भगवान श्रीराम की गया यात्रा एवं गया श्राद्ध
भगवान श्रीराम की गया यात्रा एवं गया श्राद्ध

भगवान श्रीराम की गया यात्रा एवं गया श्राद्ध  

जगदगुरु रामानुजाचार्य
व्यूस : 6808 | अकतूबर 2008

राज्याभिषेक होने के बाद राजतंत्र को सृदृढ़ कर प्रजा की रक्षा के लिए विधि व्यवस्था कर भगवान श्रीराम ने तीर्थों की यात्रा की थी। अयोध्या से चलकर पूर्व दिशा के शोराभद्रादि तीर्थों में अवगाहन एवं अपने पितरों का तर्पण पिंड दान करते हुए गंगा जी के दक्षिण तट पर जहां पुनः पुनः नदी का गंगा जी में संगम है पहुंचे। साथ में श्री सीताजी तथा उनकी सखियां एवं लक्ष्मण जी हैं। वहां वैकुंठ नगर होते हुए जरासंध के नगर पहुंचे। वहां वैकुंठा नदी के जल में स्नान करके श्रीराम गया जी पहुंचे। उनका विमान फल्गु नदी के पूर्वतट पर उतरा। पुनः पुनः संगमं च ययौजाह्नवि दक्षिरो। वैकुण्ठ नगरं गत्वा जरासन्ध पुरं ययौ।। वैकुण्ठाया जले स्नात्वा ततो रामोययौ गयाम्। फल्गु नद्यास्तटे पूर्व मुक्त्वा तद्यानमुत्तमम्।। विमान को छोड़कर दिव्य विष्णुपद को नमन कर पुनः विमान के पास पहुंच गए। उस रात्रि को बिताकर प्रातःकाल रघुनंदन श्रीराम तीर्थ ब्राह्मणों के साथ फल्गु नदी के जल में स्नान करने के लिए गए।

इसी अंतराल में सखियों से परिवेष्टित सीता जी फल्गु नदी में स्नान करने गईं। स्नान करके सुवासिनियों को पूजा की पूजा करके महेश्वरी की पूजा करने के लिए थोड़ी देर बालु में बैठ गई और बालु की पंच पिण्डात्मक दुर्गा की मूर्ति बनाने को तैयार हुईं अैर बाम हाथ में आर्द्र (गीली) उठाई। बायें हाथ से जब पिंड पृथ्वी पर रखा तब उन्होंने देखा कि पृथ्वी के अंदर से स्वसर दशरथ जी का सुंदर हाथ निकला। दाहिने हाथ से उस पिंड को लेकर सुंदर भूमि में प्रवेश कर गए। उसको देखकर आश्चर्य से दूसरा बालु का पिंड पृथ्वी पर रखा उसे भी पूर्व की भांति ले गए। इसीप्रकार कौतुकवश एक सौ आठ पिंड दिए। इसके बाद विदेह नंदिनी शांत हो गई। दुर्गा की मानसिक पूजा कर शीघ्रता से वे विमान के पास पहुंच गईं। इस घटना को न तो सखियां जान सकीं और न श्रीराम। श्रीसीता जी ने श्रीराम से नहीं कहा कि वे क्या कहेंगे।

मनसापूज्य दुर्गा सा ययौयानं त्वरान्विता। तद्वृतं न सखीभिस्तु ज्ञातंरामेशा वाडपिन।।

तथाऽपि कथितं नैव किं रामो मां वदिण्यति।।

इतिभीत्या ततो रामः पंच तीर्थं विगाह्य च।।

इसके बाद श्रीराम जी पंच तीर्थों का आवाहन कर प्रेत पर्वत जाकर पिंडदान किए। श्रीसीता जी ने अपनी कनिष्ठिका अंगुलि से निज नामांकित सुंदर रम्य स्वर्ण मुद्रिका निकाल कर दी। श्रीराम जी दक्षिणाभिमुख होकर पृथ्वी पर अपहतेति मंत्र से तीन रेखाएं खींची जो आज भी प्रेतशिला पर स्पष्ट दिखाई देती हैं। उन रेखाओं पर कुश बिछाकर तिल घी, मधु मिलाकर सत्तु का पिंड बायें हाथ में लेकर श्रीराम देने को समुद्यत हुए और जहां तक उन्होंने पृथ्वी को देखा पिता जी का हाथ नहीं दिखाई दिया। आश्चर्य से ब्राह्मणों से पूछा ब्राह्मणों ने बड़ी शीघ्रता से उत्तर दिया यहां सभी के पितरों का दाहिना हाथ निकलता है किंतु आपके पिताजी का हाथ दिखाई नहीं दिया इसका कारण हमलोग नहीं जानते। श्रीराम जी भी आश्चर्य चकित होकर श्री लक्ष्मण जी से पूछे कि इसका कारण तुम कुछ जानते हो क्योंकि तुम बुद्धिमान हो।


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तब उन्होंने राघव से कहा जब आपने और हमने गोदावरी तट पर इस दो फल और तिलकल्क से पिंड किया तब हमलोगों ने पिता जी का हाथ देखा सो यहां दिखाई नहीं दे रहा है। मुझे भी आश्र्च हो रहा है आप सीता से पूछो। निष्क्रामंत्यत्र सर्वेषां पितृणां दक्षिणाः कराः। न दृष्यते तव पितुः कारणां नात्र विद्महे।। रामोऽपि विस्मया विष्टश्चकितः प्राह्लक्ष्मणाम्। जानीषे कारणां किंचिदत्र त्वं बुद्धिमानसि।। स प्राह राघवास्माभिर्यदा गोदावरीं गतम्। इझुदीफलपिण्याक पिण्डदाने तदाकरः।। अस्माभिः स्वपितुर्दृष्टः सोऽत्र नैव प्रदृष्यते। ममापि जातमाश्चर्यं सीतां त्वं प्रष्टुमर्हसि।। यह सुनकर भयातुर जानकी ने तुरंत कहा मुझसे कुछ अपराध हो गया है, हे रघुत्तम उसे क्षमा करें। सीता जी के इस वचन को सुनकर श्रीराघव ने पुनः उनसे कहा डरो मत मेरे सामने सच कहो। सीता ने पहले घटी घटना सभी कह सुनाई। उसको सुन कर राघव ने कहा गवाह कौन है। तुम्हारे इस कर्म का। सीता ने कहा आम्र वृक्ष।

आम्र वृक्ष ने साक्ष्य नहीं दी तो उसे शाप दिया तुम सकीट फलहीन हो जाओ। पुनः कहा फल्गु साक्ष्य देगी उसने भी साक्ष्य नही दिया उसे शाप दिया तुम अधोमुखी हो जाओ। तब सीता ने कहा यहां के निवासी ब्राह्मण जो उस समय मेरे पास थे साक्ष्य देंगे। श्री राम ने पूछा किंतु भयविह्वल ब्राह्मणों ने भी साक्ष्य नहीं दिया। श्रीराम की शंका का समाधान कैसे हो चिंतातुर सीता ने तीर्थ पुरोहितों को शाप दिया- ताॅस्तदा जानकी शापं ददौतीर्थ निवासिनः। युष्माकं नात्रसंतृप्तिः कदा द्रव्यैर्भविष्यति।। द्रव्यार्थं सकलान देशान भ्रमध्वं दीनरुपिशाः। ततः सा जानकी प्राह ओतुः साक्ष्यं प्रदास्यति।। तुम्हारी द्रव्य से कभी संतुष्टि नहीं होगी। द्रव्य के लिए दीन रूप से सभी देशों में घूमते फिरोगे। फिर कहा बिल्ली साक्ष्य देगी। उसने भी साक्ष्य नहीं दिया। उसे भी शाप दिया। तुम्हारी पूंछ अशुद्ध हो जाय। तब जानकी ने कहा मेरी गवाही गाय देगी। श्री राम के पूछने पर गाय भी नहीं बोली। उसको भी सीता ने शाप दिया।

तुम्हारा मुख अशुद्ध हो जाय। ततः सा जानकी प्राह गौर्मे साक्ष्यं दास्यति। साऽपि पृष्टानेत्युवाच रामं सीताशशापताम्। अपवित्रा भवास्ये त्वं मम वाक्येन धेनुके।। जब किसी ने साक्ष्य नहीं दिया तब पुनः सीता जी ने कहा मेरे साक्षी प्रभाकर (सूर्य) हैं। सूर्य ने कहा सत्य है तुम्हारे पिता की तुष्टि हो गई। इसी के बाद सूर्य मार्ग से सूर्य के विमान से राजा दशरथ आकर श्रीराम को ढूढ आलिंगन करके बोले। तुमने मुझे अति दुस्तर नरक से तार दिया। मैथिली के पिंडदान से मेरी उत्तम तृप्ति हो गई। फिर भी लोक शिक्षा के लिए गया श्राद्ध करें। तथापि लोक शिक्षार्थ गया श्राद्ध त्वमाचर। श्रीराम ने भी पिता से पूछा इतना जल्दी आपने बालु का पिंड क्यों ग्रहण किया यह बताएं। दशरथ जी ने कहा हे राघव गया में श्राद्ध के समय बहुत विघ्न होते हैं इसलिए मैंने शीघ्रता की। इसतरह से राम जी से संभाषण करके राघव से भी थोड़ा द्रव्य पदार्थ लेकर विमान से श्री दशरथ जी चले गए।

स प्राहात्र गयायां तु बहुविघ्नानि राघव। भवन्तिश्राद्ध समयेकृताम तस्मात्वरामया।।

इति रामं समाभाष्य ग्रहीत्वा राघवादपि। किंचित्क्रव्यं विमानेन ययौ दशरथस्तदा।।

इसके बाद श्रीराम ने प्रेतगिरि पिंड करके प्रेत शिला पर काक बलि की। पश्चात धर्मारण्य गए। उसके बाद सत्तु तिल घी और शर्करा मिश्रित पायस से पृथक पृथक वट श्राद्ध किए। अष्ट तीर्थों में श्राद्ध करके त्रिस्थलों में संध्या करके विधि पूर्वक अनेक दान दिए। ततः महा वैभव के साथ रीगदाधर भगवान की पूजा करके कीकट के साथ आम्रवृक्ष का सेचन किए। विमान रोपणादि द्वारा तीन महीना गया में रहकर विष्णुपद की पूजा की। कृत्वा विष्णुपदे पूजां विमानारोपणादिभिः। मासत्रयमतिक्रम्य गयायां रघुनंदनः।। उसके बाद सभी जनों को संतुष्ट करके विमान द्वारा पूर्व दिशा को गए जहां पहले विमान फल्गु नदी के तट पर अवस्थित हुआ था। उस भूमि को ब्राह्मणों के द्वारा राम गया कहा जाता है। वहां पर परम पावन रामेश्वर राम तीर्थ है। उसके बाद फल्गु तट से श्रीराम गंगासागर चले गए। रामोऽपि फल्गुनद्याश्च गंगायाः संगमं ययौ।


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