महादेव शिव: पूजाभिषेक यात्रा डाॅ. सुरेश चंद्र मिश्र कण-कण में व्याप्त देवाधिदेव जहां आदि रचना जल के रूप में विद्यमान हैं वहीं उनका प्रणव रूप नवजात शिशु के प्रथम रूदन से आरंभ होकर संपूर्ण विकास क्रम में व्यक्त होता है। इस देश के उत्तर में स्थित नगाधिराज हिमालय भी साक्षात शिव का ही रूप है जो जन-जन में श्रद्धा, आस्था आदि के रूप में व्यक्त होता है और लिंग रूप में पूजित। इस प्रकार शिव किसी भी रूप और क्रिया-विधि में पूज्य हैंै। इस लेख में प्रस्तुत हैं शिव की वही विराटता। शिव की प्रथम मूर्तिः आदि रचना जल सब भाषाओं में पहला अक्षर ‘अ’ से ताल्लुक रखता है जो निर्माण, रचना, जन्म, जच्चगी, जच्चा या ब्रह्माजी का वाचक कहा जाता है। ‘ऊ’ को विष्णु, पालनहार, संसार को संभालने वाली शक्ति का प्रतीक कहा गया है। अस्तित्व में आने के बाद जब बच्चा रोता है तो सारी दुनिया में रोने की पहली आवाज़ ‘अ’‘ऊ’ ही होती है। यानि पैदा होते ही उस पैदा करने वाले विधाता और संभालने वाली शक्ति का अपनी भाषा में धन्यवाद। म्’ शिव, जल अर्थात् साक्षात् शिव का वाचक है। जब वही बच्चा थोड़ा बड़ा होकर कोई पहला अक्षर बोलता है तो मुंह से अनायास ही ‘म’ ‘मा’ या मम्’ कहता है। यानि जीवन का आधार, पहली रचना ‘जलम्’ को ही अपनी जुबान में मम् कहकर शिवजी को नमस्कार करता है। ये तीन पद ही मिलकर ऊँ या परमात्मा का सर्वसुलभ नाम बनता है। इसी प्रणवाक्षर को गणेशोपनिषत् में तुन्दिल, गोलमटोल गणेश का शरीर और पूंछनुमा आकृति को हाथी का सूंड माना है। इसी ऊँ में गणेश निहित हैं। इसी से हमारी किसी भी पूजा में जल का लोटा या कलश और दीपक के रूप में अग्नि अवश्य रहती है। जल और अग्नि के इस विरुद्ध धर्म में समन्वय का नाम ही शिव, मंगल, कल्याण है। बूंद बूंद में शिव बसें जल और शिव के अभेद से शिव अभिषेक में टपकती बूंद, धरती, सारे आलम, यूनीवर्स, ब्रह्माण्ड या वेदों में वर्णित सोने के अण्डे या कन्दुक (गेंद) की प्रतीक है। यही बूंद अपने समष्टि या सम्मिलित रूप में स्वाभाविक, प्राकृतिक या धातुपाषाणमय लिंग का रूप धरने पर परमपूज्य महादेव का प्राकट्य है। आपने देखा होगा छोटे बच्चे अपने सबसे पहले खिलौने के तौर पर गुब्बारा या गेंद ही पसन्द करते हैं और उनमें से बहुत से गेंद या गुब्बारे को ‘डू’ या ‘दू’ कहते हैं। मानो वे अपनी भाषा मे कन्दुक कह रहे हो। यह सब बूंद या ब्रह्माण्ड कन्दुक या कुदरती शिवलिंग की ही व्यापकता है। शिवाकार हिमालय हिमालय पर्वत को साक्षात् देवभूमि, देवताओं का गुप्त निवास स्थान यानि देवतात्मा कहकर कविवर कालिदास ने इस पर्वत का सांस्कृतिक, भौगोलिक और धार्मिक महत्त्व ही रेखांकित किया है। सब देवों के देव महादेव यदि यहीं कहीं निवास करते हों तो इसमें भला किसे आश्चर्य होगा? हिमगिरीश शिव का हिमसुता पार्वती से सम्बन्ध, यहीं पर शिवपुत्र और देवताओं के सेनापति कुमार कार्तिकेय का जन्म, इसी क्षेत्र में अर्जुन को पाशुपत अस्त्र का वरदान, कैलाश पर्वत, मानसरोवर आदि अनेक संकेत पुराणों में भरे पड़े है जिनसे शिव का गहरा सम्बन्ध हिमालय पर्वत से अटूट सिद्ध होता है। इसी बात को दिमाग में रखकर आचार्य हजारीप्रसाद जी ने एक स्थान पर लिख दिया है कि हिमालय को मन में बसाकर यदि कल्पना करें तो समाधि में बैठे महादेव, बर्फ के समान कर्पूर गौर उनका शरीर, चोटियों से बहते नद, नदी ग्लेशियर, झरने आदि ही उनकी जटाएं, रात में चन्द्रोदय के समय सिर पर स्थित चन्द्रकला, गंगानदी का धरती पर आता अक्स खुद ब खुद दिमाग में उभरता जाता है। अर्थात् हिमालय का मानवीकरण ही कर्पूर गौर और करुणावतार शिव हैं। वहां के कण-कण में शिव उपस्थित हैं। आपस में विरोध रखने वाले तत्त्व जब समन्वित हो जाते हैं तो शिवपद पा जाते हैं। शिव परिवार इसी कुदरती समन्वय का प्रतीक है। शिवजी का बैल और देवी का शेर, कार्तिकेय का मोर और गणेश का मूषक, मृत्युंजय महादेव के हाथ में अमृतकलश और गले में विष वैर विरोध भुलाकर जियो और जीने दो का संदेश देता है। पग पग होत प्रयाग जहां प्रकृति या प्रकृति के देवता शिव साक्षात् जल रूप में दो अलग दिशाओं से आकर समग्र रूप में एकाकार रहते हों, वहां कदम कदम पर, ज़र्रा जर्रा शिव रूप हो जाए, यह बात नामुमकिन नहीं है। अतः शिव और शिवा पार्वती से सम्बंधित अनगिनत संगमतीर्थ या प्रयाग हैं। वहीं आस्था, विश्वास का सैलाब उमड़ लाखों लाख लोगों की श्रद्धा समेकित हो, वहां तीर्थस्थान हो जाना और वहां परमेश्वर का आगमन, निवास अवश्यंभावी हो जाता है। पशुपतिनाथ बनाम अमरनाथ भगवान् शिव को भूत या पशु यानि प्राणियों के नाथ कहा गया है। भगवान् शिव भूतनाथ, पशुपतिनाथ, अमरनाथ आदि सब रूपों में कहीं न कहीं जल, मिट्टी, रेत, शिला, फल, पेड़, के रूप में पूजनीय हैं। जल साक्षात् शिव है, तो जल के ही जमे रूप में अमरनाथ हैं। बेल शिववृक्ष है तो मिट्टी में पार्थिव लिंग है। गंगाजल, पारद, पाषाण, धतूराफल आदि सबमें शिव सत्ता मानी गई है। अतः सब प्राणियों, जड़-जंगम पदार्थों में स्वयं भूतनाथ पशुपतिनाथ सुगमता और सुलभता ही तो आपको देवाधिदेव महादेव सिद्ध करती है। श्रद्धा, आस्था और विश्वास यदि विश्वास न हो, किसी चीज़ पर यकीन ईमान न आता हो तो लाख कोशिशों के बावजूद भी आस्था या श्रद्धा हो ही नहीं सकती और श्रद्धा या आस्था का मूल गुण ही मन में न हो तो विश्वास पैदा ही नहीं होगा। अतः ये दोनों बातें एक दूसरे की पूरक हैं। अकेली श्रद्धा या आस्था अक्सर रास्ता भटक कर ढ़ोंग-ढ़र्रे के मकड़जाल में फंस जाया करती है तो कोरा विश्वास जरा आगे बढ़ते ही बहम या अन्धकार की ओर डग भरने लगता है। अतः आस्था या श्रद्धा रूप पार्वती और विश्वास रूप शिव शंकर सदा साथ रहकर ही फलदायी हैं। इनके बिना घट घट के वासी खुद अपने ही भीतर विद्यमान सर्वश्शक्तिमान् को पहचानना या पाना मुश्किल है। तुलसीदास जी ने कहा है- भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ। याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्।। कालिदास भी तो शिव पार्वती को शब्द और अर्थ की तरह संयुक्त, पूरक ही बताते हैं। इसीलिए शिव व पार्वती की एकसाथ पूजा होती है। लिंग में गौरी शंकर किसी भी शिवलिंग में माता पार्वती और शिव का सम्मिलित रूप होता है। अतः साम्बसदाशिव या गौरीश्शंकर के साथ-साथ दर्शन या पूजन समझकर ही चलना चाहिए। कहा गया है कि ‘लिंगस्थां पूजयेद् देवीम्।’ शास्त्रों में विविध प्राकृतिक पदार्थों से लिंग बनाकर पूजा करने का विधान है। ऐसे लिंग पार्थिव यानि धरती पर पैदा होने वाले किसी पदार्थ से बने या बनाए गए लिंग कहलाते हैं। शिव है तो देवता रूप जल, अग्नि, सूर्य, चन्द्र, हवा आदि कुदरत की सब नेमतों या दैवसम्पदा में साक्षात् शिव विद्यमान हैं। इसीलिए जीवन के साथ भी और जीवन के बाद भी सब शिव-शिव ही होने से गली मुहल्ले के मन्दिर से लेकर, सड़क किनारे, पेड़ तले, पर्वत, घाटी, वन-उपवन से लेकर श्मशान तक में शिवमूर्ति की उपस्थिति और पूजनीयता बिना किसी लाग-लपेट के ही स्वीकार्य है। यही शिवता, सर्वस्वीकार्यता, लिंग क्या है? लिंग का शब्दार्थ निशानी, पहचान, स्वरूप आदि है। यह ब्रह्माण्ड का स्वरूप है। सिद्धान्तशेखर नामक ग्रन्थ में कहा गया है कि लिंग पांच तरह के होते हैं- 1.स्वयंभू (खुद प्रकट, अमरनाथ आदि) 2. देवपालित (केदारनाथ आदि) 3.ऋषि कृत यानि अवतार महापुरुष ऋषि मुनि द्वारा पूजित (रामेश्वरम् आदि) 4. शिलादिज (पत्थर से बनाए या खुद-ब-खुद बने नर्मदेश्वर आदि) 5. मानस (श्रद्धा और समयानुसार तत्काल बनाकर पूजित मिट्टी आदि से बने पार्थिव लिंग या अपने आस-पास जहां आपका मन जुड़ जाए)। स्वयंभू लिंग के दर्शन भर से ही सब पापों का नाश होना बताया गया है- दृष््ट्वा लिंगं महेशस्य स्वयंभू तस्य पार्वति। सर्वपापविनिर्मुक्तः परे ब्रह्मणि लीयते।। स्वयंभू लिंग भी दो तरह के होते हैं। 1. एक बार प्रकट होकर सदा बने रहना, 2. समयानुसार प्रकट होना। ये दोनों ही प्रकार अतिशय यानि आश्चर्यकारक लिंग या देव विग्रह के तौर पर जाने जाते हैं। इनमें भी केवल सावन के महीने में ही क्रमशः बनने वाले और फिर स्वयं ही विलीन होने वाले बाबा अमरनाथ सर्वविदित है। किसी भी आकार में पूज्य उक्त सन्दर्भ ग्रन्थ में स्वयंभू लिंग के शिखर या मस्तक के रूपभेद से सम्भावित ये आकार हैं- 1.शंख के समान, 2. कमल के समान, 3. छत्र के समान, 4. दो सिर, 5. तीन सिर, 6. कृपाण के समान, 7. कलश के समान, 8. ध्वजा के समान, 9. गदा के समान, 10. त्रिशूल के समान। इनके आकार किसी भी नाप के हों ,सब हालात में पूज्य और दर्शनीय हैं। अमरनाथ यात्रा के प्रसंग में पीछे एकाध बार यह बात उठी थी कि गुफा में लिंग प्राकृतिक नहीं बना था। उसे कृत्रिम बनाया गया था। लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए कि कृत्रिम या मानवनिर्मित होने से भी उक्त पार्थिव लिंग और हर बार नया बनाने के शास्त्रीय विधान के रहने से उसकी पवित्रता पर कोई आंच नहीं आती है। यह बात वीरसिंहोदय नामक ग्रन्थ में स्पष्ट है। पानी के हैं तीन रूप वेद कहते हैं कि भगवान् शिव का आदि रूप जल तीन तरह से रहता है- द्रव यानि आप्, गैस या वाष्प या अभिस्रावी और दैवी यानि ठोस बर्फ आदि के रूप में जमा हुआ। ( शं नो दैवी रभीष्टय आपो भवन्तु पीतये... शं यो रभिस्रवन्तु नः) इन तीनों में ही शिव सत्ता है। अतः बर्फ, रेत, गीली मिट्टी आदि से बने लिंग को खास दर्जा हासिल है। शिवयात्राः जनगणमन का मेल आदि शंकराचार्य ने कहा है कि पूजा और भक्ति की पराकाष्ठा पाने का एक ही तरीका है- यात्रा। यह भी बाहरी और भीतरी तौर पर दो तरह की है। सामाजिक, सांस्कृतिक और इंसानी एकता के महत्त्व को स्थापित करने के लिए तीर्थयात्रा, कुम्भपर्व, चारधाम की यात्रा का नियम आपने ही बनाया था। इससे समय-समय पर देश की गंगाजमनी सभ्यता और संस्कृति के पोषण को बढ़ावा और सामाजिक एकता की बुलन्दियां हासिल होती हैं। कांवड़यात्रा या अमरनाथ यात्रा में इस तरह की कौमी एकता की मिसाल कायम की जाती है। जैसे जैसे डर, आतंक, बन्दिशें बढ़ती गई हैं, वैसे वैसे ही यात्रियों की गिनती भी बढ़ी है। यह इस बात का पुख्ता सबूत है कि धर्म दिखावे में नहीं हैं, अपितु यह हमारे हिन्दुस्तान में दिलों की गहराईयों तक रचा बसा है। उस गहरे धरातल पर जाने से बाहरी आचरण के ऊपरी फर्क को मेटकर गजब की एकता बसती है। उक्त बाहरी यात्रा के साथ स्वयं ही सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक (आजकल कुछ असांस्कृतिक भी) बातें जुड़ जाती हैं। धार्मिक यात्रा या मनोरंजन यात्रियों में कोई विशुद्ध धर्मभाव से, कोई धर्म और मनोरंजन के मिले-जुले भाव से और कोई सिर्फ मनोरंजन के भाव से आते हैं। इससे यात्रा के महत्त्व में कोई कमी नहीं आती है। जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी के अनुसार अपने भावों के अनुसार ही फल मिलता है। आदि शंकराचार्य ने कहा है कि किसी भी सांसारिक काम को करते हुए हम जो भी भाव रखते हैं, हमें वैसा ही फल मिलता है। बाहरी धर्मयात्रा जब अध्यात्म और भक्ति के अपने ऊंचे धरातल पर आ जाती है तो मुंह से निकला हर शब्द स्तुति, उठाया गया हर कदम परिक्रमा और हर गतिविधि पूजा का ही अंग होकर अजपाजप की स्थिति प्राप्त होती है- संचारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो यद्यत् कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भोस्तवाराधनम्।। अतः सब संशयों से ऊपर उठकर भगवान् शिव की जलयात्रा में जयकार करते हुए सब मिलकर बोलें नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः।