‘‘वेदोऽखिलो धर्म मूलम’’ सम्पूर्ण वेद सनातन धर्म का मूल है। निष्कारणं सषंगो वेदाऽध्येयो ज्ञेयश्च’ बिना किसी कामना के अर्थात कारण विशेष उपस्थित हुए बिना भी कर्तव्य बुद्धि से छः अंगों के साथ नित्य वेदाध्ययन की आर्ष परम्परा रही है। अवतार वरिष्ठ परमात्मा श्री राम और श्री कृष्ण ने स्वयं षडांग वेदों का अध्ययन कर संभवामि युगे युगे के क्रम में धर्म संस्थापन सांगोपांग सम्पन्न किया। ‘‘जाकी सहज श्वास श्रुति चारी। सो हरिपढ़ यह कौतुक भारी।। -श्रीरामचरितमानस बालकांड किमधिकमिति। वैदिक संरक्षक द्वापर युगीन योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र जिस क्षण स्वधाम पधारे ठीक उसी क्षण बलवान कलि धरती पर आ धमका। यस्मिन्दिने हरिर्यातो दिवं सन्त्यज्य मेदिनीम्’’ तस्मिन्नेवावतीर्णोऽयं कालकायो बली कलिः।। श्री विष्णु पुराण पंचम अंश-अ.38/8 लगभग 2500 वर्ष पूर्व भारतीय ज्योतिष-ज्योति आद्य शंकर परिव्राजक स्वामी ज्ञानानन्द सरस्वती, वाराणसी ूूूण्ंकपेींदांतण्बवउ वातावरण और धार्मिक स्थिति में असंतुलन सा हुआ। ‘‘वेद’’ विरोधी तत्व आसुरी शक्तियां बढ़ने लगीं, वेदाध्ययन, वैदिक शिक्षा, कर्मांेपासना, सनातन धर्म संस्कृति विच्छिन्न सी होने लगी। चतुर्दिक भोग परायणता, नग्न पाशविकता, अगणित पंथ, वर्गवाद भय तांत्रिक, कापालिक पांचरालादि परम नास्तिकता का बोलबाला था। राजनीति स्वार्थ का केंद्र बन गई थी।
तत्कालीन राजा अवैदिकों के कुचक्रों में फंसकर धर्मसत्ता को खुली चुनौती दे रहे थे। सर्वत्र वेद, ईश्वर वर्णाश्रम सदाचार की निंदा तथा अनाचार-पापाचार के प्रचारकर्ताओं ने तीर्थ-पर्व देवालयों को उपेक्षित और दूषित करते हुए वेदों को धूर्तों की रचना कहने में कुछ भी कसर न रखी थी। सामान्य जनता कर्तव्य और अकर्तव्य के ऊहापोह में पड़ गई थी। ऐसी विषम और भयावह स्थिति में धार्मिक जगत में किसी ऐसे उत्कट त्यागी, निस्पृह, वीतराग, धुरंधर विद्वान तपोनिष्ठ उदार सर्वगुण संपन्न अवतारी पुरुष की महान आवश्यकता थी जो वैदिक सनातन धर्म का वास्तविक स्वरूप सबके सम्मुख प्रस्तुत करता और अन्यान्य पंथ-मत-वादों की विशृंखलित कड़ियों को एकाकार करके एकात्मता का सार्वभौमिक उपदेश देकर समाज को सुदृढ़ बनाता। कहते हैं कि जन-जन की इस आवाज को विश्वात्मा ने श्रवण किया और ठीक उस समय इस भूतल पर सनातन वैदिक धर्म की पुनः स्थापना के लिए भगवान महादेव ने आचार्य शंकर के रूप में वैशाख शुक्ल पंचमी (कलि सम्वत् 2593) को अवतार धारण किया और अपनी तीव्र वाग्मिता से ‘‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम‘ मूल सनातन धर्म की रक्षा की।
आचार्य शंकर ने राष्ट्रीय समृद्धि की रक्षा एवं नैतिक उत्कर्ष के लिए न केवल षडांग वेदाध्ययन का आह्वान किया बल्कि ज्योतिष विद्या की ज्योति में उदित नित्य-कर्म, नैमित्तिक कर्म, इष्ट कर्म, काम्य कर्म, श्रौत कर्म-स्मार्तादिक वैदिक कर्म, कांड-उपासना, कांडांतर्गत ग्रह-देव-पूजन अनुष्ठान की अनिवार्यता का सर्वत्र आदेशात्मक उपदेश भी किया जो अविस्मरणीय है- ‘‘वेदोऽनित्यमधीयतां तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयताम्’’। ‘‘छः अंगों के साथ वेदाध्ययन’’ अर्थात शिक्षाकल्पब्याकरणानिरुक्त छन्दोज्योतिषाणि षडांगानि’’ शिक्षा, कल्प-व्याकरण-निरुक्त, छंद-ज्योतिष और ऋक्-साम-यजुः अथर्वण का श्रद्धाधिक्य बुद्धि से अध्ययन एवं पुरुषार्थ चतुष्टय धर्म-अर्थ काम-मोक्ष के सं सिद्धय उदित यानी विहित कर्मों का ज्योतिषीय दृष्टि में वैदिक अनुष्ठान-सनातनवैदिक धर्म का मूल है।
वेदों में विवेच्य भाग द्वय 1. मंत्र ग्रन्थ (संहिता), 2. ब्राह्मण ग्रंथ।
‘‘वेद’’नाम सम्बोध्य हैं यथा- ‘‘मंत्र ब्राह्मणयोर्वेदानामधेयम्’।। ‘‘छः वेदांग और चारों वेद’’ अपरा विद्या’’ के अंतर्गत समाविष्ट हैं। वेदत्रयी की सृष्टि अक्षर ब्रह्म से ही हुई है। ‘‘परा’’ विद्या स्वरूप उपनिषदों का समावेश ब्राह्मण ग्रन्थों में किया गया है, क्योंकि ब्राह्मण-आरण्यक-उपनिषदों को मिलाकर वेदों का द्वितीय भाग ब्राह्मण ग्रंथ कहलाता है, जिसमें उपनिषदों का अंतिम स्थान है। ‘उपनिषद-दर्शन’ को ‘वेदांत दर्शन’ भी कहते हैं। ‘‘वेदानाम् अंतः यासु ताः उपनिषदः।’’ वेदों का अंतिम प्रतिपाद्य है अक्षर ब्रह्म। आचार्य शंकर भगवत्पाद ने ‘‘प्रेयस’’ सिद्धि चाहने वालों को ‘‘अपरा विद्या’’ में प्रतिपाद्य भूर्भुवस्वः द्युलोक से प्रजापर्यन्त-पंचभूत-चेतनांश के समन्वयार्थ, सूर्य- चंद्र,- ग्रह- देव - यमादि अनुष्ठान से स्वर्गादि फल प्राप्ति को अवैदिकों के बीच शास्त्रार्थ करके सर्वदोष विवर्जित कहकर यज्ञोपवीतादि संस्कार यज्ञ, क्रतु, दक्षिणा, कर्माड् भूत काल, यजमान और यज्ञ फल स्वरूप लोक प्राकट्य में श्रुति ऋचाएं प्रस्तुत कीं। द्रष्टव्य है मुण्डकोपनिषद 1.2.1 शांकर भाष्य, जिसका भावार्थ संक्षेप में इस प्रकार है: यह शाश्वत् सत्य है कि मेधा सम्पन्न क्रान्तदर्शी वशिष्ठ आदि महर्षियों ने ऋक्-साम-यजु-अथर्व एवं षडांग वेद (ज्योतिष) के दिव्य मंत्रों में प्रकाशित जिन अग्निहोत्रादि (यज्ञादि) कर्मों का साक्षात्कार किया उन कर्माें का त्रेता युग में वैदिक धर्मानुयायियों द्वारा अनेक रीति से यज्ञानुष्ठान संपादित किया गया।
इस विषय में श्रुति प्रमाण हंै। अतएव सत्य कर्मफल प्राप्ति के लिए एवं अनेक लौकिक-पारलौकिक सुख संसाधनों के इच्छुक जीवात्माओं को उन वेदविहित यज्ञीय कर्मोपासना का निश्चित रूप से यथाविधि नित्य अनुष्ठान करना चाहिए। स्वयं द्वारा अनुष्ठित कर्म की फल प्राप्ति का यही एक मात्र निश्चित मार्ग प्रमुख साधन है।’’ इस प्रकार प्रेयमार्ग का अनेक दृष्टांत प्रस्तुत कर आचार्य प्रवर ने आगे निःश्रेयस अभ्युदय के साधकांे के लिए ऐसा ‘‘श्रेय’’ मार्ग जो ‘‘परा’’ विद्या के अंतर्गत है मुमुक्षु जिसके निकट पहुंचकर उस परमतत्व का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करते हैं, जो गर्भ, जन्म, जरा, रोग आदि जन्म-मृत्यु के अनर्थकारी, क्लेशकारी चक्रों का विनाश करता है, और जो संसार के मूलबीज कारण अविद्या (अज्ञान) को काटता है उस ‘‘परा’’ ब्रह्म विद्या का प्रकाश प्रस्थानत्रयी के क्रम में करते हैं ‘‘आत्मसाक्षात्काराय वा प्रस्थीयते अनेन इति प्रस्थानम् गीतोपनि ब्रह्मसूत्ररूपः।
आत्मसाक्षात्कार एवं ब्रह्मात्म्यैक बोध प्राप्ति के लिए आचार्य शंकर ने विश्वमानव को प्रस्थानत्रयी 1. उपनिषद् 2. भगवदगीता 3. ब्रह्मसूत्र-भाग्य द्वारा अद्वैतामृत प्रस्तुत किया।
आचार्य शंकर ने वेद रूपी समुद्र को न्याय रूपी मंदराचल द्वारा मंथन कर प्रस्थानत्रयी भाष्य रूपी नवीन सुधा निकाली है जिसका पान कर हम अपने नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वरूप में नित्य स्थित हो अमृतत्व के भागी बन सकते हैं। आवश्यकता है भगवत्पाद् आचार्य शंकर के कृतित्व, व्यक्तित्व से अनुप्राणित होकर हम आत्मगौरव प्राप्त करें। आचार्य ने अनेक सिद्धिप्रद स्तोत्रों की रचना की है जिसके पाठ करने मात्र से शीघ्र मनोवांछित फल की प्राप्ति हो जाती है, अनेक प्रकार की सिद्धियां भी करतल गत हो जाती हैं। इस अंक में यहां विशेषकर तेजस्वी विद्या की प्राप्ति एवं सदा विमल सौभाग्य सुख-कीर्ति के लिए श्री ललिता पंचरत्न स्तोत्र की प्रस्तुति की जा रही है। श्रद्धापूर्वक नित्य प्रातः भगवती का पूजन, ध्यान करके श्रद्धापूर्वक पाठ करें। ललिता पंचरत्नम् का नित्य पाठ विद्या एवं बुद्धि प्रदायक है। जिन विद्यार्थियों को मेहनत के अनुरूप सफलता नहीं मिलती उन्हें इसका नित्य पाठ करना चाहिए। इससे तेजस्वी विद्या की प्राप्ति एवं सदा विमल सौभाग्य सुख की प्राप्ति होती है।
आद्य शंकराचार्य कृत ललितापंचरत्नम् प्रातः स्मरामि ललितावदनारविन्दं बिम्बाधरं पृथुलमौक्तिकशोभिनासम्। आकर्णदीर्घनयनं मणिकुंडलाढयं मन्दस्मितं मृगमदोज्ज्वलफालदेशम्।।11।।
मैं प्रातःकाल बिम्ब के समान अधरवाली, विशाल मोतियों से सुशोभित नासिकावाली, कर्णपर्यन्त नेत्रवाली, मणिमय कुंडलवाली, मन्दमुस्कानवाली, कस्त्ूरिका से उज्ज्वल ललाटवाली ललितादेवी के मुखारविन्द का स्मरण करता हूं।
प्रातर्भजामि ललिताभुजकल्पवल्लीं रक्तागंलीयलसदंगुलिपल्लवाढयाम्। माणिक्यहेमवलयांगदशोभमानां पुण्डेªक्षुचापकुसुमेषुसृणीर्दधानाम्।।2।।
मैं प्रातःकाल ललिता देवी की भुजारूपी कल्पलता का स्मरण करता हूं, जो लाल अंगूठियों से विभूषित कोमल अंगुलिरूपी पल्लवोंवाली तथा मणिमय स्वर्ण कंकण एवं बाजूवंद से सुशोभित है एवं जिसने पुण्डेक्षु (एक प्रकार की रसधार ईख) के धनुष, पुष्पमयबाण और अंकुश धारण किए हैं।
प्रातर्नमामि ललिताचरणारविन्दं भक्तेष्टदाननिरतं भवसिन्धुपोतम्। पद्यासनादिसुरनायकपूजनीयं पद्यांकुशध्वजसुदर्शनला´छनाढयम्।।3।।
मैं प्रातःकाल भक्त के इष्टदान में तत्पर, भवरूपी सिंधु का पोत, ब्रह्मा एवं इंद्र से पूजित, पद्य-अंकुश-ध्वज और सुदर्शन के चिह्नों से युक्त ललिता देवी के चरण विन्द को नमन करता हूं।
प्रातः स्तुवे परशिवां ललितां भवानीं त्रय्यन्तवेद्यविभवां करुणानवद्याम्। विश्वस्य सृष्टिविलयस्थितिहेतुभूतां विद्येश्वरीं निगमवाडयनसातिदूराम्।।4।।
मैं प्रातःकाल वेद वेदांत से वेध विभववाली, करुण से अनवद्य, विश्व की सृष्टि, स्थिति और प्रलय की कारणरूपा, विद्येश्वरी, वेदवाणी तथा मन से अतीत परशिवा ललिता भवानी की स्तुति करता हूं।
प्रातर्वदामि ललिते तव पुण्यनाम कामेश्वरीति कमलेति महेश्वरीति। श्रीशाम्भवीति जगतां जननीं परेति वाग्देवतेति वचसा त्रिपुरेश्वरीति।।5।।
हे ललिते! मैं प्रातःकाल कामेश्वरी, कमला, माहेश्वरी श्री शाम्भवी, जगज्जननी, परा, वाग्देवता आदि पुण्यनामों का वाणी से कीर्तन करता हूं।
यः श्लोकपंचकमिदं ललिताम्बिकायाः सौभाग्यदं सुललितं पठति प्रभाते। तस्मै ददाति ललिता झटिति प्रसन्ना विद्यांश्रिय ंविमलसौख्यमनन्तकीर्तिम्।।6।।
जो सौभाग्य देने वाली और सुललित इस ललिताम्बिका के श्लोकपंचक का प्रातःकाल पाठ करता है, भगवती ललिता उस पर शीघ्र ही प्रसन्न होकर उसे विद्या, श्री, विमल सुख और अनन्त कीर्ति प्रदान करती है।
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवतत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छकर भगवतः कृतौ ललितापंचरत्नं संपूर्णम्।।
आत्म तत्व प्रतिदिन मनुष्य को यह आत्मसमीक्षा करनी चाहिए कि आज का मेरा आचरण कितना मानवोचित था और कितना पशुतुल्य। मानव-चरित की विशेषता है उसका धर्म अर्थात जो आचरण मानव को अभ्युदय (प्रेयस) और निःश्रेयस (मोक्ष) की ओर ले जाता है, वही धर्म है। दुष्कृत सुकृत कर्मों से पाप-पुण्य लगता है, जिससे दुख और सुख भोगना पड़ता है। दुख कोई नहीं चाहता, सुख सभी चाहते हैं। सुखी होने के लिए हमें शुभकृत्य करने होंगे। कर्मफल का सिद्धान्त अत्यंत गूढ़ है। प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण त्रिविध कर्म होते हैं। इनमें प्रारब्ध कर्मों का क्षय उनके उपभोग से ही होता है। जो ‘काम’ को ही महत्व देता है, उसकी विषय वासनाएं बार-बार जन्म लेने को प्रवृत्त करती हैं, जो आप्त काम है, पूर्ण रूप से तृप्त होता है। जिसके ऊपर से अज्ञान का आवरण हटता है, उसकी विषय वासनाएं इसी जन्म में विनष्ट हो जाती हैं, वह जीवन्मुक्त हो जाता है और ‘अमृत’ पद प्राप्त करता है। जो जीवन्मुक्त जीव आत्म साम्राज्य पद पर प्रतिष्ठित रहता है वह ब्रह्म भाव को प्राप्त होता है।
जीवात्मा और परब्रह्म परमात्मा की एकता का जब तक देहधारी प्राणी को ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक वह अन्यान्य कर्मों में स्पृहा करता है, कर्म करने के लिए जीव को देह की आवश्यकता पड़ती है। देहधारी जीव जो कर्म करता है, कर्तापन भक्ति परिणाम से उसे स्वर्ग-नरक आदि प्राप्त होते रहते हैं और इस प्रकार कर्ता-कर्म उपाधि से जीव को सुख दुखादि का भेद ज्ञान भी संतप्त करता रहता है। श्रुति कहती है: भिद्यते हृदयग्रन्थिरिक्षद्यन्ते संर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चाऽस्य कर्माणि तास्मिन् दृष्टि परावरे।। मु. उ. 2.2.8 अर्थात् परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार् होने पर जीवात्मा की हृदयग्रन्थि स्वरूप विषय वासनाएं मिट जाती हैं। अविद्या वासना का पुंज हृदय की गांठ है। जब वह गांठ खुल जाती है, तब प्रारब्ध-संचित और क्रियमाण सभी कर्मों का क्षय स्वयमेव हो जाता है। इति हरि ¬ तत्सत् !