शिवपूजन और कांवड़ यात्रा की पौराणिकता रश्मि चैधर कांवड़ यात्रा एवं शिवपूजन (विशेषकर शिवलिंग पूजन) का आदिकाल से ही अन्योन्याश्रित संबंध है। इस संदर्भ में सर्वप्रथम यह जानना अति आवश्यक है कि महेश्वर शिव जी का यह लिंग-रूप इतना महिमामय तथा पुण्यात्मक क्यों माना गया है तथा इसकी पौराणिकता का आधार क्या है? लिंग स्वरूप शिव तत्व का वर्णन लिंग पुराण में इस प्रकार किया गया है - ‘‘निर्गुण निराकार ब्रह्म शिव ही लिंग के मूल कारण तथा स्वयं लिंग-रूप भी हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि से रहित अगुन, अलिंग (निर्गुण) तत्व को ही शिव कहा गया है तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंधादि से संयुक्त प्रधान प्रकृति को ही उत्तम लिंग कहा गया है।’’ वह जगत् का उत्पत्ति स्थान है। पंच भूतात्मक अर्थात- पृथ्वी, जल, तेज, आकाश वायु से युक्त हैं, स्थूल है। सूक्ष्म है, जगत का विग्रह है तथा लिंग तत्व निर्गुण परमात्मा शिव से स्वयं उत्पन्न हुआ है। प्रधान प्रकृति ही सदाशिव के आश्रय को प्राप्त करके ब्रह्मांड में सर्वत्र चतुर्मुख ब्रह्मा, शिव और विष्णु का सृजन करती है। इस सृष्टि की रचना, पालन तथा संहार करने वाले वे ही एकमात्र महेश्वर हैं। वे ही महेश्वरक्रमपूर्वक तीन रूपों में होकर सृष्टि करते समय रजोगुण से युक्त रहते हैं। पालन की स्थिति में सत्वगुण में स्थित रहते हैं, तथा प्रलय काल में तमोगुण से आविष्ट रहते हैं। वे ही भगवान शिव प्राणियों के सृष्टिकर्ता, पालक तथा संहर्ता हैं। ब्रह्मा तथा विष्णु के समक्ष ज्योतिर्मय महालिंग का प्राकट्य: लिंग की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, लिंग क्या है तथा लिंग में शंकर जी की उपासना किस प्रकार करनी चाहिये, इस संबंध में श्री लिंग पुराण में एक प्रसंग आया है कि प्रलय के उपस्थित हो जाने पर चारों ओर समुद्र ही समुद्र व्याप्त हो गया तथा घोर अंधकार छा गया। उस समय सत्वगुण से युक्त सर्वव्यापी, सर्वात्मा नारायण जल के मध्य में कमल पर शयन कर रहे थे। उसी समय उनकी माया से मोहित होकर ब्रह्मा जी ने क्रोधपूर्वक उनके प्रति कठोर वाणी का प्रयोग किया। भगवान विष्णु ने भी प्रत्युत्तर में स्वमहिमा का वर्णन किया। उसी समय ब्रह्मा तथा विष्णु के पारस्परिक कलह को दूर करने तथा ज्ञान प्रदान करने के निमित्त उस प्रलय सागर में एक दीप्तिमान लिंग उन दोनों देवताओं के समक्ष प्रकट हुआ। ‘‘वह लिंग हजारों अग्नि ज्वालाओं से व्याप्त, क्षय तथा वृद्धि से रहित, आदि, मध्य तथा अंत से हीन, अतुलनीय, अवर्णनीय, अव्यक्त तथा विश्व का सृष्टिकर्ता रूप था। उस लिंग की हजारों रश्मियों से ब्रह्मा तथा विष्णु दोनों ही मोहित हेा गये तथा लिंग के आदि, मध्य और अंत का पता लगाने के लिये भगवान विष्णु उस अनुपम अग्नि स्तंभ के नीचे की ओर तथा ब्रह्मा जी शीघ्र ही हंस का रूप धारण कर उसके ऊपर की ओर चले। किंतु अत्यधिक प्रयत्न करने पर भी वे दोनों देवगण उस लिंग का स्पष्ट स्वरूप न जान सके। उसी समय उन्हें ‘ऊं-ऊं’ ऐसा स्पष्ट शब्दरूप नाद सुनाई पड़ा, उसी एकाक्षर प्रणव ‘ऊँ’ से अकार संज्ञक-भगवान ब्रह्मा, उकार संज्ञक परम कारण स्वरूप-विष्णु तथा मकार संज्ञक परमेश्वर नीलोहित का पुनः प्रादुर्भाव हुआ। इस वेदवाक्य से शिव को यथावत् जानकर विष्णु तथा ब्रह्मा दोनों वैदिक मंत्रों से देवेश्वर महादेव की स्तुति करने लगे। उन दोनों के स्तवन से प्रसन्न होकर महादेव दिव्य शब्दमय रूप धारण कर प्रसन्न मुद्रा में उस लिंग में प्रकट हो गये। भगवान विष्णु ने पुनः उन्हें प्रणाम करके ऊपर की ओर देखा। तब उन्हें ओंकार से उत्पन्न बुद्विविवर्धक तथा सभी पुरूषार्थें को सिद्ध करने वाले अत्यंत शुभ्र स्फटिक कल्प ‘38’ अक्षरों वाले ईशादि तथा 24 अक्षरों से युक्त गायत्री आदि पांच पवित्र मंत्र दृष्टिगोचर हुये। इन पांचों मंत्रों को प्राप्त कर भगवान विष्णु ने पुनः सृष्टि-पालन-संहारकर्ता महादेव का अभीष्ट मंत्रों से स्तवन आरंभ कर दिया। उसी समय से शिव लिंग पूजन की प्रसिद्धि व्याप्त हो गई। समग्र जगत को अपने में लय करने के कारण यह लिंग कहा गया। लिंग वेदी के रूप में पार्वती तथा लिंग रूप में साक्षात महेश्वर प्रतिष्ठित रहते हैं। तदाप्रभृति लोकेषु लिंगार्चा सुप्रतिष्ठिता। लिंगवेदी महादेवी लिंग साक्षात् महेश्वरः ।। ‘‘लिंग रूप की इसी पौराणिक महत्ता एवं तार्किकता को स्वीकार करते हुये ही कदाचित् कांवड़ यात्रा का संबंध भी शिवपूजा से जोड़ा गया। पौराणिक मान्यता के अनुसार (जल) नदियों में श्रेष्ठ तरंगिणी गंगाजी का वास-शिव जी की जटाओं में माना गया है। अर्थात शिव और जल का भी अभिन्न संबंध है। अतः तार्किक रूप से भी धीरे-धीरे यह स्वीकार किया जाने लगा कि अभीष्ट की सिद्धि हेतु एवं मनोकामनाओं की पूर्ति के उपरांत पवित्र तीर्थों से गंगाजल लाकर शिवलिंग का अभिषेक करना परम कल्याणकारी एवं मंगलमय है। इसी पवित्र भावना को मन में रखते हुये शिव भक्त देवाधिदेव महादेव को प्रसन्न करने के लिये, मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु तथा दैहिक, दैविक, भौतिक तापों की शांति के लिये पवित्र कलशों में जल भर कर शिवलिंग पर अर्पित करते हैं तथा उनके विधिवत पूजन के द्वारा अपना कल्याण करते हैं। काल के अनन्त अंतराल में शिवलिंग की पूजा ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवताओं, ऐश्वर्यशाली राजाओं, अनुष्ठानों तथा मुनिगणों ने की है। भगवान विष्णु ने (रामावतार) में सेना सहित रावण का संहार करके समुद्र तट पर शिवलिंग की स्थापना की थी। समस्त लोक लिंगमय है और सभी लिंग में ही स्थित हैं। अतः यदि शाश्वत परमपद प्राप्ति की इच्छा के साथ-साथ अपने कल्याण की कामना हो तो, ऐसे मनुष्यों को सर्वरूप में स्थित शिव-पार्वती का स्मरण करते हुये शिवलिंग का पूजन अ एवं अभिषेक अवश्य करना चाहिए।