श्री गंगा नवमी व्रत पं. ब्रजकिशोर शर्मा ब्रजवासी श्री गंगा नवमी व्रत भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की नवमी को मनाया जाता है। इस दिन गंगा मैय्या के पावन तट पर जाकर गंगा जल में स्नानकर शास्त्रीय परंपरानुसार स्वस्तिवाचन, संकल्पादि कृत्यों के साथ गणेश गौरी, कलश, नवग्रह, भगवान नर-नारायण व भगवान शिव एवं भगवती शिवा व माता गंगा का विधिवत विभिन्न पूजा सामग्रियों से षोडशोपचार पूजन करें, देवताओं, ऋषियों, गंगामाता व पितरों का तर्पण कर सभी की प्रसन्नता के लिए व मंगल कल्याणार्थ ब्राह्मण-ब्राह्मणी, अभ्यागत, अतिथि, पंचबलि आदि का भोजनादि पदार्थों से सविधि पालन करें। स्वयं पूजनादि कृत्यों को करने की सामथ्र्य ना हो तो संपूर्ण विधि विद्वान् ब्राह्मणों की सान्निध्यता में पूर्ण करें। नान्दीश्राद्ध व पुण्याहवाचन कर्म कराना भी श्रेयस्कर रहेगा। गंगा भारत भूमि की जीवनदायिनी जलधारा है। यद्यपि गंगा अवतरण की कथा प्रसिद्ध है लेकिन त्रेता युग में महर्षि अत्रि और उनकी परम तपस्विनी पत्नी अनुसूया की तपस्या ने एक नया रूप धारण करके नवमी के दिन अत्रि गंगा के रूप में दर्शन दिया तभी से प्रचलित हुआ यह विशिष्ट नवमी व्रत पर्व। गंगाजी का स्नान-पूजन-तर्पण जातक के आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक कष्टों का समूलतया नाश करने वाला है। इनमें शामिल हैं -1 कायिक दोष (बिना दी हुई अननुमत वस्तुओं को हड़पलेना, अविवाहित हिंसा करना तथा परस्त्रियों से अवैध संबंध बनाना 2- वाचिक दोष (कठोर वाणी बोलना, असत्य भाषण करना, चुगलखोरी करना तथा अनर्गल प्रलाप करना), 3 - मानसिक दोष (पराये धन का लालच, मन ही मन किसी के विरूद्ध अनिष्ट चिंतन तथा नास्तिक बुद्धि)। गंगा का यह स्वरूप सत्-चित-आनंद की स्थिति प्रदान करता है। पहले भी कपिल मुनि की क्रोधाग्नि से दग्ध महाराज सगर के साठ हजार पुत्र गंगाजल का स्पर्श होने पर ही मुक्त हो गए थे। गंगा नवमी व्रत का विशेष संबंध ‘अत्रि गंगा से है। इस दिन अत्रि तथा उनकी पतिव्रता, धर्मव्रता पत्नी अनुसूया के कठोर तप के परिणामस्वरूप‘ अत्रि गंगा’ का अवतरण हुआ था। अतः इस गंगा पूजन के पावन अवसर पर गंगावतरण के निम्न चरित्र को अवश्य श्रवण करें। एक समय ही पूजनोपरांत संपूर्ण क्रियाओं को पूर्ण कर गंगा मैय्या के स्तोत्र, मंत्र व श्री हरि की सुंदर कथाओं का श्रवण करें, तो निश्चय गंगा देवी की कृपा से जीवन में सुख-शांति प्राप्त हो जाती है। गंगावतरण-चरित्र त्रेतायुग में अधर्म, पाखंड, अनाचार, दुराचार बढ़ जाने से अनेक धर्मात्मा, पुण्यात्मा, देवात्मा, सिद्ध पुरुष नगरों को त्यागकर जंगलों में जा बसे। तीन वर्ष तक वर्षा न हुई, अकाल पड़ गया। जन-धन की क्षति होने लगी। जीव-जंतु ही क्या प्राणी मात्र जल की एक-एक बूंद के लिए तरसने लगा। जन-जीवन में फैले इस दुख को महर्षि अत्रि न देख सके। उन्होंने लोकहित की भावना से निराहार रह कर कठोर तपस्या शुरू कर दी। उनकी पत्नी भी बड़ी साध्वी थी। उसने भी वैसा ही कठोर तप करना शुरू किया। एक दिन जब महर्षि अत्रि की समाधि खुली तो उन्होंने पत्नी अनुसूया से पीने के लिए जल मांगा। आश्रम के पास एक नदी थी। अनुसूया वहां से जल लेने गई। पर उसे वहां जल न मिला। वह कई स्थानों पर घूमी, पर उसे कहीं जल न मिल सका। तत्काल पेड़ों के समूह से एक युवती निकल कर अनुसूया की ओर बढ़ी। उसके पूछने पर अनुसूया ने बताया कि ‘‘वह प्यासे पति के लिए जल की खोज में निकली है पर जल कहीं मिला ही नहीं। तुम यदि कोई जलाशय बता दो तो आजीवन आभार मानूंगी।’’ इस पर युवती ने कहा कि कई दिनों से तो पानी बरसा ही नहीं। मिलेगा कहां? अनुसूया यह सुनकर उत्तेजना भरे शब्दों में बोली - ‘‘मिलेगा कहां? ‘‘मिलेगा कैसे नहीं, यहीं मिलेगा। मैं साध्वी हूं। मैंने पूर्णमनोयोग से अपने पति की सेवा की है। यदि मैं इस सेवा-धर्म की कसौटी पर खरी उतरी हूं तो मेरा तप यहीं पतित पावनी गंगा की धारा प्रवाहित करके दिखाएगा।’’ उस युवती ने कहा - ‘‘देवी ! मैं तुम्हारे पतिव्रत से प्रसन्न हूं। तुम्हारी साधना से मैं भी कम प्रसन्न नहीं हूं। इससे जगत का बड़ा मंगल होगा।’’ अनुसूया ने क्षमा चाचना करते हुए युवती का परिचय पूछा। युवती ने बताया- ‘‘मैं ही गंगा हूं। तुम्हारे पति-परमेश्वर प्यासे हैं। मैं तुम्हारे सुदर्शनों के लिए यहां पधारी हूं। तुम्हारा लक्ष्य पूरा हो गया है। अपने गांव के नीचे के टीले को कुरेदो। वहां पानी ही पानी है। पानी भर कर ले जाओ और पति देव को पिलाओ।’’ अनुसूया ने गंगा मैया से निवेदन किया कि जब तक वह न लौटे, तब तक कृपया यहां रहें अथवा उसके साथ चल कर, उसके पति देव को भी दर्शन देकर कृतार्थ करें। गंगा ने वहां ठहरने के मूल्य में उसकी पति-सेवा का एक वर्ष का फल दान में मांग लिया। अनुसूया ने एक वर्ष के पुण्य-फल को अर्पित करने का वचन देकर पति देव से भी आज्ञा लेने का निवेदन किया। अनुसूया के जाने के बाद गंगा मैया वहीं पेड़ों की छाया में विश्राम करने लगीं। अनुसूया को जल-सहित लौटा देखकर महर्षि ने पूछा- ‘‘जल कहां से लायी हो? इधर तो कुछ दिनों से वर्षा ही नहीं हुई?’’ अनुसूया ने सारी घटना का वर्णन कर दिया। महर्षि अत्रि भी गंगा के दर्शन के लिए चल दिए। गंगा मैया के सामने पहुंच कर दंपति ने प्रणाम करके निवेदन किया कि यह गंगा की धारा कभी न सूखे। सदैव बहती रहे। गंगा ने कहा - ‘‘महर्षि ! यह मेरे अधिकार में नहीं है। इसके लिए आपको महादेव जी की आराधना करनी होगी।’’ गंगा के कहने पर, पति आज्ञा पाकर अनुसूया ने अपनी पति-सेवा के एक वर्ष का पुण्य फल गंगा को अर्पित कर दिया। उन्होंने वहीं भगवान शिव की आराधना की। औढ़रदानी शिव प्रकट हुए। गंगा का प्रवाह स्थायी हो गया। अनावृष्टि का संकट दूर हो गया। महर्षि ने आश्रम के पास भगवान शंकर की स्थापना करके उनको ‘ब्रजेश्वर नाथ’ नाम दिया। उनके पास बहने वाली गंगा ‘अत्रि-गंगा’ कहलायी। इसलिए इस दिन इस व्रत तथा पूजन का विधान है।