ज्योतिष में ग्रहणों का बहुत महत्व है क्योंकि उनका सीधा प्रभाव मानव जीवन पर देखा जाता है। चंद्रमा के पृथ्वी के सबसे नजदीक होने के कारण उसके गुरुत्वाकर्षण का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। इसी कारण पूर्णिमा के दिन समुद्र में सबसे अधिक ज्वार आते हैं और ग्रहण के दिन उनका प्रभाव और अधिक हो जाता है।
भूकंप भी गुरुत्वाकर्षण के घटने और बढ़ने के कारण ही आते हैं। यही भूकंप यदि समुद्र के तल में आते हंै, तो सुनामी में बदल जाते हैं। भूकंप, तूफान, सुनामी आदि में वैसे तो सूर्य, बुध, शुक्र और मंगल का प्रभाव देखा गया है लेकिन चंद्रमा का प्रभाव विशेष है एवं ग्रहण का प्रभाव और भी विशेष है। ग्रहण अधिकाशंतः किसी न किसी आने वाली विपदा को दर्शाते हैं।
यह तो सर्वविदित ही है कि चंद्र ग्रहण, पूर्णिमा और सूर्य ग्रहण, अमावस्या के दिन पड़ते हैं। लेकिन प्रत्येक पूर्णिमा या अमावस्या के दिन ऐसा नहीं होता क्योंकि सूर्य, राहु या केतु के साथ नहीं होता जिसके कारण चंद्रमा, सूर्य और पृथ्वी की रेखा से ऊपर या नीचे रह जाता है। पृथ्वी, चंद्र और सूर्य की जो स्थिति ग्रहण देती है वह निम्न रेखाचित्र में दर्शाया गया है।
ग्रहण पड़ने के कुछ नियम विशेष हैं:
- पृथ्वी की छाया अधिकतम 859000 मील तक जाती है जबकि चंद्रमा केवल 1 लाख मील से भी कम की दूरी पर स्थित है।
- सूर्य ग्रहण कभी भी पूरी पृथ्वी पर दृष्टिगोचर नहीं होता। चन्द्र ग्रहण अधिकतर पृथ्वी के पूर्ण पटल पर दिखाई देता है।
- एक वर्ष में अधिकतम 7 ग्रहण हो सकते हैं- चार सूर्य एवं तीन चंद्र या पांच सूर्य एवं दो चंद्र ग्रहण।
- चंद्र ग्रहण सूर्य ग्रहण से कम होते हैं, लेकिन सूर्य ग्रहण के मुकाबले चंद्रमा पृथ्वी की छाया से अधिक बार ढक जाता है।
- पूर्ण चंद्र ग्रहण अधिकतम 1= घंटे का होता है। इस मध्य चंद्रमा 52 कला आगे तक चला जाता है।
- सूर्य ग्रहण पूर्ण, वलयाकार और आंशिक तीन प्रकार के होते हंै। वलयाकार में चंद्रमा सूर्य के मध्य पर से गुजरता है, लेकिन चंद्रमा के चारों ओर से सूर्य की रोशनी आती रहती है।
- चंद्र ग्रहण तभी होता है जब सूर्य 9 दिन के अंदर केतु के ऊपर गोचर करने वाला हो।
- चंद्र जब राहु और केतु के ऊपर से गुजरता है एवं सूर्य राहु, केतु से 12.1° के अंदर होता है तो चंद्र ग्रहण होता है। यदि सूर्य 9.5° के अंदर होता है तो पूर्ण ग्रहण होता है।
- सूर्य ग्रहण जब होता है तब सूर्य राहु या केतु से 18.5° दूर होता है। 15.4° के अंदर होने पर पूर्ण या वलयाकार ग्रहण होता है।
जिस तारीख को पूर्णिमा या अमावस्या होती है उसी तारीख को 19 वर्ष पश्चात वही तिथि होती है। इसे लाक्षण् (Metonic cycle) कहते हैं। इस अवधि में चंद्र के 235 चक्र एवं पृथ्वी के 19 चक्र पूर्ण हो जाते हैं।
- ग्रहण 18 वर्ष 11 दिन पश्चात् पुनः उसी शृंखला में आते हैं क्योंकि इस अवधि में चंद्रमा के 223 चक्र एवं राहु से सूर्य के 19 चक्र पूर्ण हो जाते हैं। यह चंद्र चक्र (Saros Cycle) कहलाता है।
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सूर्य तथा चंद्र ग्रहण काल के शुभाशुभ कृत्य
चंद्र ग्रहण जिस प्रहर में हो उससे पूर्व के तीन प्रहरों में तथा सूर्य ग्रहण से पहले चार पहरों में भोजन नहीं करना चाहिए। केवल वृद्ध जन, बालक और रोगी इस निषेध काल में भोजन कर सकते हैं, उनके लिए भोजन का निषेध नहीं है। ग्रहण काल में अपने आराध्य देव के जपादि करने से अनंत गुणा फल की प्राप्ति होती है। ग्रहण काल की समाप्ति के पश्चात् गंगा आदि पवित्र नदियों में स्नान करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।
शास्त्रों के अनुसार ग्रहण के समय दिया हुआ दान, जप, तीर्थ, स्नानादि का फल अनेक गुणा होता है। लेकिन यदि रविवार को सूर्य ग्रहण एवं चंद्रवार को चंद्रग्रहण हो, तो फल कोटि गुणा होता है। आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में यंत्र-मंत्र सिद्धि साधना के लिए ग्रहण काल का अपना विशेष महत्व है। चंद्रग्रहण की अपेक्षा सूर्य ग्रहण का समय मंत्र सिद्धि, साधनादि के लिए अधिक सिद्धिदायक माना जाता है।