोग कांवड़ यात्रा के सिर्फ धार्मिक पक्ष को ही जानते हैं जबकि कांवड़ यात्रा का मनोवैज्ञानिक पक्ष भी है। कांवड़ यात्रा वास्तव में एक संकल्प होती है, जो श्रद्धालु द्वारा लिया जाता है। कांवड़ यात्रा के दौरान यात्रियों द्वारा नियमों का पालन सख्ती से किया जाता है। कांवड़ यात्रियों के लिए किसी भी प्रकार का नशा वर्जित रहता है। इस दौरान तामसी भोजन यानी मांस, मदिरा आदि का सेवन भी नहीं किया जाता। बिना स्नान किए कांवड़ यात्री कांवड़ को नहीं छूते। तेल, साबुन, कंघी करने व अन्य श्रृंगार सामग्री का प्रयोग भी कावड़ यात्रा के दौरान नहीं किया जाता। कांवड़ यात्रियों के लिए चारपाई पर बैठना एवं किसी भी वाहन पर चढ़ना भी निषेध है। चमड़े से बनी वस्तु का स्पर्श एवं रास्ते में किसी वृक्ष या पौधे के नीचे कांवर रखने की भी मनाही है। कांवड़ यात्रा में बोल बम एवं जय शिव-शंकर घोष का उच्चारण करना तथा कांवड़ को सिर के ऊपर से लेने तथा जहां कांवड़ रखी हो उसके आगे बगैर कांवड़ के नहीं जाने के नियम का पालन किया जाता है। इस तरह कठिन नियमों का पालन कर कांवड़ यात्री अपनी यात्रा पूर्ण करते हैं। इन नियमों का पालन करने से मन में संकल्प शक्ति का जन्म होता है। शास्त्रोक्त नियम-विधान अनुसार शिवलिंग पूजा शुभ फल देने वाली मानी गई है। इन नियमों में एक हंै शिवलिंग पूजा के समय भक्त का बैठने की दिशा। जानते हैं शिवलिंग पूजा के समय किस दिशा और स्थान पर बैठना कामनाओं को पूरा करने की दृष्टि से विशेष फलदायी है। 1. जहां शिवलिंग स्थापित हो, उससे पूर्व दिशा की ओर चेहरा करके नहीं बैठना चाहिये क्योंकि यह दिशा भगवान शिव के आगे या सामने होती है और धार्मिक दृष्टि से देव मूर्ति या प्रतिमा का सामना या रोक ठीक नहीं होती। 2. शिवलिंग से उत्तर दिशा में भी न बैठे क्योंकि इस दिशा में भगवान शंकर का बायां अंग माना जाता है, जो शक्तिरूपा देवी उमा का स्थान है। 3. पूजा के दौरान शिवलिंग से पश्चिम दिशा की ओर नहीं बैठना चाहिए क्योंकि वह भगवान शंकर की पीठ मानी जाती है। इसलिए पीछे से देवपूजा करना शुभ फल नहीं देता। 4. इस प्रकार एक दिशा बचती है - वह है दक्षिण दिशा। इस दिशा में बैठकर पूजा, फल और इच्छापूर्ति की दृष्टि से श्रेष्ठ मानी जाती है। 5. सरल अर्थ में शिवलिंग के दक्षिण दिशा की ओर बैठकर यानि उत्तर दिशा की ओर मुंह कर पूजा और अभिषेक शीघ्र फल देने वाला माना गया है। इसलिए उज्जैन के दक्षिणमुखी महाकाल और अन्य दक्षिणमुखी शिवलिंग की पूजा का बहुत धार्मिक महत्व है। 6. शिवलिंग पूजा में सही दिशा में बैठने के साथ ही भक्त को भस्म का त्रिपुण्ड लगाना, रुद्राक्ष की माला पहनना और बिल्वपत्र अवश्य चढ़ाना चाहिए। अगर भस्म उपलब्ध न हो तो मिट्टी से भी मस्तक पर त्रिपुंड लगाने का विधान शास्त्रों में बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि जब सारे देवता श्रावण मास में शयन करते हैं तो भोलेनाथ का अपने भक्तों के प्रति वात्सल्य जागृत हो जाता है। कांवड़ का जल केवल 12 ज्योर्तिलिंगों और स्वयंभू शिवलिंगों (जो स्वयं प्रकट हुए हैं) पर ही चढ़ाया जाता है। प्राण प्रतिष्ठित मूर्तियों और शिवलिंगों पर कांवड़ का जल नहीं चढ़ाया जाता। संपूर्ण भारत में भगवान् शिव का जलाभिषेक करने के लिए भक्त अपने कंधों पर कांवड़ लिए हुए गोमुख (गंगोत्री) तथा अन्य समस्त स्थानों पर जहां भी पतित पावनी गंगा विराजमान हैं, से जल लेकर अपनी यात्रा के लिए निकल पड़ते हैं। उत्तर भारत में विशेष रूप से पश्चिमी उत्तरप्रदेश में गत 10 वर्षों से अधिक समय से कावंड़ यात्रा पर्व एक कुंभ मेले के समान महा आयोजन का रूप ले चुकी है। भक्त लोग अपनी श्रद्धा के अनुरूप सर्वप्रथम अपनी सामथ्र्य, समय, अपने गंतव्य की दूरी के अनुसार गंगोत्री या हरिद्वार, ऋषिकेश से जल लेने के लिए बस, ट्रेन आदि से पहुंचते हैं। हरिद्वार में सर्वाधिक अनवरत मानव प्रवाह रहता है। गंगा स्नान के पश्चात जल भर कर पैदल यात्रा संपन्न की जाती है। देश के अन्य स्थानों में भी किसी न किसी रूप में संपूर्ण श्रावण मास में ऐसे ही विशिष्ट आयोजन चलते रहते हैं। श्रावण मास के शिवरात्रि पर्व से लगभग 10-12 दिन पूर्व से चलने वाला यह जन सैलाब आस्था, श्रद्धा, विश्वास के सहारे ही अपनी कठिन थकान भरी यात्रा पूरी करता है। इन शिव भक्तों को अपने परिवार से दूरी, कभी उमस, कभी भारी भीषण गर्मी तो कभी निरंतर वर्षा के कारण जल भरी सड़कें, गड्ढे, भयंकर वायरल, आई फ्लू, पेचिश, अतिसार आदि रोगों की मार भी डिगा नहीं पाती। अंतिम दो दिन तो यह यात्रा अखंड चलती है। कांवड़ यात्रा का एक महत्व यह भी है कि यह हमारे व्यक्तित्व के विकास में सहायक होती है। लंबी कांवड़ यात्रा से हमारे मन में संकल्प शक्ति और आत्म विश्वास जागता है। हम अपनी क्षमताओं को पहचान सकते हैं, अपनी शक्ति का अनुमान भी लगा सकते हैं। एक तरह से कांवड़ यात्रा शिव भक्ति का एक रास्ता तो है ही साथ ही यह हमारे व्यक्तिगत विकास में भी सहायक है। यही वजह है कि श्रावण में लाखों श्रद्धालु कांवड़ में पवित्र जल लेकर एक स्थान से लेकर दूसरे स्थान जाकर शिवलिंगों का जलाभिषेक करते हैं।