आध्यात्मिक जीवन का सबसे प्रमुख अंग है, अतः उसके अनुकूल प्राकृतिक दृश्य जैसी बाह्य परिस्थितियां वांछनीय हैं। ध्यान के लिए एक ऐसा स्थान चुन लेना चाहिए जहां केवल ध्यान किया जाए। स्थान शांत और शब्दरहित होना चाहिए, जिससे हममें आध्यात्मिक स्पंदनों को प्रोत्साहन मिले।
इसके बाद ध्यान और कैवल्य नामक समाधि रूप मुक्तावस्था की प्राप्ति के योगोक्त आठ अंगों का अनुष्ठान है। योगाभ्यास का उद्देश्य हमारे स्वभावगत चिंतन और प्रवृत्तियों के विपरीत चिंतन करना और सहज प्रवृत्तियां उठाना और उनका पुनर्निर्माण करना है।
हमारे मन में सदा हिंसा, छल, अनाधिकार अर्जन, काम, लोभ आदि के विचार उठते रहते हैं। उन्हें दूर करने अथवा दबाने की बात योग में नहीं की गई है। उसके स्थान पर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के विचारों को उठाने का उपदेश दिया गया है।इन्हें दूर करना अथवा दबाना नकारात्मक प्रक्रियाएं हैं, जिनमें बहुत सी शक्ति क्षय हो जाती है, जबकि उनके स्थान पर सकारात्मक सद्गुणों का विकास यम नामक प्रथम अंग है।
दूसरा है नियम अर्थात् संतोष के भाव का विकास करना। यदि हम उपर्युक्त सद्गुणों का विकास न कर सकें तो कुछ आसान बातें सीखी जा सकती हैं; यथा दूसरों के कल्याण में प्रसन्नता का भाव लाना, दुखी लोगों के प्रति करुणा का भाव रखना आदि सामाजिक सद्गुण। योग में अन्य बातों के साथ इन सामाजिक सद्गुण् ाों पर भी बल दिया गया है। दूसरों के सुख में प्रसन्न होना, दुखी जनों के प्रति सहानुभूति, अपने सहचरों के सत्कर्मों में आनंद का अनुभव करना और दुष्ट जनों अथवा असत्कार्य करने वालों के प्रति उपेक्षा का भाव रखना चाहिए। इस तरह हम दूसरों की प्रगति से उत्पन्न होने वाली ईष्र्या से मुक्ति, क्रोध और तथाकथित धार्मिक रोष तथा गरीब और दुखी लोगों प्रति उपेक्षा के भाव से मुक्ति पा सकते हैं।
तीसरी साधना है आसन। ध्यान के लिए सर्वोत्तम आसन वह है, जिसमें हम लंबे समय तक आराम से तनावरहित बैठ सकें और जिसमें मेरुदंड, गर्दन तथा सिर सीधे रहें। ऐसे आसन में हमारे मन में उच्चतर विचार उठते हैं।
चैथा अंग प्राणायाम है, अर्थात संतुलित श्वास-प्रश्वास। विचारों और श्वास-प्रश्वास में घनिष्ठ संबंध होता है। अतः संतुलित श्वास-प्रश्वास से मन को संतुलित किया जा सकता है। आॅक्सीजन के आहरण में वृद्धि कर हमारे अंतर को शुद्ध करने की क्षमता प्राणायाम में है। इसके साथ ही वह चेतना के निम्न केंद्रों को आरामदेह ऊष्णता प्रदान कर जाग्रत भी करता है।
पंचम अंग है प्रत्याहार अर्थात् वि.ि भन्न वस्तुओं और विषयों की ओर जाने-अनजाने में भागते मन को भीतर खींचना। इस प्रत्याहार की तुलना एक मछुआरे द्वारा एक विस्तारित स्थान में फैलाए गए जाल को धीरे-धीरे खींचने से की जा सकती है, जिससे वह अपने प्रयास की लक्ष्य, मछलियों, को एक स्थान पर एकत्र कर लेता है। इस प्रत्याहार की अवस्था से साधना के वास्तविक आध्यात्मिक पक्ष का प्रारंभ होता है। एक सोने की जंजीर भी जंजीर है।
महत्वपूर्ण बात मन की विशुद्ध अवस्था की प्राप्ति है, जहां वह स्वभावगत प्रवृत्तियों द्वारा पैदा होने वाली समग्र वृत्तियों से रहित हो। जब कभी हमारे मन में एक तरंग या वृत्ति पैदा हो उसी समय हमें उसे उस प्रतीक में तत्काल विलीन कर देना चाहिए, जो परमात्मा का द्योतक है। इस प्रकार मन की बहिर्मुखी शक्ति इस प्रतीक को जीवंत बना देती है। उद्देश्य की यह निष्ठा छठा सोपान है। एक प्रकार की वृत्ति को बार-बार उठाने से तथा उद्देश्य की एकनिष्ठता से चित्त एक ही विषय के साथ बंध सा जाता है। यह मानो एक प्रकार का बाह्य झुकाव रहित आत्मसम्मोहन है।
इस अवस्था में चिंतन एकाग्रता या धारणा को प्राप्त होता है। किसी एक स्थान में मन को एकाग्र करने की साधना, जो समस्त विक्षेपों से छुटकारा पाने का श्रेष्ठतम उपाय है, देह के किसी भी अंग पर की जा सकती है। मन को नासिकाग्र, हृदय चक्र, भू्रमध्य अथवा मस्तक में सहस्रार स्थित ज्योति पर एकाग्र किया जा सकता है। इस साध् ाना का उद्देश्य चेतना को, जो अब तक बाह्य आधार खोज रही थी, भीतर आधार प्रदान करना है।
एकाग्र चिंतन या धारणा की स्थिति के कई मनोवैज्ञानिक विषय हो सकते हैं। कला, संगीत अथवा चित्रकला आदि श्रेष्ठतर विषय हैं क्योंकि इनके द्वारा मन का भटकाव रोका जा सकता है। एक कलाकार की सारी वृत्तियां एक मुख्य वृत्ति कला में सार्थक हो जाती है। कला उसकी आदत हो जाती है और आदतों से ही चरित्र और व्यक्तित्व का गठन होता है।
जब हम यह कहते हैं कि कला एक आदत के रूप में उसका व्यक्तित्व और चरित्र बन जाती है, तब हमारा अर्थ यह है कि उसके द्वारा चुना गया कला का आदर्श उसकी चेतना पर छा जाता है तथा उसके जीवन की प्राणदायिनी शक्ति, उसकी इच्छा तथा उसके जीवन की मुख्य भावना बन जाता है।
जब साधक ध्यान के लिए चुने गए अपने इष्ट-प्रतीक को चेतना में रूपांतरित करता है तब वह कला- प्रतीक को चेतना और इच्छा में प्रतिष्ठित करने का ही कार्य करता है। मान लें किसी ने बुद्ध को ध्यान के लिए प्रतीक के रूप में चुना है। अब जब कभी मन में कोई विचार उठता है , तो वह बुद्ध के चेहरे की कल्पना करेगा तथा उस विचार को बुद्ध के मुखमंडल से आवरित कर देगा।
फिर धीरे-धीरे बुद्ध चेतना में विलीन हो जाते हैं। तब फिर बुद्ध नहीं रहते। दूसरे शब्दों में बुद्ध कालातीत हो गए हैं। जब बुद्ध आध्यात्मिक निश्चिंतता को पीछे छोड़ कर चेतना में विलीन हो जाएं तब समझना चाहिए कि ध्यान अच्छा हुआ है। गहरे ध्यान के क्षणों में ध्याता को यह बोध नहीं रहता कि कौन ध्यान कर रहा है।
आत्मप्रतीति का यह लोप, जिसकी तुलना प्रगाढ़ निद्रा में होने वाले आत्मप्रत्यय के लोप से की जाती है, साधना की अंतिम अवस्था है, यह समाधि कहलाती है। गहरे ध्यान का अनुभव शब्द और विचार के परे है। इसी बात को श्रीरामकृष्ण दूसरे प्रकार से कहा करते थे। वे कहते थे कि जब वे समाधि के अनुभव का वर्णन करना चाहते हैं तो तभी मां जगदंबा उनका मुंह बंद कर देती हैं।
ध्यान करते समय प्रतीक के चिंतन से उत्पन्न हमारी चेतना का होने वाला विस्तार अनायास ही आत्मा की ओर मुड़ जाता है। जिन लोगों का ध्यान अच्छा होता है उनके आध्यात्मिक आनंद का यही कारण है। बुद्ध जैसे प्रतीक का ध्यान करने से चेतना का विस्तार प्रयत्नपूर्वक होता है। दूसरी अवस्था में इस विस्तार को ध्यान में आत्मसात किया जाता है। इस तरह आत्मसात किए बिना वास्तविक ध्यान नहीं हो सकता।
हम जानबूझकर प्रयत्नपूर्वक ध्यान प्रतीति को आत्मसात नहीं कर सकते। यह एक अचेतन प्रक्रिया है। हम केवल इतना ही कर सकते हैं कि अपनी विस्तारित चेतना को आत्मा के द्वार पर प्रस्तुत कर दें तथा पूर्वाग्रह रहित हो शरणागत भाव से प्रतीक्षा करें।
सभी आध्यात्मिक साध् ाना पद्धतियों में साक्षात्कार के पूर्व एक पूर्वाग्रहरहित उन्मुक्त अवस्था का उल्लेख किया गया है। ऐसा करते समय वे साधना पद्धतियां उस क्षण का वर्णन करती हैं, जब प्रतीक के द्वारा व्यापक हुई चेतना अनायास ही आत्मचैतन्य की ओर प्रवाहित होती है।
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