विदेशों में शिवलिंग पूजा
विदेशों में शिवलिंग पूजा

विदेशों में शिवलिंग पूजा  

व्यूस : 7400 | आगस्त 2012
विदेशों में शिवलिंग पूजा पंडितवर्य श्रीकाशीनाथजी शास्त्री भारतीयों में अनादिकाल सेरतीयों में अनादिकाल से अब तक शिवलिंग पूजा चली आ रही है- यह तो प्रत्यक्ष ही है। द्वादश ज्योतिर्लिंग तथा असंख्य शिवलिंगों की पूजा अर्चना का क्षेत्र है भारत। पाश्चात्य देशों में भी कई प्राचीन शिवालयों के होने का पता लगा है, जिससे अनुमान होता है कि ईसाई-मत के प्रचार के पूर्व उन देशों में भी शिव-स्थान निर्माण किये जाते रहे होंगे। किसी-किसी को इस बात से आश्चर्य हो सकता है। परंतु यह आश्चर्य का कारण नहीं है क्योंकि जिन शिव ने इस पृथ्वी के सप्तद्वीपों तथा नव खंडों को जन्म दिया है उनका संबंध उन समस्त खंडों के साथ होना बिल्कुल स्वाभाविक है। ईसापूर्व में पाश्चात्य देशों में प्रायः सभी जातियों में किसी न किसी रूप में लिंग पूजा सर्वत्र प्रचलित थी। रोम और यूनान में क्रमशः दिभेपक्ष और फल्लुरू के नाम से लिंगार्चन होता था। पूजा का विधान हिंदुओं के समान ही था। मिस्र में फाल्गुन मास में वसंतोत्सव के समान शिवलिंगार्चन समारोह होता था। इसी प्रकार का लिंगार्चन सारे पश्चिमी देशों में था। प्राचीन चीन और जापानी साहित्य में भी लिंगपूजा के प्रमाण मिलते हैं। अमेरिका के महाद्वीपों के प्राचीन निवासी भी लिंगपूजक थे। ‘शिवनिर्माल्यरत्नाकर’ नामक ग्रंथ की प्रस्तावना में फ्रेंचदेशीय लुड्स साहब के ग्रंथ के आधार पर विदेशों में शिवलिंगों के होने का उल्लेख किया गया है। वह लिखते हैं कि उत्तर-अफ्रिका खंड के ‘इजिप्ट’ प्रांत में, ‘मेफिस’ और ‘अशीरिस’ नामक क्षेत्रों में नंदी पर विराजमान, त्रिशूलहस्त एवं व्याघ्रचर्माम्बरधारी शिवकी अनेक मूर्तियां हैं, जिनका वहां के लोग बेलपत्र से पूजन और दूध से अभिषेक करते हैं। तुर्किस्तान के ‘बाबीलन’ नगर में एक हजार दो सौ फुट का एक महालिंग है। पृथ्वीभर में इतना बड़ा शिवलिंग और कहीं नहीं देखने में आया। इसी प्रकार ‘हेड्राॅपोलिस’ नगर में एक विशाल शिवालय है, जिसमें तीन सौ फुट का शिवलिंग है। मुसलमानों के तीर्थ मक्का शरीफ में भी ‘मकेश्वर’ नामक शिवलिंग का होना शिवलीला ही कहनी पड़ेगी। मुहम्मद साहब के प्रादुर्भाव से पूर्व तथा उनके समय में भी अरब में लात नामक देवता की लिंग के रूप में उपासना की जाती थी। वहां काबा में स्थित संगे असवद मक्केश्वर लिंग है। मुहम्मद साहब से पूर्व इजरायली और यहूदीलोग उसकी पूजा करते थे। उनके समय में इसकी पूजा चार कुलों के पंडे किया करते थे। बाद में मोहम्मद साहब के आदेश से उस लिंग को उसके वर्तमान स्थान पर लाकर स्थापित किया गया। आजकल इसका अर्चन जल से नहीं होता लेकिन जो भी मुसलमान हज करने जाते हैं, इस लिंग रूप का चरण-चुंबन अवश्य करते हैं। वहां के ‘जमजम्’ नामक कुएं में भी एक शिवलिंग है जिसकी पूजा खजूर की पत्तियों से होती है। अमेरिकाखंड के ब्रेजिल-देश में बहुत से शिवलिंग मिलेंगे जो अत्यंत प्राचीन हैं। यूरोप के ‘कॅरिन्थ’ नगर में तो पार्वती-मंदिर भी पाया जाता है। इटली के कितने ही ईसाई लोग अब तक शिवलिंगों की पूजा करते आये हैं। स्काॅटलैंड (ग्लासगो) में एक स्वर्णाच्छादित शिवलिंग है जिसकी पूजा वहां के लोग बड़ी भक्ति से करते हैं। ‘फीजियन्’ के ‘एटिस’ या ‘निनिवा’ नगर में ‘एषीर’ नामक शिवलिंग है। यहूदियों के देश में भी शिवलिंग बहुत हैं। इसी प्रकार अफरीदिस्तान, चित्राल, काबुल, बलख-बुखारा आदि स्थलों में बहुत से शिवलिंग हैं, जिन्हें वहां के लोग ‘पंचशेर’ और ‘पंचवीर’ नामों से पुकारते हैं। फ्रेंच-राज्याधीन अनाम-देश में अनेक शिव मंदिर मिलते हैं। यह अनाम इंडोचाइना में है। इसे प्राचीनकाल में ‘चम्पा’ कहते थे। उस देश के सभी प्राचीन राजा शिवभक्त ही थे। भारत के वीरशैवों में भी वैसे ‘शिवभक्तशिखामणि’ आजकल देखने मे नहीं आते। किसी काल में उस देश का ‘मीसोन खेड़ा’ इस संबंध में काशी की समानता कर सकता था। वहां के सुंदर शिव-मंदिर तथा उनके विशाल शिलालेख इस बात की साक्षी देते हैं कि शिवभक्ति की इतनी उन्नति भारतवर्ष में शायद ही कभी हुई हो। ‘मीसेन ग्राम के एक शिलालेख में लिखा है कि भद्रवर्मा नामक महाराजा ने ‘भद्रेश्वर’ शिवलिंग की स्थापना की और उसके भोग-राग के लिये महापर्वत और महानदियों के बीच के ‘सुलह’ और ‘कुचक’ नामक स्थल भेंट में चढ़ाये। यह लेख ई. सकी पांचवीं शताब्दी का है! कालान्तर में ‘भद्रेश्वर’ का मंदिर नष्ट हो जाने पर किसी रुद्रवर्मा के पुत्र शम्भुभद्र वर्मा नामक राजा ने ‘शम्भुभद्रेश्वर’ महादेव की स्थापना की। चम्पादेश (अनाम) के शिवलिंगों के अंदर इस ‘भद्रेश्वर’ का एक मुख्य स्थान होने पर भी वहां इससे भी अधिक प्राचीन शिवलिंग विराजमान हैं। एक ‘मुखलिंग’ महादेव अति प्राचीन है। आज से आठ लाख तिरसठ हजार एक सौ तेईस वर्ष पूर्व विचित्रसगर नामक महाराजा ने इस लिंग की स्थापना की थी। ‘लिंगप्रतिष्ठा’ की इतनी प्राचीनता भी कहीं नहीं पायी जायेगी। चम्पा देश के इतिहास को देखने से यह पता चलता है कि यह देश प्राचीनकाल में शिवलिंगमय था। वहां की कई मूर्तियों से ऐसा भी प्रतीत होता है कि वहां के लोग शिवजी की पूजा लिंगाकार और मनुष्याकार में भी करते थे। अधिक संख्या लिंगाकारों की ही है। वहां लिंगपीठ चैकोर और गोल हैं। बाण (लिंग) भी बहुत सुंदर हैं। कुछ देवालयों में सात-सात लिंग तक स्थापित किये गये हैं। कुछ राजा लोग लिंगों के मुख अपने चेहरे की आकृति के अनुरूप भी बनवाकर ‘मुखलिंग’ नाम से स्थापित करते थे। ‘ट्रक्य ग्राम में शिवजी की एक मनुष्याकार मूर्ति मिली है। यह सर्पवेष्टित और जटाजूटधारी खड़े हुए शिव की है। ‘यानमुम’ ग्राम में एक मूर्ति त्रिनेत्र और त्रिशूलपाणि बैठे हुए शिवकी है। ‘ड्रानलाय’ ग्राम में नंदीवाहनमूर्ति विराजती है। अपने देश की भांति वहां भी प्रत्येक शिवमंदिर के सामने नंदी स्थापित है। कुछ जगहों में तांडवेश्वर मूर्तियां भी देखी गयी हैं। फ्रेंचों के अधीनस्थ ‘कम्बोडिया’ में भी शिवलिंग विराजमान हैं। इस देश का प्राचीन नाम ‘कम्बोज’ मालूम पड़ता है। इतिहासप्रसिद्ध ‘जावा’ और ‘सुमात्रा’ द्वीपों में, जिनका प्राचीन नाम क्रमशः ‘यब’ और ‘सुवर्णद्वीप’ था, अनेक शिवलिंग हैं। हालैंड के लैडन् युनिवर्सिटी के प्रोफेसर डाॅ एन. जेक्रोम् नामक महोदय ने डच भाषा की एक सचित्र पुस्तक प्रकाशित की है, जिसका नाम है ‘यवद्वीप की प्राचीन शिल्पकला’ जिसमें अनेक शिव लिंगों का उल्लेख है। जावाद्वीप के बीच ‘प्रांबानान’ नगर के समीप ‘लाराजोंग्रांग’ नाम शिवमंदिर है। वहां इसकी वड़ी प्रसिद्धि है। इस मंदिर में मनुष्याकार महादेवजी खड़े है। भारत के पड़ौसी देश नेपाल में भी पशुपति नाथ मंदिर स्थित स्वयंभू लिंग भी विश्वविख्यात शिवार्चन स्थल है। पनतरन् नामक ग्राम में भी एक भारी शिवालय है। उस देश के अनेक भागों में बहुत से शिवालय हैं, जो आजकल जीर्णावस्था में पड़े हैं। फ्रांस में भी अनेक प्रसिद्ध स्थानों पर अब तक शिव लिंग देखने में आते हैं यद्यपि अब उनकी विधिवत पूजा-अर्चना नहीं होती। अमेरिका महाद्वीप में पेरूविया नामक स्थान के प्राचीन निवासी यद्यपि सूर्यवंशी थे लेकिन वे शिब्रु अर्थात शिव नाम से अपने आराध्य की अर्चना करते थे। भूमंडल के सभी प्रांतों में शिवालयों को देखकर यह कहने में किसी को संकोच न होगा कि शिवलिंग महिमा विलक्षण है।



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