थैलेसीमिया: एक रक्ताल्पता रोग
थैलेसीमिया: एक रक्ताल्पता रोग

थैलेसीमिया: एक रक्ताल्पता रोग  

एम. के रस्तोगी
व्यूस : 6033 | अप्रैल 2005

थैलेसीमिया एक ऐसा रोग है जो विरासत में बच्चे को माता-पिता से मिलता है। इसे समझने और इसके कारणों का ज्योतिषीय आधार जानने के लिए बुनियादी विषय में बुनियादी ज्ञान का होना आवश्यक है। भिन्न-भिन्न समूहों की वंशानुगत अव्यवस्थाओं के कारण होनेवाले हीमोग्लोबिन संश्लेषण में कमी को थैलेसीमिया सिंड्रोम कहते हैं। हीमोग्लोबिन लौह-पोरफाडरिन वलय-प्रबंध है जो दो जोड़ों में चार ग्लोबिन पाॅलीपेप्टाइड शृंखलाओं से जुड़ा है। इन शृंखलाओं का संश्लेषण विभिन्न जीनों द्वारा होता है।

यदि इन जीनों में कोई विकार आता है तो शृंखलाओं का संश्लेषण घटने लगता है और परिणामस्वरूप हीमोग्लोबिन कम होने लगता है। इन ग्लोबिन शृंखलाओं के संश्लेषण के परिमाणात्मक विकार को थैलेसीमिया रक्ताल्पता का विकार कहा जाता है। सबसे सामान्य थैलेसीमिया बीटा-थैलेसीमिया कहलाता है जो बीटा-पेप्टाइड शृंखलाओं का संश्लेषण घटने के कारण से होता है। इस रोग में लाल रक्तकणों का नाश होता रहता है और इनसे छोड़ा गया लौह तत्व का हीमोग्लोबिन संश्लेषण में उपयोग नहीं हो पाता वरन् वह अस्थिमज्जा में एकत्रित होता रहता है और रोगी में न्यूनाधिक रक्ताल्पता हो जाती है। अतः रोगी को उसके जीवन के लिये नियमित रूप से बाहर से रक्त लेने की आवश्यकता रहती है। इस रोग की जानकारी ज्योतिष के आधार पर भी प्राप्त की जा सकती है।

इस क्रम में निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार आवश्यक है।

1. रोग तथा उसकी विरासत जिन्हें पंचम तथा नवम भाव व उनके भावेशों की स्थिति से देखना चाहिए,

2. जीन, रक्त, और अस्थिमज्जा के लिए इनके कारक सूर्य, चंद्र और मंगल की स्थिति कुंडली में देखनी चाहिए,

3. लाल रक्तकणों के नाश, लौह तत्त्व के पृथक होने और आयु का क्षीण होना। इनके लिए शनि का अध्ययन करना होगा।

4. रोग, उसकी तीव्रता तथा इलाज के लिए षष्ठेश, अष्टमेश तथा द्वादशेश की स्थिति का

5. नियमित रूप से रक्त चढ़ाने के लिए चतुर्थ भाव का और

6. लग्न तथा लग्नेश का अध्ययन आवश्यक है।

इन छः बातों का विचार द्रेष्काण, नवमांश व द्वादशांश कुंडलियों में भी करना चाहिए। अन्य कारक जिनका इस अध्ययन में उपयोग किया गया है वे हैं 22 वां द्रेष्काण, 64वां नवमांश, 85वां द्वादशांश, केतु से 22वां द्रेष्काण, लग्न तथा ग्रहों की अमृतघटी, विषघटी और मृत्युभाग में स्थिति और जन्म समय की दशा। यहां उदाहरण आठ कुंडलियों का अध्ययन प्रस्तुत है


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जिसमें उनके जातकों के थैलेसीमिया से ग्रस्त होने के ज्योतिषीय योगों का विश्लेषण किया गया है।

कुंडली 1 जन्म दिवस: 9.7.2000, जन्म समय 12.00, दोपहर स्थान: दिल्ली लग्न मृत्युभाग तथा सर्प द्रेष्काण में है। इस पर मंगल तथा सूर्य का केंद्रीय प्रभाव है। लग्नेश बृहस्पति तृतीय भाव में शनि से पीड़ित है। पंचम तथा नवम पर शनि की दृष्टि है। पंचम भाव रा/के अक्ष पर है, अतः आनुवंशिक कमी है। पंचमेश चंद्र नवमेश मंगल से दृष्ट है। सूर्य, चंद्र, मंगल तीनों केंद्र में है। सूर्य षष्ठेश है, वृद्ध है तथा मृत्यु भाग में है तथा चतुर्थ भाव में रोगकारक बुध व मंगल के साथ है। संभवतः पिता से अनुवंशिक रोग प्राप्त हुआ है। चंद्र मारक भाव में स्थित होकर मारकेश मंगल से दृष्ट है। मंगल चतुर्थ भाव में सूर्य व बुध के साथ है और मृत्यु भाग में है। 22वां द्रेष्काण भी चतुर्थ भाव में है, अतः चतुर्थ भाव अत्यधिक पीड़ित है और रक्त के कारक सूर्य, और मंगल भी यहां स्थित है।

तो रक्त का चढ़ाना नियमित एवं आवश्यक है। शनि विषघटी में होकर तृतीय भाव में है तथा द्वादश भाव का स्वामी है और रोगकारक केतु से दृष्ट है। षष्ठेश सूर्य है, द्वादशेश शनि है, अष्टमेश शुक्र राहु से पीड़ित तथा शनि से दृष्ट है। केतु से 22वां दे्रष्काण तथा 85वां द्वादशांश षष्ट भाव में हैं।

कुंडली 2 जन्म दिवस: 17.4.1982, जन्म समय: 5.29 प्रातः स्थान: दिल्ली जातक का लग्न विषघटी में तथा सर्प द्रेष्काण में है। लग्न में ही उपकेतु की स्थिति है तथा सप्तम भाव से वक्री शनि और मंगल से दृष्ट है। लग्नेश बृहस्पति वक्री होकर अष्टम भाव में है तथा सूर्य और राहु से दृष्ट है। पंचम भाव में 85वां द्वादशांश स्थित है, परंतु एकादश भाव से पंचमेश चंद्र की दृष्टि भी है। नवम भाव पर वक्री शनि की दृष्टि है और नवमेश मंगल सप्तम भाव में शनि के साथ बुध की राशि में स्थित है। सूर्य मारक द्वतीय भाव में रोगकारक बुध के साथ उच्च होकर स्थित है।

सूर्य षष्ठेश भी है और षष्ठ भाव में उपग्रह धूम स्थित है। चंद्र पंचमेश होकर षष्ठ से षष्ठभाव एकादश भाव में स्थित है। सूर्य चंद्र की तुलना से लगता है कि आनुवंशिकता पिता से मिली है। मंगल वक्री होकर मारक स्थान सप्तम भाव में शनि के साथ स्थित है और दूसरे मारक स्थान द्वितीय भाव का भी स्वामी है। शनि एकादश व द्वादश भाव का स्वामी होकर सप्तम भाव में मंगल के साथ स्थित है। षष्ठेश सूर्य मारक स्थान में है, अष्टमेश शुक्र मृत्यु भाग में होकर व्यय भाव में स्थित है।

द्वादशेश शनि सप्तम भाव में मंगल के साथ स्थित है। चतुर्थ भाव में राहु, 64वां नवांश तथा 22वां द्रेष्काण स्थित हैं अतः चतुर्थ भाव पीड़ित है। सूर्य, मंगल, बुध, राहु, केतु आयुध द्रेष्काण में हैं जो रोग की गंभीरता की पुष्टि करते हैं।

कुंडली 3 जन्म दिवस: 11.1.1986 जन्म समय: 12.45 दोपहर जन्म स्थान: अम्बाला जातक का लग्न मेष रा/के अक्ष पर है तथा मंगल व रोगकारक केतु से दृष्ट है। लग्नेश मंगल अष्टमाधिपति है तथा मारक स्थान सप्तम भाव में केतु के साथ स्थित है। पंचम भाव पर राहु व शनि की दृष्टि है। शनि मृत्यु भाग में तथा राहु विषघटी में है।

पंचमेश सूर्य नवम भाव में है। नवम भाव में पंचमेश सूर्य, द्वितीयेश तथा सप्तमेश शुक्र, तृतीयेश तथा षष्ठेश बुध बैठे हैं। यह सब मारक या रोग स्थान है। नवमेश बृहस्पति दशम भाव में शनि की राशि में विषघटी में है। इस पर सप्तम भाव से मंगल की दृष्टि हैं। मातृ कारक चंद्र साथ में है। सूर्य नवम भाव में, और आयुध द्रेष्काण में है तथा राहु से दृष्ट है जो कि विषघटी में है। अतः रोग माता और पिता दोनों से प्राप्त हुआ प्रतीत है।

चंद्र दशम भाव में बृहस्पति के साथ है जो विषघटी में है। चंद्र चतुर्थेश भी है और अष्टम भाव से शनि से दृष्ट है। मंगल मारक शनि सप्तम भाव में रोग कारक केतु के साथ है और अष्टमेश भी है। शनि मंगल की राशि में अष्टम भाव में है और छठे भाव से छठे भाव का स्वामी है। षष्ठेश बुध नवम भाव में सूर्य के साथ बैठकर रोग की आनुवंशिकता की ओर इंगित करता है। अष्टमेश मंगल विषघटी में है तथा चंद्र, लग्न और द्वितीय भाव पर दृष्टि डाल रहा है। द्वादशेश बृहस्पति भी विषघटी में होकर चंद्र को दशम भाव में विषमय कर रहा है।


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यह शनि से भी दृष्ट है जो पाश द्रेष्काण में है तथा मृत्युभाग में है। चतुर्थ भाव बृहस्पति तथा चंद्र से दृष्ट है जो चंद्र की राशि है और रक्त रोग का द्योतक है। 22वां द्रेष्काण द्वादश भाव में, केतु से 22वां द्रेष्काण षष्ठ भाव में, 64वां नवांश तृतीय भाव में तथा 85वां द्वादशांश लग्न में स्थित होकर रोग की गहन स्थिति को दर्शा रहे हैं।

कुंडली 4 जन्म दिवस: 18.11.1997 जन्म समय: 10.10 स्थान: दिल्ली लग्न धनु है जो चतुर्थ भाव से वक्री शनि द्वारा तथा सप्तम मारक स्थान से चंद्र द्वारा दृष्ट है। लग्न में मंगल, और शुक्र स्थित हैं। मंगल द्वादशेश है तथा शुक्र षष्ठ से षष्ठेश है। पंचम में छाया ग्रह व्यतिपात है तथा पंचमेश मंगल द्वादशेश भी है और लग्न में स्थित है। नवम रा/के अक्ष पर है। राहु अमृत धटी में है और रोगहरण है, परंतु नवमेश सूर्य द्वादश भाव में वृश्चिक राशि में बुध के साथ स्थित है।

द्वादश भाव में 22वां द्रेष्काण है तथा सूर्य सर्प द्रेष्काण में है। नवम भाव में सिंह राशि तथा नवमेश सूर्य दोनों पिता के द्योतक हैं जहां रोगहरण राहु अमृत घटी में है। अतः रोग संभवतः माता से प्राप्त हुआ है। चंद्र मारक भाव में बुध की राशि में है। चंद्र पर मंगल तथा वक्री शनि की दृष्टि है तथा यह स्वयं अष्टमेश है। 64वां नवांश चंद्र के साथ है और चंद्र आयुध द्रेष्काण में है। मंगल पंचमेश व द्वादशेश होकर लग्न को पीड़ित कर रहा है। यह सप्तम भाव से चंद्र से दृष्ट है और 22वें द्रेष्काण का स्वामी है। इसकी दृष्टि चतुर्थ तथा अष्टम भाव पर भी है। शनि चतुर्थ भाव में स्थित होकर वक्री है तथा सर्प द्रेष्काण में है; छाया ग्रह धूम भी शनि के साथ है।

शनि पर लग्न से मंगल की दृष्टि है तथा शनि की दृष्टि लग्न और षष्ठ भाव पर है। षष्ठेश शुक्र है जो षष्ठ से षष्ठेश भी है और लग्न में स्थित होकर मंगल से पीड़ित है। शुक्र रोग कारक केतु का 22वां द्रेष्काण भी है। अष्टमेश चंद्र है और द्वादशेश मंगल है। चतुर्थ भाव शनि से युत है और इस पर लग्न से मंगल की दृष्टि है तथा उपग्रह धूम भी यहीं पर है।

चतुर्थेश बृहस्पति मारक स्थान में है, अतः माता स्थान चतुर्थ भाव से इंगित होता है कि रोग माता से प्राप्त हुआ। 85वां द्वादशांश भी दूसरे भाव में बृहस्पति के साथ है। 22वां द्रेष्काण द्वादश भाव में तथा केतु से 22वां द्रेष्काण षष्ठ भाव में स्थित होकर रोग की तीव्रता तथा उसके इलाज के द्योतक हैं।

कुंडली 5 जन्म दिवस: 27.10.2001 जन्म समय: 2.30 रात्रि जनम स्थान: दिल्ली जातक का लग्न सिंह है जिस पर षष्ठ भाव से मंगल की दृष्टि है तथा शनि का केंद्रीय प्रभाव है। लग्न पर विषघटी में स्थित रोग कारक केतु की भी दृष्टि है। लग्नेश सूर्य विषघटी में है और नीच का होकर अष्टम से अष्टम भाव में सित है। पंचम भाव में रोगकारक केतु स्थित है; पंचमेश बृहस्पति षष्ठ से षष्ठ भाव में राहु के साथ है। यह अष्टमेश भी है।

नवम भाव नीच के सूर्य से दृष्ट है जो यह दर्शाता है कि पिता से रोग प्राप्त हुआ है। नवमेश मंगल, जो चतुर्थेश भी है, षष्ठ भाव में शनि की राशि में है सूर्य नीच का होकर अष्टम से अष्टम भाव में है जो मृत्यु का कारक है। चंद्र मारक स्थान सप्तम भाव में शनि की राशि में स्थत है तथा शनि से दृष्ट है। चंद्र द्वादशेश भी है। मंगल षष्ठ भाव में शनि की राशि में है और नवमेश तथा चतुर्थेश है। मंगल पर सूर्य का केंद्रीय प्रभाव है। शनि दशम भाव में शुक्र की राशि में है जो नीच होकर मारक थान में बुध के साथ है ,परंतु शुक्र अमृत घटी में है। शनि की दृष्टि चतुर्थ, सप्तम तथा द्वादश भावों पर है। शनि का केंद्रीय प्रभाव लग्न पर है।


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षष्ठ भाव शनि की राशि है जहां मंगल बैठा है। अष्टम भाव में मीन राशि है और इसपर रोगकारक बुध तथा नीच के शुक्र की दृष्टि है। अष्टमेश बृहस्पति षष्ठ से षष्ठ भाव में राहु के साथ बुध की राशि में है। 64वां नवांश भी अष्टम भाव में है। द्वादश भाव में कर्क राशि है जिसका स्वामी चंद्र सप्तम भाव में पीड़ित है। द्वादश भाव पर मंगल और शनि की दृष्टि है तथा 22वां द्रेष्काण और केतु से 22वां द्रेष्काण भी द्वादश भाव में स्थित हैं। ये रोग की गंभीरता और इलाज की अनुपयुक्तता के सूचक हैं।

चतुर्थ भाव में मंगल की वृश्चिक राशि है जिसपर शनि की दृष्टि है और चतुर्थेश मंगल षष्ठ भाव में शनि की मकर राशि में है। 85वां द्वादशांश मारक स्थान द्वितीय भाव में स्थित है।

कुंडली 6 जन्म दिवस: 8.4.1986 जन्म समय: 10.10 प्रातः जन्म स्थान: दिल्ली लग्न मिथुन है जिस पर मारक सप्तम भाव से मंगल की दृष्टि है तथा सूर्य का केंद्रीय प्रभाव है। लग्न का नक्षत्रेश मंगल है तथा लग्न पर केतु की भी दृष्टि है। लग्नेश बुध नवम भाव में शनि की राशि में बृहस्पति से युत है जो मृत्यु भाग में है। पंचम भाव राहु केतु अक्ष पर है, रोगकारक केतु इसमें बैठा है। पंचमेश शुक्र षष्ठ से षष्ठ भाव में राहु से युत है।

नवम भाव पर रोगकारक केतु की दृष्टि है। इसमें मृत्यु भाग में स्थित बृहस्पति तथा रोगकारक बुध की स्थिति है। केतु से 22वां द्रेष्काण तथा 85वां द्वादशांश भी नवम में स्थित है। शनि नवमेश है जो वक्री है तथा इसकी दृष्टियां अष्टम, द्वादश, और तृतीय भाव पर हैं। स्वयं शनि भी षष्ठ भाव में पाश द्रेष्काण में हैं सूर्य और चंद्र दशम भाव में बृहस्पति की राशि में है परंतु बृहस्पति मृत्यु भाग में है। इन पर सप्तम स्थान से मंगल की दृष्टि है। सूर्य विष घटी में है जो यह इशारा करता है

कि रोग पिता से प्राप्त हुआ है। सूर्य तृतीयेश है, चंद्र द्वितीयेश है और दोनों मारक स्थानाधिपति है। मंगल षष्ठेश तथा षष्ठ से षष्ठेश है। यह सप्तम भाव में बृहस्पति की धनु राशि में है और बृहस्पति मृत्यु भाग में है। शनि अष्टमेश तथा नवमेश होकर षष्ठ भाव में स्थित है, षष्ठेश मंगल है जो मारक स्थान में बैठा है अष्टम भाव मकर राशि है, इसमें 22वां द्रेष्काण और 64वां नवांश स्थित है। अष्टमेश शनि पाश द्रेष्काण में है तथा षष्ठ भाव में स्थित है। द्वादश भाव पर शनि की दृष्टि है। द्वादशेश शुक्र पंचमेश भी है और दोनों रा/के अक्ष पर स्थित हैं। चतुर्थ भाव पर सूर्य और चंद्र की दृष्टि है जो रक्त की आवश्यकता बताती है; सूर्य विषघटी में है। चतुर्थेश रोग कारक बुध है जो नवम भाव में (मृत्युभाग में) बृहस्पति के साथ स्थित है।

कुंडली 7 जन्म दिवस: 29.10.1969 जन्म समय: 7.10 प्रातः जन्म स्थान: दिल्ली लग्न तुला है जिस पर शनि मारकस्थ की दृष्टि है और मंगल का केंद्रीय प्रभाव है। इसमें बुध अस्त होकर मृत्यु भाग में है। लग्न सूर्य से भी पीड़ित है। लग्नेश शुक्र, जो चंद्र लग्नेश भी है, द्वादश भाव और अमृत घटी में है। शुक्र शत्रु बृहस्पति के साथ है और बृहस्पति विषघटी में है। पंचम भाव रा/के अक्ष पर है। पंचमेश शनि है जो मारक भाव सप्तम में स्थित है और विषघटी में है। नवम भाव में मिथुन राशि है

जिसका स्वामी बुध लग्न में मृत्यु भाग में है। नवम भाव पर शनि की दृष्टि है। सूर्य लग्न में शत्रु राशि में है और बुध के साथ है जो मृत्यु भाग में है। सूर्य पर शनि की दृष्टि है। सूर्य एकादश भाव का स्वामी है जहां रोग कारक केतु की स्थिति है। अतः प्रतीत होता है कि रोग पिता से प्राप्त हुआ है। चंद्र अष्टम भाव में है, परंतु उच्च का है। मंगल चतुर्थ भाव को पीड़ित कर रहा है। मंगल और शनि की एक दूसरे पर दृष्टि है। मंगल द्वितीय तथा सप्तम दोनों मारक स्थानों का अधिपति है शनि सप्तम भाव में है तथा सूर्य और शनि परस्पर समसप्तक हैंैै और दोनों पृथक्कारी है शनि विषघटी में है। षष्ठ भाव पर द्वादश भाव से बृहस्पति व शुक्र की दृष्टि है।


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षष्ठेश बृहस्पति विषघटी में होकर द्वादश भाव में अमृत घटी में स्थित शुक्र के साथ है। अतः रोग बहुत भयंकर नहीं होना चाहिए। अष्टम भाव में उच्च का चंद्र है परंतु अष्टमेश शुक्र द्वादश भाव में है। द्वादश भाव में कन्या राशि है जिसमें विष घटी का बृहस्पति तथा नीच का शुक्र बैठे हैं। द्वादशेश बुध अस्त होकर लग्न में है। मंगल निगड़ द्रेष्काण में तथा केतु आयुध द्रेष्काण में है। केतु से 22 वां द्रेष्काण तथा 64वां नवांश दोनों द्वितीय मारक भाव में हैं। चतुर्थ भाव विषघटी के मंगल से पीड़ित है। यह स्थिति रक्त हानि और बार-बार रक्त चढ़ाने की आवश्यकता का संकेत देती है। चतुर्थेश शनि है जो सप्तम भाव में विषघटी में है।

कुंडली 8 जन्म दिवस: 08.5.1981 जन्म समय: 21.35 जन्म स्थान: दिल्ली जातक का लग्न वृश्चिक है तथा इस पर सप्तम भाव से अस्त बुध और शुक्र की दृष्टि है; षष्ठ भाव से मंगल की और एकादश भाव से शनि की दृष्टि है। लग्नेश मंगल षष्ठ भाव में स्वगृही है परंतु अस्त है और सूर्य के साथ है। पंचम भाव पर राहु तथा शनि की दृष्टि है और पंचमेश बृहस्पति षष्ठ से षष्ठ भाव में शनि के साथ बुध की कन्या राशि में है। नवम भाव रा/के अक्ष पर है तथा इसमें राहु की स्थिति है।

इस पर षष्ठ भाव से मंगल की दृष्टि है। नवमेश चंद्र अष्टम भाव में रोग कारक बुध की मिथुन राशि में है और इस पर शनि की भी दृष्टि है। माता से आनुवंशिकी में रोग मिला प्रतीत होता है। सूर्य अमृत घटी में होकर उच्च है परंतु षष्ठ भाव में मंगल के साथ है। अतः पिता से जीवनदायी जीन मिले हैं। चंद्र अष्टम भाव में मिथुन राशि में, शनि से दृष्ट है। सूर्य दशम भाव का स्वामी है और चंद्र नवम भाव का जो राहु से पीड़ित है।

मंगल लग्न तथा षष्ठ भाव का स्वामी होकर रोग स्थान षष्ठ भाव में सूर्य के साथ है जो निज को रक्त संबंधी रोग दर्शा रहा है। मंगल की दृष्टि नवम, द्वादश तथा लग्न पर है। शनि षष्ठ से षष्ठ भाव में बुध की राशि में है। यह तृतीयेश तथा चतुर्थेश है और आयुध द्रेष्काण में है। इसकी दृष्टि लग्न, पंचम तथा अष्टम भाव पर है। षष्ठ भाव मंगल और सूर्य से युत है और षष्ठेश मंगल स्वगृही है। अष्टम भाव बुध की राशि है और शनि से पीड़ित है। आयुध द्रेष्काण में स्थित नवमेश चंद्र इसमें स्थित है। अष्टमेश बुध मारक सप्तम भाव में अस्त होकर स्थित है।

द्वादश भाव पर मंगल व सूर्य की दृष्टि है। द्वादशेश शुक्र मारक स्थान सप्तम भाव में रोग कारक बुध के साथ स्थित है। चतुर्थ भाव शनि की राशि कुंभ है और यहां पर 22 वां द्रेष्काण स्थित है। केतु से 22 वां द्रेष्काण मारक स्थान द्वितीय भाव तथा 85वां द्वादशांश मारक स्थान सप्तम भाव में है।

कुंडलियों के अध्ययन निम्न तथ्य सामने आते हैं:

- रोग अध्ययन में जो कारक निर्धारित किए गए हैं वे शुभ फलदायी नहीं हैं।

- लग्न तथा लग्नेश मंगल व शनि से प्रभावित हैं।

- पंचम तथा नवम भाव पीड़ित हैं और पंचमेश तथा नवमेश सप्तम, एकादश भाव और षष्ठ, अष्टम, द्वादश भाव में हैं।

- सूर्य और चंद्र मारक स्थान या रोग स्थान अथवा रोग कारक से जुड़े हैं। मंगल का संबंध भी बनता है।

- मंगल मुख्यतया लग्न अथवा षष्ठ और सप्तम भावों में है।

- शनि विषघटी, मृत्यु भाग, सर्प, पाश या आयुध द्रेष्काण में है।

- षष्ठ, अष्टम व द्वादश भावों की स्थिति अशुभ है।

- द्रेष्काण, 64वां नवमांश और 85वां द्रेष्काण अशुभ स्थिति दर्शाते हैं।

- रा/के के अक्ष 5/11, 3/9 या 4/10 भावों पर है।

- जन्म दशाओं के स्वामी या तो दशम भाव से या मारक भावों से जुड़े हैं।

- अनेक स्थानों पर दशम भाव से अशुभ संबंध बनते हैं। ऐसा शायद दशम भाव का कर्म भाव होने के कारण है, क्योंकि रोगी की अवस्था पुनःपुनः रक्त की आवश्यकता चाहती है, अतः कर्म का न होना दर्शाती है।



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