कांवड़ से लोक व परलोक साधन आशुतोष वाष्र्णेय कंधे पर गंगाजल लेकर भगवान शिव के ज्योर्तिलिंगों पर चढ़ाने की परंपरा, ‘कावंड़ यात्रा’ तीर्थ दर्शन एवं देवउपासना के समान ही कल्याणकारी है। यह पवित्र यात्रा भक्त को भगवान से जोड़ती है। मेदिनी कोष ‘क’ का अर्थ ‘ब्रह्म’ करता है और उपनिषद ‘अवर’ का अर्थ ‘जीव’ बतलाती है। कश्च अवरश्च इति ‘कावरः‘ अर्थात ब्रह्म और जीव का मिलन जीव के जीवात्म का त्याग और ब्रह्मरूपता की प्राप्ति ही ‘कावड़’ का एक आध्यात्मिक अर्थ है। जिन देवाधिदेव अवढरदानी शिव के लिये ब्रह्मांड का कुछ भी अदे्य नहीं है उन महादेव को प्रसन्न कर मनोवांछित फल प्राप्त करने के अनेक उपायों में कांवड़ यात्रा शिव भक्ति कर शिव को प्रसन्न करने का एक सरल सहज मार्ग है जो शिव-कृपा के साथ कांवर ले जाने वाले व्यक्ति के सर्वविध विकास में भी सहायक होता है। लंबी कांवड़ यात्रा से कांवरियों के मन में संकल्प शक्ति और आत्म विश्वास जागृत होता है। कांवड़ यात्रा का मूल उद्देश्य भक्ति मार्ग द्वारा जनमानस में सुप्त सत्प्रवृत्तियों का जागरण कराना है। एक तरह से कांवड़ यात्रा शिव भक्ति का एक रास्ता तो है ही साथ ही यह हमारे व्यक्तिगत विकास में भी सहायक है। यही वजह है कि श्रावण में लाखों श्रद्धालु, (कांवड़’ उठाने वाला कांवड़िया), शिवयोगी के समान रहते हंै। मन-वाणी या कर्म से किसी भी प्राणी का अपकार नहीं करते, सब में एकमात्र सदाशिव का ही दर्शन करते हंै। कांवरिया केवल घट में ही पवित्र जल नहीं भरता बल्कि अपने काया रूपी घट में, मस्तिष्क और हृदय में ज्ञान और प्रेम भरकर अपने को परम-पुनीत बनाता है। जब कांवड़ के दो घट (ब्रह्मघट और विष्णुघट) पूर्ण कर लिए जाते हैं, तो उसे एक बांस की डंडी के सहारे सजा-धजा कर और पूजित कर, स्थापित कर दिया जाता है। धर्मशास्त्र के अनुसार बांस में रुद्र समाहित हैं। वेणुगीत में बांस की बांसुरी को साक्षात रूद्र स्वीकार किया गया है यानि कि कांवड़िया कांवड़ के माध्यम से साक्षात ब्रह्मा, विष्णु, शिव, तीनों की कृपा एक साथ प्राप्त करता है।