कांवड़ की परम्परा
कांवड़ की परम्परा

कांवड़ की परम्परा  

व्यूस : 7807 | आगस्त 2012
कांवड़ की परंपरा शुभेष शर्मन भगवान शिव का ध्यान जब हम करते हैं तो श्रावण का महीना, रुद्राभिषेक और कांवड़ का उत्सव आंखों के सामने आता है। लेकिन कांवड़ यात्रा कब शुरू हुई, किसने की, क्या उद्देश्य है इसका, भारत के किन क्षेत्रों में यह यात्रा होती है, आइये, देखें इस लेख में। मुख्य रूप से उत्तर भारत में गंगाजी के किनारे के क्षेत्र के प्रदेशों में कांवड़ का बहुत महत्व है। राजस्थान के मारवाड़ी समाज के लोगों के यहां गंगोत्री, यमुनोत्री, बदरीनाथ, केदारनाथ के तीर्थ पुरोहित जो जल लाते थे और प्रसाद के साथ जल देते थे, उन्हें कांवडिये कहते थे। विशेषतः वही लोग कावडियों कहलाये जाते थे। यह शास्त्रीय मत है। उसके अनुसार ये लोग गोमुख से जल भरकर रामेश्वरम में ले जाकर भगवान शिव का अभिषेक करते थे। यह परंपरा थी। लगभग 6 महीने की पैदल यात्रा करके वहां पहुंचा जाता था। इसका पौराणिक तथा सामाजिक दोनो महत्व है। एक तो हिमालय से लेकर दक्षिण तक संपूर्ण देश की संस्कृति में भगवान का संदेश जाता था। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की लौकिक और शास्त्रीय परंपराओं का आदान-प्रदान का बोध होता था। यह एक उद्देश्य भी इसमें शामिल था। धार्मिक लाभ तो था ही। परंतु अब इस परंपरा में परिवर्तन आ गया है। अब लोग गंगाजी अथवा मुख्य तीर्थो के पास से बहने वाली जल धाराओं से जल भरकर श्रावण मास में भगवान का जलाभिषेक करते हैं। विशेषतः बैजनाथ धाम, बटेश्वर, पुरामहादेव, रामेश्वरम, उज्जयनी के तीर्थों के शिवलिंगों पर जलाभिषेक करते हैं। सर्वप्रथम भगवान परशुराम ने कांवड़ लाकर पुरा महादेव में जो उत्तर प्रदेश प्रांत के बागपत के पास मौजूद है, उन पुरातन शिवलिंग पर जलाभिषेक, गंढ़मुक्तेश्वर से गंगा जी का जल लाकर किया था। आज भी उसी परंपरा मंे श्रावण मास में गढ़मुक्तेश्वर जिसका वर्तमान नाम ब्रजघाट है, से जल लाकर दसियों लाख लोग श्रावण मास में भगवान शिव पर चढ़ाकर अपनी कामनाओं की पूर्ति करते हैं। बैजनाथधाम झारखंड प्रांत में स्थापित रावणेश्वर लिंग के रूप में स्थापित है। श्रावण मास तथा भाद्रपद मास में लगभग 50 लाख यात्री कांवड़ यात्रा करके इनका जलाभिषेक करते हैं। वैद्यनाथ धाम से सुलतान गंज जो कि लगभग 100 किमी. है मंे जानकी गंगा प्रवाहित होती हैं उनका जल लाकर भगवान शिव का अभिषेक करते हैं। इस धार्मिक उत्सव की विशेषता यह है कि सभी कांवड़ यात्री केसरिया रंग के वस्त्र धारण करते हैं और बच्चे, बूढ़े, जवान, स्त्री, पुरुष सबको एक ही भाषा में बोल-बम के नारे से संबोधित करते हैं। यह विश्व का सबसे बड़ा मेला है। परंतु दरभंगा आदि क्षेत्रों के यात्री कांवड़ के माध्यम से भगवान का अभिषेक बसंत पंचमी पर करते हैं। सर्वप्रथम उत्तर भारत से गए हुए मारवाड़ी परंपरा के लोगों ने इस क्षेत्र में यह परंपरा प्रारंभ की थी। आगरा जिले के पास बटेश्वर में जिन्हे ब्रह्मलालजी महाराज के नाम से भी जाना जाता है भगवान शिवजी का शिवलिंग रूप के साथ-साथ पार्वती, गणेश का मूर्ति रूप भी है। श्रावण मास में कासगंज से जो एटा के पास है गंगाजी का जल भरकर लाखों की संख्या में भगवान शिव का कांवड़ यात्रा के माध्यम से अभिषेक करते हैं। यहां पर 101 मंदिर स्थापित हैं। इसके बारे में एक प्राचीन कथा है कि 2 मित्र राजाओं ने संकल्प किया कि हमारे पुत्र अथवा कन्या होने पर दोनों का विवाह करेंगे। परंतु दोनों के यहां पुत्री संतान हुई। पर एक राजा ने ये बात सबसे छिपा ली और विदाई का समय आने पर उस कन्या को जिसके पिता ने उसकी बात छुपाई थी अपने मन में संकल्प किया कि वह यह विवाह नहीं करेगी और अपने प्राण त्याग देगी। उसने यमुना नदी में छलांग लगा दी। जल के बीच में उसे भगवान शिव के दर्शन हुए और उसकी समर्पण की भावना को देखकर भगवान ने उसे बरदान मांगने को कहा। तब उसने कहा कि मुझे कन्या से लड़का बना दीजिए तो मेरे पिता की इज्जत बच जाएगी। इसके लिए भगवान ने उसे निर्देश दिया कि तुम इस नदी के किनारे मंदिर का निर्माण करना। यह मंदिर उसी समय से मौजूद है। यहां पर कांवड यात्रा के बाद जल चढ़ाने पर अथवा मान्यता करके जल चढ़ाने पर पुत्र - संतान की प्राप्ति होती है। इस मंदिर में एक विशेषता यह है कि एक दो किलो से लेकर 500-700 किलो ग्राम तक के घंटे मंदिर में टंगे हुए हैं। उज्जयनी में महाकाल को जल चढ़ाने से रोग निवृत्ति और दीर्घायु प्राप्त होती है। लगभग 2-3 लाख यात्री इस समय में भगवान का जलाभिषेक करते हैं। यहां की विशेषता यह है कि हजारों की सख्यां में सन्यासियों के माध्यम से टोली बनाकर कावड़ यात्री चलते है। ये यात्रा लगभग 15 दिन चलती है। वैसे तो भगवान शिव का अभिषेक सारे भारतवर्ष के शिव मंदिरों में होता है, परंतु श्रावण मास में कांवड़ के माध्यम से जल -अर्पण करने से अत्यधिक पुण्य प्राप्त होता है। हमारे शास्त्रों एवं भारत के समस्त हिंदुओं का विश्वास है कि कांवड़ यात्रा में जहां-जहां से जल भरा जाता है, वह गंगाजी की धारा में से ही लिया जाता है। कांवड़ के माध्यम से जल चढ़ाने से मन्नत के साथ-साथ चारों पुरूषार्थों की प्राप्ति होती है। आजकल हरिद्वार से जल लेकर दिल्ली, पंजाब आदि प्रांतों में लगभग 3-4 करोड़ यात्री जलाभिषेक करते हैं। यह यात्रा लगभग पूरे श्रावण मास से लेकर शिवरात्री तक चलती है।



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