कांवरिया एक: रूप अनेक डाॅ. राकेश कुमार सिन्हा ‘रवि’ स्कन्धे च कामरं धृत्वा बम-बम प्रोज्य क्षणे-क्षणे, पदे-पदे अश्वमेधस्त अक्षय पुण्यम् सुते।। अर्थात् कंधे पर कांवर धरकर जो लगातार बम-बम बोलकर चलता है, उसे पद-पद पर अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है। पुराणों में आगे यह भी उल्लेखित है। धूपैदीपैस्तथा पुण्यै नैवेद्यै विविधैरपि। नः तुष्यति तथा शम्भुर्यथा कामर वारिणी।। कहने का अर्थ शिव शंकर जी कांवर से गंगाजल चढ़ाने से जितना प्रसन्न होते हैं उतना धूप, दीप, नैवेद्य या फूल चढ़ाने से नहीं। इसलिए कांवरिया शिवजी को परम प्रिय है। सामान्यतः कांवरिया का आशय बगैर दाढ़ी-बाल बनाए, लाल, गेरूआ अथवा पीला कपड़ा पहने, कंधे पर मृगछाला अथवा सिंह चर्म छाप गमछा रखे, खाली पैर रहने वाले ऐसे भक्तों से है जिनका एकमात्र उद्देश्य शिव शंकर को जल अर्पित करना होता है। मूलतः भारतीय धर्म संस्कृति में कांवरिया का संबंध शिव-पूजन से है। वैसे तो किसी भी मानित शैव तीर्थ में बारहो मास कांवरियों को देखा जा सकता है, पर श्रावण के महीने में इनकी संख्या में आशातीत बढ़ोत्तरी हो जाती है। प्रत्येक शैव तीर्थ में दिनो-दिन कांवरियों की बढ़ती संख्या इस तथ्य का अकाट्य प्रमाण है कि इस धराधाम पर घोर कलियुग में भोले भंडारी का आशीर्वाद कांवरिया बन जलार्पित कर सहज में पाया जा सकता है। भारतीय वांग्मय में कांवर से गंगाजल अर्पण करने की परंपरा अति प्राचीन है। आनंद रामायण से ज्ञात होता है कि स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने कांवरिया का वेष धारण कर सुल्तानगंज से 105 कि.मी. की दुर्गम यात्रा कर द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक श्री वैद्यनाथ पर गंगाजल अर्पण किया था। आदि कांवरिया के रूप में भूतनाथ भैरव का भी नाम आता है। इस तरह लंका नरेश रावण की गणना भी कावंरिया के रूप में की जाती है जिसने कांवर द्वारा राणेश्वर महादेव (देवघर) पर गंगा जल अर्पित किया था। तारकेश्वर तीर्थ (हाबड़ा से 51 कि.मी. दूर में भी कांवर जल चढ़ता है। भक्त सिबड़ाफूल्ली से जल लाकर यहां अपिर्तत करते हैं। यह जानने समझने की बात है कि कांवर लिए भक्त अहर्निश बोल-बम, बोल-बम का जयघोष करता रहता है। यही कारण है कि कांवरियों को ‘बम’ भी कहा जाता है और तीर्थ यात्रा के दौरान भी इनके नाम में बम जोड़कर ही संबोधन किया जाता है, कहने का अर्थ यह कि रूप, रंग, मन-भाव व नाम सब शिवमय। कार्यशैली, धर्म-प्रयोजन व जलार्पण के दृष्टिकोण से कांवरियां मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं। पहले प्रकार के बम ‘‘साधारण कांवरिया’’ कहे जाते हैं। ये घर से पूजा-पाठ व नास्ता-पानी का सामान लेकर गंगा तट तक आते हैं। वहां से मार्ग में रात्रि-विश्राम करते आराम से शैव तीर्थ तक जाते हैं। कांवरियों का दूसरा रूप है ‘‘डाक बम’’। ये जल लेकर लगातार चलते हैं और कहीं मार्ग में रूकते नहीं है। प्रायः 24 घंटे के अंदर जलार्पण करना इनका मुख्य उद्देश्य होता है। डाक बम मल-मूत्र पर नियंत्रण रखने का कठोर अभ्यास बहुत पहले से ही शुरू कर देते हैं ताकि मार्ग में कोई परेशानी न हो। ये अपने साथ टार्च और डंडा जरूर रखते हैं। कांवरियों की तीसरी श्रेणी ‘‘खड़ा बम’’ अथवा खड़े कांवरियों का है जो अपने नाम के अनुरूप मार्ग में कहीं बैठते नहीं। भोजन, उत्सर्जन सब खड़ा ही खड़ा। कांवरियों का एक वर्ग ऐसा होता है जो जल उठाने से चढ़ाने तक कहीं बातचीत नहीं करता, सिर्फ बोल-बम की रट लगाए चलते रहता है, ऐसे जैसे ऊपर से मौन हो --- ऐसे भक्तों को ‘‘मौनी बम’’ कहा जाता है। ये अपनी समस्त बातों को इशारे से ही बताया करते हैं। कुछ ऐसे भी भक्त हैं जो हरेक मास की किसी निश्चित तिथि को कांवर से जल अर्पण करते हैं। ऐसे भक्तों को ‘‘माहवारी कांवरिया’’ अथवा मासिक बम कहा जाता है। कुछ महिलाएं अपनी कार्य-सिद्धि के कारण शैव तीर्थ जाने के मार्ग में आंखो में पट्टी लगा लेती हैं जैसे वे नेत्रविहीन हों। उनके मार्ग दर्शन का कार्य उनके सहयोगी किया करते हैं। ऐसे कांवरियो को ‘‘शयन कांवरिया’’ कहा जाता है। कुछ ऐसे भी भक्त हैं जो दंडवत देते शैव तीर्थ तक पहुंचते हैं। ये अपने साथ एक छोटी लकड़ी रखते हैं और उसी से नाप कर अगले दंडवत की तैयारी लगातार करते रहते हैं। आज कांवड़ियों के बीच अत्याधुनिकता की हवा फैलती जा रही है। ऐसे कांवड़ियों के बारे में धर्म विद्वानों का मानना है कि कोई वस्त्र धारण कर ही कांवरियां नहीं बन जाता। प्रत्येक कांवरिये को आठ नियम मानने की अनिवार्यता है। कांवरियों के लिए आवश्यक है - धार्मिक आचार-विचार का कड़ाई से पालन, परहेज युक्त सात्विक-भोजन व व्यवस्थित धर्मानुकूल दिनचर्या। अस्तु ! श्रावण के महीने में कांवरिया बन शिव-शंकर की पूजा अर्चना की परंपरा भारतवर्ष में बहुत पुरानी है जिसे इस कलियुग में भी लोग समय-सुविधा मिलने के साथ नियम निष्ठा से निर्वहन करते हैं।