कांवड़: श्रावण में शिवार्चन की पावन परंपरा स्वामी कल्याण चंद्र त्रिखंडीय भगवान शिव का अभिषेक करने की परंपरा वैदिक काल से ही चली आयी है। संपूर्ण रूद्राष्टाध्यायी शिव अभिषेक तथा आराधना का परम प्रतीक है। हमारे मनीषी ऋषियों ने भगवान शिव की सभी अर्चन विधि तथा कामनाएं रूद्राभिषेक में समाहित कर दी हैं। समस्त कामनाओं की संपूर्ति करने में भगवान सदाशिव ही सर्व समर्थ और सक्षम हैं। वैदिक विधि से लेकर लोक परम्पराओं में शिवार्चन सृष्टि के लिये सदा-सर्वदा कल्याणकारी है। भगवान भास्कर के दक्षिणायन काल में सभी सामाजिक मंगल कार्यों का अवकाश रहता है। तब समस्त चतुर्मास में शिव-शिवा का आराधना द्वार सदा खुला रहता है। विशेषकर शिवार्चन के लिये श्रावण सर्वश्रेष्ठ माना गया है। वैसे तो शिवार्चन सदा ही कल्याणकारी है किंतु श्रावण का महत्व सदा विशिष्ट माना गया है। इसीलिये भारत के प्रत्येक क्षेत्र में निर्मित शिवालयों में शिवार्चन करने के लिए शिव भक्त अतिशय उत्साह पूर्वक अपनी रूचि के अनुसार शिर्वाचन, शिव-अभिषेक करते-कराते हैं। यह शिव महोत्सव श्रावण तथा फाल्गुन मास की शिवरात्री को तो सकल हिंदू समाज अवश्य मनाता है। वैदिक परम्परा के अनुसार गंगाजल तथा तीर्थों का जल लाकर विभिन्न स्थलों पर शिवलिंग पर अभिषेक करने का विशेष महत्त्व माना गया है। लोक कथाओं के अनुसार पुण्यमयी महानदियों का जल अपनी श्रद्धा स्थली के शिवलिंग पर अर्चन करने वालों ने अपनी मनोकामनाओं को भगवान शिव से वरदान रूप में प्राप्त किया है। इसमें देवता-दानव-मानव कोई भी पीछे नहीं रहा। शिवार्चन की शक्ति तथा भक्ति अपरम्पार है, अक्षुण्ण है। यही भारत की शिव-भक्ति की अनुपम परंपरा है। इस शिवार्चन की श्रद्धामय परंपरा को हिमाचल में निवास करने वाले ब्राह्मणों ने भी सहस्रों वर्षों तक निभाया। आज भी ऐसे बहुत लोग दिखाई दे जाते हैं। ये लोग अलकन्दा का जल शीशियों में भरकर कंधे पर कांवड़ उठाये पैदल यात्रा करते हुये हरिद्वार से चलकर शिवरात्रियों के पावन पर्व पर सेतुबंध रामेश्वरम में सहस्रों की संख्या में पहुंचकर अपने-अपने यजमान के नाम का संकल्प करके भगवान शिव पर गंगा जल से अभिषेक करते थे। इस परंपरा को ही कांवड़ का रूप माना गया है। ये शिव-पूजक उच्च हिमालय से समुद्रतक की विकट यात्रा करते हुये समस्त भारत के छोटे-बड़े सभी स्थानों पर जाते तथा आते समय अपने-अपने यजमानों को शुभकामना संदेश तथा आशीष देते हुये दुर्गम यात्रा सहर्ष संपन्न करते थे। उस समय ये अपने यजमानों से दो आने, चार आने, रुपया जैसी जिसकी श्रद्धा होती प्राप्त करके सर्वथा संतुष्ट देखे जाते थे। कर्मवीर कांवड़ियों की यह यात्रा ही इनके उपार्जन का भी एक साधन था, यथा लाभ संतोष की प्रवृति का ये आदर्श उदाहरण थे। किंतु आजकल इन कर्मवीरों का उत्साह भंग हो गया है। अब ये सभी महंगाई की विभीषिका के कारण अपने-अपने स्थान पर ही अपनी श्रम-साधना से अपना निर्वाह करते हैं। यह सब होने पर भी भगवान शिव के गंगाजल अभिषेक का क्रम टूट नहीं पाया और इस उपक्रम को श्रद्धालुओं द्वारा एक नया रूप प्राप्त हो गया। भारत के विभिन्न नगरों से श्रद्धालु तथा अलग ही युवक-युवतियों ने शिवार्चन की यह कांवड़ अपने कंधों पर उठा ली। अब हर श्रावण अथवा फागुन में श्रद्धालु विभिन्न तीर्थों से विशेषकर हरिद्वार से कांवड़ में गंगाजल ले जाकर पदयात्रा करते हुये अपने-अपने श्रद्धा-स्थलों पर शिवरात्री के पावन पर्व पर शिवार्चन करके अपने आप को धन्य मानते हैं। शिवार्चन, अभिषेक की यह वैदिक परम्परा चलती रही है और चलती रहेगी। स्थान-स्थान पर कावड़ संघों का गठन हो गया है तथा इस परंपरा ने विशाल रूप ले लिया है। इस विकास क्रम में इस विशुद्ध शिव-भक्ति की पावन परंपरा में कुछ स्वार्थी तथा अनैतिक तत्व भी दिखाई देने लगे हैं। इस अजस्र धारा को ऐसे सभी घृणित तत्वों से बचा कर के इसे विशुद्ध शिवतत्व की शरणागति का स्वरूप देना चाहिये।